15 अगस्‍त को शुरू हो रहे अश्‍लीलता के नये सीज़न से पहले कुछ सवाल



मंगलवार को नेटफ्लिक्‍स की वेब सीरीज़ ‘’सेक्रेड गेम्‍स’’ के दूसरे सीज़न का ट्रेलर आया। सीरीज़ स्‍वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्‍त को रिलीज़ हो रही है। दो मिनट के इसके ट्रेलर में तीन शब्‍द ऐसे है जो हमारे समाज में सार्वजनिक रूप से वर्जित माने जाते हैं। दिलचस्‍प है कि इन तीनों का अंग्रेज़ी में जो अनूदित सब-टाइटल है, उसमें से दो में कोई वर्जित शब्‍द नहीं है। सामान्‍य अंग्रेज़ी है। ज़ाहिर है, हिंदी के दर्शकों को निर्देशक अश्‍लीलता प्रेमी समझता है वरना गाली-गलौज के बगैर भी काम चलाया जा सकता था।

सेक्रेड गेम्स के पहले सीज़न में हमने नवाजुद्दीन सिद्दीकी और दूसरे किरदारों को धड़ल्‍ले से गालियां देते देखा है। ज़ाहिर है, दूसरा भाग इससे अलग नहीं होगा। ट्रेलर से समझ में आता है। सेक्रेड गेम्स में बहुत हिंसक सेक्स दृश्‍य भी फिल्‍माये गए हैं जो यौनिक हिंसा को बढ़ावा देते हैं। सेक्रेड गेम्स में बहुत जगह बिना वजह गालियों का भी प्रयोग किरदार करते हैं जो समाज की महिला विरोधी और पितृसत्तात्मक सोच को और पुख्‍ता करती हैं। गायतोंडे जेल में लड़कियों से सेक्स के लिए जो बोलता है वह अनावश्यक है। यहां चर्चा करना उचित नहीं है, पर सेक्रेड गेम्‍स के दर्शकों को ही नहीं बल्कि आजकल चल रही वेब सीरीज़ को देखने वाले अच्‍छे से जानते हैं कि उनमें क्‍या वर्जित होना चाहिए था, जो नहीं है।

फिलहाल वेब सीरीज़ का दौर चल रहा है। नेटफ्लिक्‍स, अमेज़न, ज़ी5 आदि पर ऑनलाइन वेब सीरीज़ की भरमार है। सेक्रेड गेम्स, मिर्ज़ापुर, अपहरण, घाउल आदि वेब सीरीज लोकप्रिय हुई हैं। भोजपुरी में भी एक वेब सीरीज़ वर्दीवाला आ चुकी है। इन सभी की अपनी अलग-अलग कहानी है, अलग-अलग सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि है लेकिन सभी में एक चीज़ समान है- गालियों की भरमार। मिर्ज़ापुर के एक सीन में मुन्ना भइया नाम का किरदार बिना मतलब के एक बूढ़े को गाली देकर संबोधित करता है। क्‍या ऐसा वास्‍तविक जीवन में भी होता होगा? एक साइकिल मिस्‍त्री को और एक ऑटो वाले को हॉर्न बजाने पर अली फ़ज़ल मां-बहन की गालियां देता है। ऐसा कौन करता है असल जीवन में? क्‍या मिर्जापुर में ऐसे ही होता है? मिर्जापुर को जानने वाले बताते हैं कि इस सीरीज़ के ज़रिये शहर को बदनाम करने की पूरी कोशिश की गई है। एक फिक्‍शनल मिर्जापुर खड़ा कर दिया गया है, जो हकीकत में है ही नहीं।

मैं भोजपुरी समाज से आता हूं। भोजपुरी मेरी मातृभाषा है। एक आम धारणा है कि भोजपुरी में अश्‍लीलता और गंदगी चलती है। ऐसा केवल कुछ लोगों के कारण हुआ है। भोजपुरी में बेशक बहुत से अश्लील गाने और फिल्मों में बहुत से अश्‍लील दृश्य हैं लेकिन ऐसा केवल भोजपुरी तक सीमित नहीं है। मैथिली से लेकर बांग्‍ला, मलयालम, पंजाबी, हरियाणवी और उडि़या तक यही हाल है। कम ही लोगों को पता होगा कि भोजपुरी में आज तक जितने भी गीत लिखे गए हैं, उनमें पुरुष केंद्रित गीत यानी मर्दनवा गाने न के बराबर हैं। ज्‍यादातर गीत महिला केंद्रित हैं जिनमें महिलाओं का दर्द दिखाया गया है। बिदेसिया से लेकर धोबी, बिरहा, सोहर, बेलवरिया, कजरी, टेर, आल्‍हा, निर्गुन जैसी स्‍थानीय शैलियां अपने मूल में स्‍त्री-केंद्रित हैं और पुरुष-वर्चस्‍व विरोधी हैं। इसके बावजूद अश्‍लीलता के नाम पर बदनाम भोजपुरी ही है।

