जवाब कम, सवाल ज्यादा खड़ा करता है पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला



अरविन्द कुमार

(राजनीतिक विश्लेषक एवं शोधार्थी, जेएनयू)


पदोन्‍नति में आरक्षण पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला जवाब कम, सवाल ज्यादा पैदा करता है, इसलिए लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि यह फैसला दलितों-आदिवासियों के हित में है या विरोध में। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के इस फैसले का परिप्रेक्ष्‍य सुप्रीम कोर्ट की दो खण्डपीठों द्वारा अलग-अलग राज्य सरकारों की ओर से पदोन्नति में दिए आरक्षण को संबंधित हाईकोर्ट से खारिज किए जाने की सुनवाई है। इस सुनवाई में आदेश दिया गया कि इन मामलों की सुनवाई के लिए एक बड़ी संविधान पीठ का गठन किया जाए।

फैसले की पृष्‍ठभूमि

विभिन्न हाईकोर्टों ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के निर्णय, जिसे एम. नागराज बनाम भारत संघ कहा जाता है, के अनुपालन में राज्य सरकारों द्वारा दलितों एवं आदिवासियों को पदोन्नति में दिये जा रहे आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। विभिन्न राज्य सरकारों नें अपने-अपने हाईकोर्ट के निर्णय को यह क़हते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी कि नागराज बनाम भारत संघ का निर्णय सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ के निर्णय, जिसे इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ कहा जाता है, की मूलभावना के खिलाफ है क्योंकि यह निर्णय आरक्षण लागू करने के लिए चार सिद्धांतों- पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, कार्यक्षमता व अत्यधिकता– को प्रतिपादित करता है। इनमें से कुछ सिद्धांतों का जन्म इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ के निर्णय से हुआ है, जो कि सिर्फ और सिर्फ ओबीसी रिज़र्वेशन से संबंधित है, इसलिए उन सिद्धांतों को दलितों एवं आदिवासियों के आरक्षण पर लागू करके नागराज बनाम भारत संघ का निर्णय, इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ के निर्णय की मूलभावना के खिलाफ जाता है।

चूंकि संवैधानिकता का तकाजा है कि कोर्ट की छोटी संविधान पीठ, बड़ी संविधान पीठ के निर्णय के खिलाफ जाकर कोई निर्णय नहीं सुना सकती, इसलिए राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार नें इस मुकदमे में यह भी मांग की थी कि नए तथ्यों के अवलोकन में नागराज बनाम भारत संघ के निर्णय की सात सदस्यीय संविधान पीठ के सामने समीक्षा कराई जाए क्योंकि इसका निर्णय ओबीसी आरक्षण से संबंधित प्रावधानों को दलितों एवं आदिवासियों के आरक्षण पर लागू करने के लिए कहता है, जिसको इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ का निर्णय मना करता है।

आरक्षण के चार सिद्धान्त

नागराज बनाम भारत संघ का निर्णय कहता है कि समता का अधिकार संविधान की मूलभावना है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 में प्रतिस्थापित है। आरक्षण का प्रावधान मुख्यतः अनुच्छेद 16 से निकलकर आता है जिसका मुख्य उद्देस्य है समाज में समता स्थापित करना। समता अलग-अलग व्यक्तियों के बीच के साथ ही अलग-अलग समूहों के बीच में भी स्थापित की जानी है। आरक्षण विभिन्न समूहों के बीच में समता स्थापित करने का एक औज़ार है। भारत के संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग ऐसे तीन प्रमुख समूह हैं जिनको आरक्षण का लाभ दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समूहों के बीच समता स्थापित करते समय व्यक्तिगत अधिकार को तिलांजलि नहीं दी जा सकती। अतः व्यक्तिगत अधिकारों एवं समूह के अधिकारों के बीच तारतम्य बना रहे, इसके लिए नागराज के मुकदमे में कोर्ट नें आरक्षण लागू करने के चार सिद्धांत- पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, कार्यक्षमता व अत्यधिकता, पूर्ववर्ती संविधान पीठ के निर्णयों एवं संविधान के बृहद उद्देश्यों को ध्यान में रखकर प्रतिपादित किए।

