16 पदों में शून्य और 52 में सिर्फ़ एक पद अारक्षित! मोदी जी, सीधे ही ख़त्म कर दीजिए आरक्षण!



यूजीसी ने आरक्षण के लिए विश्वविद्यालय या अन्य शैक्षिक संस्थानों को इकाई मानने की जगह विभाग को इकाई मानकर आरक्षण रोस्टर लागू करने का नोटीफिकेशन जारी किया है। चूँकि विभागों में एक-दो-तीन पद ही आमतौर पर निकलते हैं, इसलिए आरक्षण लागू करने की बाध्यता ख़त्म हो गई है। मौक़ा देखकर फटाफट पद भरे जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसके ख़िलाफ़ आरक्षित वर्गों में आक्रोश बढ़ रहा है। उनका सवाल है कि मोदी सरकार ने हाईकोर्ट के उस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती क्यों नहीं दी जिसकी आड़ में यूजीसी ने नोटीफिकेश निकाला है।


लक्ष्मण यादव

 

हमारा मुल्क मूलतः वंचित-शोषित विरोधी ही रहा है, वरना इस देश में उच्च शिक्षा तो कम से कम सामाजिक न्याय विरोधी नहीं ही होती. 16 पद सभी UR, 52 पदों में 51 UR. यही हकीक़त है.

आज़ाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक और आर्थिक विषमता की रही. बाबा साहब ने संविधान अंगीकरण के समय इस समस्या पर जोर देते हुए कहा था कि बिना सामाजिक और आर्थिक विषमता को दूर किए भारत का सार्वजनिक वयस्क मताधिकार अर्थहीन होगा. अब मुल्क के सत्ताधीशों के सामने यह चुनौती से लड़ने का सबसे प्राथमिक कदम यह था कि वे सार्वजनिक वित्त-पोषित शिक्षा को बढ़ावा देते और उच्च शिक्षा तक देश के वंचित-शोषित तबके की उचित हिस्सेदारी को सुनिश्चित करते. इसके लिए उन्हें यह देखना था कि सभी वंचित बच्चे उच्च शिक्षा तक आ सकें और शिक्षक बन सकें. यह सायास नहीं किया गया.

सदियों से वंचित-शोषित तबके की पहली पीढ़ी को उच्च शिक्षा तक आने में आज़ाद मुल्क को पचास साल लग गए. मुल्क को यह स्वीकारने में पचास साल लग गए कि देश का बहुसंख्यक वंचित तबका तो उच्च शिक्षा में आ ही नहीं पा रहा है. अब यदि विभागवार रोस्टर बनाया जाएगा, तो यही होगा जो इन तस्वीरों में हो रहा है. ऐसे ही देश भर में धुंआधार नियुक्तियाँ की जा रही हैं, जिनमें अधिकतम 3 पदों का विज्ञापन किया जाएगा और सभी पद अनारक्षित होंगे. अब उच्च शिक्षा में सवर्णवादी साक्षात्कारों के ज़रिये अनारक्षित पदों को सवर्ण के लिए आरक्षित किए जाते रहने की रवायत इन पदों पर सवर्णों की ही नियुक्तियाँ करेगी.

अब जबकि देश भर में इस विभागवार रोस्टर के खिलाफ़ आन्दोलन चल ही रहे हैं, उसके पीछे मनुवादी सरकार के इशारे पर उन जगहों पर भी दे दनादन नियुक्तियाँ होने लगीं, जहाँ सालों से कभी विज्ञापन ही नहीं आये या आकर ठन्डे पड़े रहे. ये हैं मनुवादी सरकारों और समाज का असली चरित्र, इसके बाद भी जब देश का वंचित-शोषित तबका कहीं कहीं आवाज़ उठा रहा है, आप कहते हैं देश टूट रहा है. अरे ये मुल्क कभी इन वंचिता का हो भी पायेगा या नहीं. ये अपने हक़ और हिस्सेदारी के लिए आवाज़ उठा रहे हैं. ऐसे तो आरक्षण हटा ही देते, तो भ्रम तो टूटता. किसी दिन कोई सनकी सवर्ण कहने लग जाएगा कि इतना दिन हो गया, आरक्षण ख़त्म करो.

 

 


(लक्ष्मण यादव सक्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। युवाओं के रोज़गार और आरक्षण के साथ खिलवाड़ किए जाने के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन के चर्चित चेहरे। यह टिप्पणी उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार।)