NRC: कहीं बिखर न जाये दिल-धड़कन का रिश्ता

अश्वनी कबीर
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :

सांकेतिक चित्र


रेगिस्तान का नाम सुनते ही एकाएक हमारे दिमाम में ऐसी तस्वीर कौंध जाती है जहां दूर-दूर तक फैला रेत का सैलाब, आसमान छूते रेत के टीले, चिलचिलाती धूप, धूल भरी आंधी, दूर छोर से आता ऊंटों का कारवां। जहां पर बारिश के नाम पर एक- दो बार हल्की- फुल्की बूंदाबांदी, रेंगने वाले जीवों की बहुलता। रंग- बिरंगे कपड़े पहनकर नाचते गाते- लोग। किंतु ये रेगिस्तान केवल गर्म तासीर के ही नही ठंडे तासीर के भी होते हैं।

भारत मे ऐसे रेगिस्तान में राजस्थान, गुजरात और हरियाणा में फैला थार का गर्म रेगिस्तान, लद्धाख ओर सियाचिन का ठंडा रेगिस्तान। ऐसा नही है कि ये केवल भारत मे सीमित हैं बल्कि दुनिया के सभी महाद्वीपों पर फैले हैं। इन रेगिस्तान में जीवन को सम्भव बनाने का अपना एक इतिहास रहा है। वो इतिहास केवल दुःख, पीड़ा और वेदना का ही इतिहास नही है बल्कि मानव के अदम्य साहस और जीत का भी इतिहास है।

जहां तक बात भारत के थार रेगिस्तान की है तो इसका इतिहास ऊंट के इतिहास और ख़ैबर पास के इतिहास से जुड़ा है। ये उन राजाओं और यायावर लोगों के बलिदान से जुड़ा हैं जिन्होंने इसको जीने योग्य बनाया। इन यायावर लोगों ने जीने के नये- नये तरीके खोजे, अपने सहज व उपयोगी ज्ञान से उन तरीकों से आने वाली पीढियों से अवगत करवाया। विपरीत परिस्थितियों में हार न मानकर निरन्तर अपने हौसलों की उड़ान से उसे रहने योग्य बनाया।

जहां तक बात भारत में फैले गर्म मरुस्थल की है तो ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि यदि ये यायावर लोग होते तो ये भी वैसे ही वीरान होता जैसे अंटार्कटिका महाद्विप। यदि रेगिस्तान को हिंदुस्तान का दिल माने तो उसकी धड़कन यही घुमन्तू समाज हैं। जैसे दिल के बिना धड़कन का कोई वजूद नही है ठीक वैसे ही धड़कन के बिना दिल के भी कोई मायने नही है।

भारत ने पिछले एक दशक में अपने घास के मैदान का 31 फीसदी हिस्से को खो दिया है। 2005 से 2015 के दौरान घास के इन मैदान का 56.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र घट गया है। यह संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बेट डेजर्टिफिकेशन (UNCCD) के समक्ष प्रस्तुत किये गये हैं।

2005 से 2015 के बीच घास के मैदानों का कुल क्षेत्रफल 180 लाख हेक्टेयर से घटकर 123 लाख हेक्टेयर रह गया है। राजस्थान के अरावली रेंज में घास के मैदान गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। सामुदायिक भूमि 2005-2015 के बीच लगभग 905 लाख हेक्टेयर से घटकर 730.2 लाख हेक्टेयर रह गई है।

सामुदायिक भूमि या पंचायती जमीन में चारागाह, वन भूमि, तालाब, नदियां व अन्य क्षेत्र शामिल किया जाता है। जिन्हें ग्रामीण समुदाय के लोग उपयोग कर सकते हैं। ये भूमि ग्रामीण जीवन को भोजन, चारा, पानी, जलावन- लकड़ी ओर आजीविका प्रदान करती है। ये जमीन ग्राउंड वाटर को रेचार्जे करती है, जैव विविधता को बनाती है।

मरुस्थलीकरण का सबसे बड़ा जिम्मेवार जल श्ररण हैं। 10.98 फीसदी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण जल क्षरण की वजह से ही होता है। वनस्पति क्षरण से 9.91 फीसदी क्षेत्र, वायु क्षरण से 5.55 फीसदी, लवणता से 1.12 फीसदी ओर मानव बसावट से 0.69 फीसदी क्षेत्र होता है।