हिंदी के मनोरंजन उद्योग में अश्‍लीलता के ट्रेंड की शुरुआत देखनी हो तो निरपवाद रूप से अनुराग कश्यप निर्देशित गैंग्स ऑफ वासेपुर का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। इस फिल्‍म के दोनों पार्ट जिस तरह गालियों और अश्‍लील संवादों की भरमार है, उसने लोकप्रियता के सस्‍ते पैमाने के तौर पर गालियों को मनोरंजन उद्योग में स्‍थापित करने का काम किया। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन फिल्‍मों में महिला किरदार भी खुलकर गालियों और वर्जित श्‍शब्‍दों का प्रयोग करती हैं। क्‍या महिला पात्र से महिलाओं को महिला-विरोधी गालियां दिलवाना कूल और प्रगतिशील दिखने का पैमाना है? पार्च्ड जैसी इक्का-दुक्का फिल्में हैं जिसमें महिलाएं पुरुषों के लिए अलग गालियां देती दिखती हैं, लेकिन वह अपवाद है और जिस दृश्‍य में यह गालियां दी गई हैं, वह भी बनावटी लगता है।

क्‍लीनिकल रिसर्च बताते हैं कि गाली देने से सहने की शक्ति बढ़ जाती है, इंसान अपना गुस्सा जाहिर कर पाता है। भीतर की कुंठा और हताशा को बाहर निकालने का यह एक कारगर मेकैनिज्‍़म है। ऐसे में सवाल उठता है कि सारा गुस्सा सिर्फ महिलाओं को निशाना बनाकर ही क्यों? और क्‍या केवल पुरुष की अपना गुस्‍सा निकालने के हकदार हैं इस समाज में? फ्रायड कहते हैं कि गालियां देकर हम सामने वाले व्यक्ति के साथ मानसिक व यौनिक हिंसा कर रहे होते हैं। ये गालियां महिला-विरोधी होने के साथ ही मानसिक व यौनिक हिंसा भी कर रही होती हैं जिसकी प्रतिक्रिया में बहुत सी हिंसक घटनाएं आदि होती रहती हैं।

अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों ने जो ट्रेंड स्‍थापित किया, उस पर चलते हुए बाद के निर्देशक दृश्यों को वास्तविक दिखाने के चक्कर में अति कर जा रहे हैं। लिहाजा उनके फिल्‍माये दृश्‍य और संवाद वास्‍तविकता से परे जाकर अतिवास्‍तविक बन जा रहे हैं। गालियां बेशक अपने समाज की सच्चाई हैं लेकिन जिस तरह से इन वेब सीरीज़ और फिल्मों में दिखाया जा रहा है उस तरह से नहीं हैं। यहां गालियों को महिमामंडित किया जा रहा है, ग्‍लैमराइज़ किया जा रहा है और उनके सहारे अश्लीलता परोसी जा रही है।

आज समाज में जिस तरह महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं, यौनिक हिंसा, मानसिक हिंसा में इजाफा देखा जा रहा है, ऐसे समाज में हम इस तरह से इन सारी चीजों को महिमामंडित करके महिला आंदोलनों की राह कठिन कर रहे हैं। गालियों की भरमार वाली फिल्में या वेब सीरीज़ महिला मुक्ति की राह को भटका कर और मुश्किल बना रही हैं। इसके लिए बिना गालियों वाली फिल्में बनानी होंगी। यह काम उतना मुश्किल भी नहीं है, बल्कि ज्‍यादा आसान है। गाली वाली फिल्‍मों की संख्‍या आज भी स्‍वस्‍थ संवाद वाली फिल्‍मों के मुकाबले कम है और फिल्‍मों के हिट होने का तय फॉर्मूला गाली नहीं है, यह कभी के भी चार्टबस्‍टर उठाकर देखा जा सकता है।

यदि आपके कंटेंट में जान है जो समाज को प्रगतिशीलता के पथ पर अग्रसर करते हुए पुरानी, सड़ी-गली परंपराओं को तोड़ता है, तो लोग ज़रूर आपकी फिल्म को पसंद करेंगे। समाज की दशा को दिखाने और दिशा को तय करने का सबसे सशक्‍त माध्‍यम सिनेमा ही है। आज का सिनेमा इस बुनियादी जिम्मेदारी से उलट आने वाली नस्लें बिगाड़ने में लगा हुआ है। हमारा देश अहिंसा के मूल्यों पर चलकर अंग्रेज़ों से आजाद हुआ है। गांधीजी दूध इसलिए नहीं पीते थे क्योंकि उनकी नज़र में इससे बछड़े का हक छिन जाता है और यह एक तरह की हिंसा है। ऐसी संवेदना और सिद्धांतों से बने देश का सिनेमा भी ऐसा होना चाहिए जो दृश्‍य या अदृश्‍य किसी तरह की हिंसा को बढ़ावा न देता हो। विडंबना है कि गाली-गलौज और अश्‍लीलता से भरे सेक्रेड गेम्‍स के अगले सीज़न को रिलीज़ करने के लिए निर्माता-निर्देशक को 15 अगस्‍त की तारीख ही उपयुक्‍त लगी।

जिस हिंसक दौर में हम जी रहे हैं, उसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि आज के माध्‍यमों से प्रेरित होकर आने वाली नस्लें पलट कर हमें ही गालियां दें और सवाल पूछें कि पितृसत्तात्मक सोच, रूढ़िवादी, दकियानूसी और महिला-विरोधी मानसिकता से उसे बचाने के लिए आपने क्या किया था। उस वक्त हमारे पास कोई जवाब नहीं होगा। हम सिर नीचे झुकाये खुद को बस कोस रहे होंगे।


लेखक बनारस हिंदू युनिवर्सिटी के पूर्व छात्र हैं और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय हैं