कासगंज की आग और अराजकता का अपराध शास्त्र !



विकास नारायण राय

 

करणी सेना या गौ गुंडई को दैनिक जीवन में प्रश्रय देने वाला समाज, एक दिन कासगंज जैसे वीभत्स सांप्रदायिक दंगों या फरीदाबाद-गुड़गाँवमार्का सड़क छाप बलात्कारों को भुगतने को अभिशापित रहेगा। अपराध शास्त्र बताता है कि छोटे-मोटे अपराधों की शक्ल में पनपती अव्यवस्था अंततः गंभीर अपराधों की नर्सरी का काम करेगी। आप अपनी गली को गन्दा रहने देंगे तो वहां कूड़े का ढेर लगाने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा ही।

कासगंज में भगवा राष्ट्रवाद का झंडा उठाये मोटर साइकिलों पर दनदनाते युवा साम्प्रदायिक हिंसा के उत्प्रेरक रहे। जाहिर है, इस शहर में जुलूसों की पूर्व अनुमति का सामान्य-सा प्रशासनिक रिवाज लागू नहीं किया गया था। वहां के पुराने निवासियों के अनुसार, एक लाख की मिश्रित आबादी के इस छोटे से शहर में ऐसे सांप्रदायिक विस्फोट का होना उनकी याददाश्त में नहीं है।

फ़रीदाबाद और गुडगाँव बड़े शहर हैं लेकिन गत दिनों वहाँ हुए सड़क छाप दुस्साहसी बलात्कारों को अनहोनी की श्रेणी में ही रखा जाएगा। फ़रीदाबाद में सरे-शाम राष्ट्रीय राजमार्ग के एक व्यस्ततम चौक से लगती गली में काम से लौटती लड़की को चार मुस्टंडों ने अपनी गाड़ी में खींच लिया था। इसी तरह गुडगाँव में रोड-रेज के दौरान मार-पीट का शिकार होने वालों की सह-यात्री महिला को बलात्कार का निशाना बनाया गया। देश की राजधानी के इन उपग्रह शहरों में ट्रैफिक अनुशासनहीनता और अतिक्रमण की मारी सड़कें एक बेलगाम समाज का मोंताज लगती हैं।

कासगंज हिंसा को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने राज्य के लिए कलंक कहा जबकि हरियाणा के मुख्यमंत्री ने तो बलात्कार के किन्हीं मामलों में फाँसी देने तक का कानून बनाने का विकल्प दोहराया। यहाँ तक कि योगी आदित्यनाथ जैसे दंगाई पृष्ठभूमि के मुख्यमंत्री ने भी अराजकता को सख्ती से दबाने की बात की है। बेशक,इन महानुभावों की प्रशासनिक हताशा में उनकी अपनी पार्टी की कुंठित राजनीति की भी भूमिका देखी जा सकती है। लेकिन, राष्ट्रवादी जुलूस या अस्त-व्यस्त राजमार्ग के सनसनीखेज अपराध का स्रोत बन जाने पर समाज शास्त्रीय नजरिये से शायद ही, मीडिया समेत किसी भी आम या खास स्तर पर,विमर्श हुआ हो।

अस्सी के दशक में अमेरिकी समाजशास्त्रियों जेम्सविल्सन और जॉर्जकॅलिंगने छोटी-छोटी अव्यवस्थाओं के बड़े अपराधों में बदल जाने की परिघटना को ‘टूटी खिड़कियों’ के रूपक से बयान किया। उनके ‘टूटी खिड़कियों का सिद्धांत’के अनुसार,कहीं भी अव्यवस्था दिखते रहने से असामाजिक तत्वों और अपराधियों को ग़लत काम करने के लिए मनोबल मिलता है और जुर्म बढ़ता है। जबकि, अगर शहर को सुव्यवस्थित और साफ़-सुथरा रखा जाए तो जुर्म भी कम होने लगते हैं।

1970 और 1980 के दशकों में न्यूयॉर्क में बहुत हिंसात्मक जुर्म होते थे। लोगों में ख़ौफ़ का माहौल था। रेल यातायात जो इस शहर के रोज़मर्रा जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, वहाँ भी अक्सर गुंडागर्दी के हादसे होते थे। सन् 1985 में जॉर्जकॅलिंग को न्यूयॉर्क के नगर यातायात प्राधिकरण ने सलाहकार नियुक्त किया। उस समय इस शहर के रेलवे स्टेशनों की दीवारों पर और रेल के डब्बों के अन्दर असामाजिक लोगों ने तरह-तरह की आपत्तिजनक बातें लिखना और अक्सर अपने गिरोहों से सम्बंधित नारे या चित्र बनाना आम आदत में शुमार किया हुआ था। लोग रेल स्टेशनों पर, या डब्बों के अन्दर, पेशाब तक कर दिया करते थे। 1984 से 1990 तक इन सभी लिखाइयों को अभियान चलाकर साफ़ किया गया।

1990 में ऐलान किया गया कि रेल पर किसी को भी बिना-टिकट नहीं जाने दिया जाएगा, हालांकि तब लोग अक्सर बिना टिकट लिए रेल पर चढ़ जाया करते थे। उस समय शहर की  पुलिस क़त्ल और चोरियों से निबटने में बेहद व्यस्त रहती थी। बहुत से लोगों ने इस ऐलान की निंदा की और कहा कि ऐसे अपराध-पूर्ण वातावरण में पुलिस को यह एक और गैर-ज़रूरी काम देना मूर्खता ही है। फिर भी शहर की सरकार डट गई और उसने बेटिकट यात्रियों पर सख़्त​ जुर्माना करना शुरू कर दिया। 2001 में पाया गया कि न्यूयॉर्क में न सिर्फ़ रेल-सम्बन्धी अपराध बहुत कम हुए बल्कि क़त्ल और चोरी भी बहुत कम होने लगी। अगले दस सालों तक शहर में जुर्म लगातार कम होता गया।

सार्वजनिक शौचालय अक्सर गंदे होते हैं। लेकिन समाजशास्त्रियों ने अध्ययन पर पाया है कि जो शौचालय पहले से साफ़ हों उन्हें प्रयोग करने वाले भी कम गन्दा करते हैं। यानी कि जिन शौचालयों को ज़रा सा भी गन्दा होने पर फ़ौरन साफ़ कर दिया जाए उन्हें कम बार साफ़ करने की जरूरत होती है क्योंकि प्रयोग करने वालों को एक स्पष्ट संकेत जाता है कि उनमें गंदगी करना स्वीकार्य नहीं है। इसी तरह, जुर्म करने में छूट को लेकर लोग तब निरुत्साहित होंगे ही जब छोटी-मोटी अराजकता को भी स्वीकार नहीं किया जाएगा। ऐसी व्यवस्था में स्थिति हमेशा नियंत्रण में दिखती है और उसे अशांत करने वाले पहले सौ बार सोचते हैं।

कुछ हद तक दिल्ली मेट्रो में भी इस अपराध शास्त्रीय समीकरण की झलक दिख जायेगी। मेट्रो स्टेशनों और ट्रेनों में, टिकट की अनिवार्यता, वृद्धों,दिव्यांगों, महिलाओं को सीट में वरीयता, आवागमन में समय-बद्धता,सटीक उद्घोषणा,निरंतर सफाई, आश्वस्त करती सुरक्षा व्यवस्था, आरामदेह वातानुकूलन, एस्कलेटर सुविधा, सजग संकेतक से बने व्यवस्थित वातावरण का असर यात्रियों के सामान्य रूप से अनुशासित व्यवहार में भी प्रतिबिंबित होता है। आश्चर्य नहीं कि सड़क या सामान्य रेल की अपेक्षा दिल्ली मेट्रो में अपराध की दर बेहद कम है और गंभीर हिंसक अपराध लगभग नहीं होते हैं।

अपने पुलिस जीवन के अनुभव से मैं यह भी मानता हूँ कि न कासगंज प्रकरण में निहित स्वार्थी आयामों की तुलना दिल्ली मेट्रो की निरपेक्ष स्थिति से की जा सकती है और न फरीदाबाद-गुडगाँव राजमार्गों के जटिल प्रशासनिक आयामों को मेट्रो के एक-ढर्रा परिचालन के नजरिये से देखा जाना चाहिए। लेकिन यह कोई कारण नहीं कि अपराध शास्त्रीय आकलन पर ध्यान ही न जाये। अन्यथा हम दंगों और बलात्कारों की तात्कालिक जवाबदेही में ही उलझे रह जायेंगे, यानी जुर्म की परिणति पर सक्रिय होंगे बजाय उस प्रक्रिया पर ध्यान देने के जो जुर्म की परिणति तक ले जाती है।

अकेले फरीदाबाद में पिछले तीन वर्षों में 12 वर्ष से कम उम्र की 59 बालिकाएं बलात्कार का शिकार हुयी हैं। अपवाद छोड़कर ये सभी बर्बर अपराध गंदी-अव्यवस्थित झुग्गी बस्तियों में हुए। वहां का निगरानी रहित अराजक वातावरण संभावित यौन अपराधियों के लिए सबसे बड़ा उत्प्रेरक है। इन्हीं दिनों हरियाणा राज्य के ही एक अन्य शहर यमुना नगर में एक पब्लिक स्कूल के कक्षा 12 के छात्र ने अपने पिता की रिवाल्वर से प्रिंसिपल की हत्या उनके ऑफिस में ही कर दी। उस स्कूल में छात्रों का नियम विरुद्ध मोटर साइकिल पर आना और परस्पर हाथापाई करना आम बात थी। यह वातावरण मानो किसी अनहोनी की बाट ही जोह रहा था।

कासगंज का भड़काऊ जलूस और फरीदाबाद-गुडगाँव के सड़क छाप शोहदे मात्र बुरा स्वप्न नहीं हैं। ये फिर-फिर लौट कर आयेंगे। कितनी भी प्रशासनिक सख्ती बरसने से ये रुकने वाले नहीं। इन गंभीर प्रकरणों में क्रमशः योगी और खट्टर सरकार ने चंद स्थानीय पुलिस अफसरों को बदला है। विपक्ष भी और मीडिया भी इसी परिप्रेक्ष्य तक सीमित रहे हैं। जबकि यदि दैनिक अराजकता के लिए जिम्मेदार कारक चिह्नित किये जा सकें तो बड़ी जवाबदेही नीति निर्धारकों, योजनाकारों और प्रशासनिक नेतृत्व की बनेगी। तब दैनिक अराजकता से निपटने की कारगर प्रणाली होने से गंभीर अपराधों की रोकथाम का कार्यभार स्वतः संपन्न हो रहा होगा।

(लेख की मुख्य तस्वीर द हिंदू से साभार)

अवकाश प्राप्त आईपीएस, विकास नारायण राय हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।