पत्रकारों की हालिया गिरफ़्तारी अभिव्‍यक्ति की अगली कतारों का भी गला घोंटेगी



शनिवार को तीन पत्रकारों की गिरफ्तारी में प्रशांत कनौजिया के साथ हुए पूरे घटनाक्रम को फिर से रिवाइंड करके देखेंगें तो समझ आएगा कि यह घटना क्‍यों सामान्‍य नहीं है। शनिवार 8 जून की दोपहर में कुछ लोग सिविल ड्रेस में प्रशांत के मंडावली (दिल्ली) स्थित घर आते हैं, खुद को यूपी पुलिस का बताते हैं और प्रशांत को घर से उठा ले जाते हैं। न वारंट दिखाया जाता है न ही पत्नी को बताया जाता है कि उन्हें किस थाने में ले जाया जाएगा। एक वेबसाइट को दिए बयान में  प्रशांत की पत्नी जिगीशा ने कहा है कि ‘शनिवार को मंडावली में हमारे घर से पुलिस ने प्रशांत को गिरफ्तार किया है। पुलिसवालों ने मुझे न प्राथमिकी की कॉपी दी, न ही कोई वारंट या आधिकारिक दस्तावेज़।’

शाम तक भी यह पुष्टि नहीं हो सकी थी कि प्रशांत को आखिर लखनऊ के किस थाने में ले जाया गया है। मीडिया रिपोर्टों में भी हजरतगंज और सुल्तानगंज के बीच कन्फ्यूज़न बना हुआ था। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गिरफ़्तारी की जानकारी न तो मंडावली थाने को दी गई थी और न ही दिल्ली पुलिस का कोई आदमी यूपी पुलिस के साथ था।

मैं एक नागरिक हूं और पत्रकारिता का छात्र हूं। दो साल पहले प्रशांत भी छात्र थे। मैं भी कल को उन्‍हीं की तरह पत्रकार बन जाऊंगा। प्रशांत पत्रकार भी है और हमारी तरह एक सामान्‍य नागरिक भी है। वह कोई मोस्ट वांटेड अपराधी या हिस्ट्रीशीटर नहीं है। पुलिस ने उनके साथ जो किया है, वह मामला केवल पत्रकारीय अभिव्‍यक्ति का नहीं बल्कि नागरिक अधिकारों के उल्‍लंघन से भी जाकर जुड़ता है। पुलिस की इस कार्रवाई को किसी तरह की ‘रेड’ नहीं कहा जा सकता।

पुलिस ने आईपीसी की धारा 500 के तहत उन्हें गिरफ्तार किया है और कानून की मानें तो पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह इस धारा के तहत किसी भी नागरिक को बिना कोर्ट के आदेश के गिरफ्तार कर सके। मानहानि का मामला ऐसा मसला नहीं है जिसमें पुलिस स्वतः संज्ञान ले सके। यह भी उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। पुलिस ने ‘’कड़ाई से पूछताछ’’ के बाद ‘’जुर्म कुबूलने’’ की बात अपने प्रेस नोट में लिखी है लेकिन प्रशांत की ओर से कथित अपराध पर परदा डालने जैसा कोई काम भी नहीं किया गया था। ‘आपत्तिजनक’’ ट्वीट अभी तक डिलीट नहीं किया गया है।

ऐसे में पुलिस द्वारा सादी वर्दी में बिना किसी दस्तावेज के की गई यह कार्रवाई बड़े सवाल खड़े करती है। सोचिए क्या होता यदि प्रशांत दिल्ली में अकेले रह रहे होते? यदि पुलिस उन्हें घर से उठा सकती है, मुमकिन है वे अकेले होते तो इस घटना का लोगों को पता तक नहीं चल पाता। वैसे भी देर शाम तक उनकी लोकेशन क्‍लीयर नहीं थी। पुलिस का प्रेस नोट आने के बाद ही तस्‍वीर साफ़ हो सकी। तकरीबन ऐसी ही घटना कुछ दिन पहले बीबीसी के पूर्व पत्रकार विनोद वर्मा के साथ घटी थी, लेकिन उस वक्‍त छत्‍तीसगढ़ पुलिस ने यूपी पुलिस के साथ मिलकर कर्रवाई को अंजाम दिया था और वर्मा को रायपुर ले जाने से पहले गाजि़याबाद के वसुंधरा थाने में औपचारिक काग़ज़ी खानापूर्ति की गई थी। प्रशांत के मामले में तो दिल्‍ली पुलिस के साथ खानापूर्ति का भी खयाल नहीं रखा गया।