इन सिद्धांतों में सबसे पहला है पिछड़ापन। नागराज के मामले में सुप्रीम कोर्ट नें व्यवस्था दी कि उपरोक्त तीनों समूहों को किसी भी स्तर पर आरक्षण देते समय सरकारों को मात्रात्मक आंकड़े से यह साबित करना होगा कि उपरोक्त समूह पिछड़ा है। इसके साथ यह भी कहा कि ओबीसी को केवल प्रवेश के चरण में ही आरक्षण मिलेगा, जबकि एससी/एसटी को पदोन्नति में भी आरक्षण मिल सकता है, बशर्ते सरकार को यह साबित करना होगा कि वो अब भी पिछड़े हुए हैं। ताज़ा निर्णय में कोर्ट ने यह माना है कि नागराज निर्णय का यह भाग जो कि सरकारों से कहता है कि उन्हें एसटी-एसटी को आरक्षण या फिर प्रमोशन में आरक्षण देते समय मात्रात्मक आंकड़े से यह साबित करना पड़ेगा कि उक्त समुदाय कितना पिछड़ा रह गया है, संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के खिलाफ है, इसलिए गलत है। उक्त दोनों अनुच्छेद राष्ट्रपति को यह शक्ति देते हैं कि वह किसी भी जाति व नस्ल के समूह को अनुसूचित जाति एवं जनजाति की श्रेणी में डाल सकता है, और संसद को यह शक्ति देता है कि वह कानून बनाकर किसी भी जाति या नस्ल के समूह को उपरोक्त श्रेणियों से बाहर कर सकता है। यदि कोई वर्ग या समूह एक बार उपरोक्त श्रेणियों में शामिल हो गया तो उसे तब तक पिछड़ा ही माना जाएगा जब तक कि संसद कानून बनाकर उसे बाहर ना कर दे। इसलिए नागराज निर्णय का यह भाग गलत है जिसमें वह सरकारों से कहता है कि उन्हें बार-बार मात्रात्मक आंकडे से अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का पिछड़ापन साबित करना होगा।

इस निर्णय में कोर्ट ने यह भी प्रावधान कर दिया है कि ‘क्रीमी लेयर की अवधारणा’, जो कि अब तक सिर्फ ओबीसी पर लागू है, को अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के आरक्षण पर कोई भी संविधान पीठ लागू कर सकती है। नागराज मामले से निकलकर आए आरक्षण के बाकी के तीन सिद्धांतों- अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, कार्यक्षमता व अत्यधिकता को कोर्ट ने यथावत रखा है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने नागराज मामले की समीक्षा हेतु बड़ी संविधान पीठ बनाने की मांग यह कहकर ठुकरा दी है कि एक बड़ी पीठ पहले ही इस निर्णय से अपनी सहमति जता चुकी है।

निर्णय के दूरगामी परिणाम

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने नागराज निर्णय के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया है जिसके तहत सरकारों को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देते समय मात्रात्मक आंकडा (डाटा) से इन समूहों का पिछड़ापन भी साबित करना था, इसलिए लोग यह मान रहे हैं कि सरकारें अब बिना कोई मात्रात्मक आंकडा इकट्ठा किए सीधे ही पदोन्नति में आरक्षण दे सकती हैं, जबकि यह अर्धसत्य है। दरअसल, सरकारों को पदोन्नति में आरक्षण देते समय कर्मचारियों का कैडर स्तर पर मात्रात्मक आंकड़ा इकट्ठा करना होगा और साबित करना होगा कि कैडर स्तर पर इन समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तथा इनके प्रतिनिधित्व के लिए पदोन्नति में आरक्षण कर देने से उस विभाग की कार्यक्षमता प्रभावित नहीं होगी। विभिन्न स्तरों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व कैसे सुनिश्चित किया जाए, केंद्र सरकार नें यह मांग की थी जनसंख्या में इन समुदायों के अनुपात को आधार बना दिया जाए, लेकिन कोर्ट ने यह मांग भी ठुकरा दी। कोर्ट ने यह भी इशारा किया है कि सरकारें जब प्रतिनिधित्व के लिए आंकडे जुटाकर पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान बनाएंगी तो वह प्रतिनिधित्व और कार्यक्षमता दोनों की पड़ताल करेगी। इसका सीधा मतलब है कि अगर राज्य सरकारें पदोन्नति में आरक्षण का कोई प्रावधान बनाती हैं, तो वह प्रावधान फिर से कोर्ट की ही अनुकम्पा पर निर्भर रहेगा। इससे साफ पता चलता है कि हाल फिलहाल में पदोन्नति में आरक्षण लागू होने वाला नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट नें आरक्षण में अत्यधिकता के सिद्धांत, जिसको पचास फीसदी की सीमा का प्रावधान लागू करके किया जाता है, को यथावत रखा है।

इस निर्णय का जो सबसे विवादास्पद भाग है, वह है, ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को कोर्ट द्वारा समता के सिद्धांत में प्रतिपादित करके एससी/एसटी आरक्षण में संवैधानिक कोर्ट द्वारा लागू करने का दरवाजा खोलना जो कि आने वाले समय में नए विवाद को जन्म देते हुए गंभीर बहस का मुद्दा बनेगा। इसका आरक्षण पर क्या वृहद प्रभाव पड़ेगा, यह भी आने वाले समय में बहस का मुद्दा बनेगा।