यही रेगिस्तान नही होगा तो घुमन्तू समाज अनाथ हो जायेंगे और यदि घुमन्तू समाज चले गये तो रेगिस्तान भी बेजान हो जायेगा। ये आपसदारी है दोनो की। किंतु हम जाने- अनजाने में उस आपसदारी को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। कालबेलिया का शाब्दिक अर्थ होता है काल को वश में करने वाला। ‘काल अर्थात मौत’ रेगिस्तान ओर जंगल मे मौत का मुख्य कारण सांप का काटना था। कालबेलिया ने सर्प- दंश का इलाज खोजा इसलिये इसे कालबेलिया कहा जाने लगा। उसने नज़र के लिए सुरमा बनाया, जड़ी- बूटियों की समृद्ध परंपरा को बनाया। रेगिस्तान के यही डॉक्टर हैं।

बंजारों ने पानी का प्रबंधन किया, बावड़ी, टांके, जोहड़ ओर झीलें बनाई। इनके पास कोई आर्किटेक्ट या इंजीनियरिंग की डिग्री नही थी। किंतु इन्होंने पानी का कितना सुंदर और टिकाऊ प्रबंधन किया है। यदि बंजारे नही होते तो रेगिस्तान में रहने की कल्पना करना भी असंभव था।

सिंगीवाल और कंजर ने जड़ी- बूटियों के जरिये विभिन्न बीमारियों का इलाज किया। रेगिस्तान में आज भी ये घुमन्तू समाज ही डॉक्टर की भूमिका निभाते हैं। बागरी, कुचबन्दा और ओढ़ जाति के लोगों ने मिट्टी का प्रबंधन किया। बागरी लोग अपनी भेड़- बकरियों के जरिये, कुचबन्दा मिट्टी के खिलौने एवं वस्तुएं तैयार करता जबकि ओढ़ जाती के लोगों ने यहां मिट्टी को समतल करने और नहर बनाने में मुख्य भूमिका निभाई।

भोपों ने अपने रावणहत्थे के जरिये रेगिस्तान की आत्मा को जिंदा किया तो बहुरूपियों ने राजे-रजवाड़ों के लिये ख़ुफ़िया- विभाग की भूमिका अदा की। गाड़िया- लुहारों ने सेना के लिये हथियार और आमजन के उपयोग हेतु लोहे के उपकरण तैयार किये। मिरासी, दाढ़ी के साथ संगीत का काम भी करता। बही भाट ने पीढ़ियों का रिकॉर्ड रखा।

यही नहीं ग्रामीण भारत मे सामाजिक सुधार के यही लोग नायक रहे हैं। मध्यकालीन भारत चार सत्ताओं के इर्द-गिर्द घूमता है। धर्म, जाति, पुरुष और राजा की सत्ता। इस घुमन्तू समाज ने अपने दैनिक क्रियाकलापों के जरिये उन चारों सत्ताओं को चुनौती दी है।

जहां आज भी ग्रामीण भारत मे महिलाएँ घूंघट में कैद हैं। वहां आज से 50-100 साल पहले की हालात को सोचा जा सकता है। नट- भाट के टोले गांवों में जाते। शाम के वक्त गांव की चौपाल में नटनी करतब दिखलाती, बेधड़क रस्सी पर चलती, आग के गोले के कूदती। नट ढपली बजाता, उसको देखने के लिये गांव के सभी जाति, धर्म की महिलाएं होती। ये महिलाएं घूंघट निकालकर ये करतब देखती तो क्या ये महज एक खेल मात्र था ?

गवारीन अपने टोकरे के जरिये ग्रामीण महिलाओं की जरूरतों को पूरा करती। उसके पास चार सामान होते, महिलाओं के अंग वस्त्र, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री, हाथ के कड़े ओर नकली चोटियाँ। न तो पुरुष पहले ये सामान लेकर आता था और न आज लेकर आता है। किंतु आज मॉल और ब्यूटी पार्लर आ गये।

ये गवारीन केवल सामान ही नही देती थी बल्कि ये भी बताती थी कि शहर की महिलाएं किस तरहं रहती हैं, उनका खान- पान कैसा है, वे कपड़े कैसे पहनती है। और हमारी महिलाएं बड़े चाव से उसकी बात सुनती थी क्योंकि उसके लिये वो अभी दूर की बात थी। ये हमारी इन समाजों के साथ जुगलबन्दी हुआ करती थी। जो आज दाव पर है।

हमारी सरकारी नीतियां ओर कार्यक्रम ऐसे हैं जो हमारी इस जुगलबन्दी और आपसदारी को समाप्त कर रहे हैं। अभ्यस्थ अपराधी कानून, वन अधिकार कानून। वन्य जीव संरक्षण कानून। नमक बेचने और रस्सी पर चलने पर रोक। बच्चा चोर का आरोप और अब हम उन लोगों से पहचान पत्र मांग रहे हैं जिन्होंने हमारे इतिहास का आधार तैयार किया है। एन.आर.सी. उसी कड़ी का हिस्सा है।