यदि यह घटना भविष्‍य में अंतरराज्‍यीय पुलिस कार्रवाई के लिए नज़ीर बन गई, तो क्‍या हम समझें कि अब स्टेट द्वारा नागरिकों के संगठित अपहरण का दौर आ चुका है? पिछले साल ही एक घटना प्रकाश में आई थी जिसमें फरीदाबाद की एक बैठक से लौट रहे जेएनयू के पूर्व छात्रनेता और राजनीतिक कार्यकर्ता को यूपी पुलिस ने रास्‍ते से उठा लिया था और कई घंटे तक अपनी गाड़ी में बैठाकर घुमाती रही थी। क्या भविष्य में इस तरह किसी भी व्यक्ति का अपहरण नहीं किया जा सकता? क्या सरकार का यह कदम अपहरण और हत्या जैसे अपराधों के लिए एक ‘स्पेस’ नहीं बनाता है?

असहमति और आलोचना पर तो काफी पहले से पहरा लगा हुआ है। यूपी पुलिस द्वारा की गई यह कार्रवाई पत्रकारों और हर उस नागरिक के लिए एक चेतावनी है जो अब तक हलके फुलके मज़ाक या हास्‍य भरी टिप्‍पणी करते आ रहे हैं। प्रशांत की जिस टिप्‍पणी को ‘’आपत्तिजनक’’ बताया जा रहा है, वह एक अगंभीर और गैर-जिम्‍मेदाराना टिप्‍पणी ही थी जो उसने अपने निजी स्‍पेस में की थी, पत्रकारीय धर्म निभाते हुए नहीं। यह ऐसा कोई अपराध नहीं बनता जिसके लिए किसी को घर से उठा लिया जाए और जेल में डाल दिया जाए। अब संकेत साफ़ है कि आपने अगर हंसी मज़ाक में भी सत्‍ता और सत्‍ताधीशों पर कुछ तंज किया तो ‘’मानहानि’’ के नाम पर आपका भी यही हाल किया जाएगा।

प्रशांत को न्‍यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट में उनकी पत्‍नी याचिका दाखिल कर रही हैं। बाकी न्‍यायपालिका के हाथ में है। फिलहाल इस घटना के दूरगामी परिणामों के बारे में सोचिए। जैसे ही यह खबर उन अभिभावकों को पता चलेगी जिनके बच्चे मेरी तरह पत्रकारिता की पढाई कर रहे हैं और अपनी क्षमताओं के अनुसार लिखना या बोलना सीख रहे हैं, वे अभिभावक अपने बच्चों को फोन करके आगे से सख्त हिदायत देंगे- “ये जो तुम फेसबुक पर लिखते रहते हो, बंद कर दो। देख रहे हो न, समय कितना ख़राब चल रहा है। खबरदार, अब आगे से कुछ लिखा तो। पढ़ने गए हो, पढ़ाई पर ध्यान दो।” और इस तरह पत्रकारिता व प्रतिरोध के लिए तैयार हो रहे कुछ सिपाही और कम कर दिए जाएंगे। पढ़े-लिखे और ‘मुखर’ मिडिल क्लास के मन में डर भरा जा रहा है। बताया जा रहा है कि जी हुजूरी करिए वरना परिणाम अच्छे नहीं होंगें।

यह घटना न सिर्फ पत्रकारिता और प्रतिरोध में जुटी मौजूदा नस्ल को प्रभावित करेगी बल्कि इसके माध्यम से सरकार एक उदाहरण सेट कर रही है कि समाज के उस तबके तक डर को फैलाया जा सके जो कल का वोटर भी है और प्रतिरोध की भावी आवाज़ भी। हर व्यक्ति को जो प्रतिरोध करेगा, उसे यह उदाहरण दिखा कर अब डराया जाएगा, धमकाया जाएगा। इसीलिए यह गिरफ़्तारी अभिव्यक्ति की वर्तमान आवाज़ों के साथ इसी क्रम में तैयार हो रही अगली कतारों का गला भी घोंटेगी।


लेखक जामिया मिलिया इस्‍लामिया में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं