आतंकियों की पुलिसिया कहानी सुतली बम से उड़ क्यों रही है ?



प्रशांत टंडन


#सुतली_बम : समाज आगे जा चुका है – पुलिस की कहानियां पुरानी पड़ चुकी हैं 

एक खबर हिन्दी के अखबारों के किसी कोने में आए दिन छ्पती रहती है कि कुएं की मुंडेर पर डकैती की साजिश करते तीन पकड़े गए. तीन दशक से ये ख़बरे पढ़ रहा हूँ. अलग अलग जिलों से और अलग अलग समय में ये साजिशकर्ता पकड़े जाते हैं. उनके पास से बरामदगी भी कई साल से नहीं बदली. अलग अलग जिलों में इन डकैती की साजिश करने वालों के पास एक रस्सी, देसी पिस्तौल, मिर्च का पाउडर ज़रूर मिलता है. पुलिस की कहानियों पर यकीन करे तो लगता है कोई ट्रेनिंग स्कूल चलता है डाके डालने का डिप्लोमा के लिए और कोर्स पूरा करने के बाद सभी को एक जैसी किट दी जाती है जिसमे रस्सी, देसी पिस्तौल और मिर्च का पाउडर ज़रूर होता है.

इसी तरह आतंकवाद के आरोप में पकड़े जाने वालों के पास से एक उर्दू का अखबार ज़रूर होता है. इस GPS और Google Map के जमाने में उसके पास हाथ का बना एक नक्शा भी एक ज़रूरी सामान है. ये खूंखार आतंकवादी इतने मूर्ख क्यों होते हैं कि अपने पकड़े जाने और आसानी से शिनाख्त का पूरा सामान साथ में लेकर चलते हैं. बस से या ट्रेन से उतरते ही ये सबसे पहला काम उर्दू का अखबार ही खरीदने का काम क्यों करते आरहे हैं इतने साल से. उसी उर्दू के अखबार में ये भी पढ़ते होंगे कि पिछला आतंकवादी गिरोह जब पकड़ा गया था तो उसके पास उर्दू का अखबार बरामद हुआ था इसके बावजूद ये झट से उर्दू का अखबार ज़रूर खरीद कर अपने पास रख लेते है.

आज आप एक टिफिन बाक्स खरीदे और दो दिन बाद किसी वजह से उसे बदलने जाएँ तो दुकानदार आपको पहचानेगा ही नहीं जब तक उसे रसीद न दिखा दें. लेकिन वही दुकानदार किसी आतंकवादी घटना के बाद चार महीने बाद भी अपनी दुकान से बेचे हुये टिफिन को न केवल पहचानेगा बल्कि खरीदने वाले का चेहरा भी उसे याद होगा और पुलिस को स्केच भी बनवा देगा.

कुछ साल पहले दिल्ली हाट में एक फिदायिन पकड़ा गया जिसके पास कई किलो आरडीएक्स भी बरामद हुआ. मामला जब अदालत में गया तो जज ने पुलिस से पूछा कि आपने एक फ़िदायिन को पकड़ा जिसने बदन में आरडीएक्स लपेटा हुआ था उसे दिल्ली हाट की भरी भीड़ के बीच अपने साथ जीप में बिठा कर थाने ले आए – वहीं बम निरोधक दस्ते को क्यों नहीं बुलाया. जाहिर है पुलिस के पास कोई जवाब नहीं था और वो सभी आरोपी बरी हो गए.

अरे भई ये कहानियां पुरानी पड़ चुकी हैं. अदालत में तो गिर ही जाती हैं लेकिन अब लोग भी जागरूक हो चुके हैं और सच और झूठ आसानी से पकड़ लेते हैं.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।