न्यू इंडिया में “इंडिया दैट इज भारत” के संविधान को ख़तरा



 चन्द्रप्रकाश झा

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी की केंद्र में मई 2014 में बनी पहली सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने में बरस भर से कुछ ही दिन ज्यादा बचे हैं। मोदी सरकार संसद में अपना आखरी पूर्ण बजट पेश कर चुकी है। यह , संसद के इसी माह फिर शुरू हो रहे बजट सत्र में पारित हो जाने की पूरी संभावना है। त्रिपुरा ,मेघालय और नगालैंड के तीन पूर्वोत्तरी राज्यों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। शनिवार को उनके परिणामों की घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर तथा बिहार की अररिया लोकसभा सीटों पर उपचुनाव के लिए 11 मार्च को मतदान और 13 मार्च को मतगणना होगी। फिर इसी वर्ष राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक समेत कई राज्यों के के चुनाव है।

अटकलें जोर पकड़ रही है कि नई लोकसभा के चुनाव भी थोड़ा पहले इसी वर्ष कराये जा सकते हैं। मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के तहत नई लोकसभा के गठन के लिए आम चुनाव मई 2019 के पहले ही कराने होंगे। संवैधानिक व्यवस्था के तहत कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले भी राज्यपाल -राष्ट्रपति के माध्यम से मध्यावधि चुनाव कराने की उसकी संस्तुति पर सांविधिक निर्वाचन आयोग को आदेश जारी करवा सकती है। लेकिन सरकार का निर्धारित कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद नया चुनाव स्थगित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

चुनाव कराने के अंतिम निर्णय की घोषणा के बाद विस्तृत चुनाव कार्यक्रम तैयार करने और फिर उसके अनुरूप देश भर के विभिन्न राज्यों में अनेक चरण में मतदान कराने, पुनर्मतदान, मतों की गिनती, मतगणना के परिणामों की अधिकृत घोषणा, अलग -अलग दलों और उनके चुनाव-पूर्व या चुनाव -पश्चात के मोर्चा के विधाई निकाय की औपचारिक बैठक में निर्वाचित प्रत्याशियों के नेता का चयन, चयनित नेता की नई सरकार बनाने की औपचारिक दावेदारी, प्रतिस्पर्धी दलों -मोर्चा की नई सरकार बनाने की प्रति-दावेदारी की सरल अथवा अत्यंत ही जटिल प्रक्रियाओं के उपरान्त नई सरकार के औपचारिक शपथ ग्रहण को पूरा होने में माह-दो-माह लग ही जाते हैं।

मोदी जी अक्सर अपने स्वप्न का ” न्यू इंडिया ” बनाने की बात कहते है। इसका निर्माण 2019 तक तो नही ही हो सकता है। जाहिर बात है वह अपने मौजूदा शासन काल से आगे की सोच रहे हैं। लेकिन इसका अवसर उन्हें मिलेगा या नहीं , यह अगला चुनाव ही तय करेगा। पर क्या यह भी हो सकता है कि वह नया चुनाव कराये बिन सत्ता में बने रहे। उनके शब्दकोष में असम्भव-अकल्पनीय कुछ भी नहीं लगता है।

राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि उन्हें ऐसे बहुत सारे काम पूरे करने हैं जिनके लिए उन्हें प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया गया। इन कामों में भारत को “हिन्दू राष्ट्र” घोषित करने की जमीन तैयार करना भी है जिसमें मौजूदा संविधान बाधक है। मौजूदा संविधान में कहीं भी न्यू इंडिया का जिक्र नहीं है। अलबत्ता, संविधान सभा की 26 नवम्बर 1949 को पारित और कार्यान्वित संविधान की प्रस्तावना में ही स्पष्ट लिखा है कि  ‘इंडिया दैट इज भारत’ , सर्वप्रभुता संपन्न, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।

यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी ‘मातृ संस्था’ कहती है उसे यह संविधान कभी रास नहीं आया। आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी कोई योगदान नहीं रहा। उसने संविधान निर्माण के समय उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था। यही नहीं उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का मौजूदा संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी। आरएसएस को संविधान की प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष/पंथनिरपेक्ष ) पदबंध नहीं सुहाता है। उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द मात्र से भारत के धर्मविहीन होने की बू आती है। जबकि यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू धर्म -प्रधान देश है। आरएसएस के राजनीतिक अंग कही जाने वाली भाजपा का हमेशा से कहना रहा है कि आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों और ख़ास कर कांग्रेस ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की घोर उपेक्षा की है जिसका ज्वलंत उदाहरण अयोध्या में विवादित परिसर में राम मंदिर के निर्माण में विधमान अवरोध हैं।

विश्व के एकमेव हिन्दू राष्ट्र रहे पड़ोसी नेपाल में जबर्दस्त जन आंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति के उपरान्त अपनाये नए संविधान में इस देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किये जाने के प्रति मोदी सरकार की खिन्नता छुपाये छुप नहीं सकी और उसने इसके प्रतिकार के रूप में कुछ वर्ष पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी। भाजपा किसी भी देश को इस्लामी घोषित किये जाने से चिढ़ती है और साफ कहती है कि उसे ” मज़हबी राष्ट्र” मंजूर नहीं है। फिर भी आरएसएस के भाजपा समेत सभी आनुषांगिक संगठन , भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के पक्षधर हैं।

मोदी जी का न्यू इंडिया आरएसएस के सपनों के हिन्दू राष्ट्र का ही सर्वनाम है जिसकी परतें खुलने में समय लगेगा। क्योंकि मौजूदा संविधान में भले ही अब तक एक सौ से भी अधिक संशोधन किये जा चुके हैं उसके मूल चरित्र को पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है।

न्यू इंडिया के लिए नया संविधान बनाने की मोदी जी की मंशा की स्पष्ट झलक इस बार के गणतंत्र की पूर्व संध्या पर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के उनके खुले आम दिए एक वक्तव्य से मिली। इस वक्तव्य की व्याख्या नेशनल दुनिया के 5 फरवरी 2018 के अंक में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के प्रकाशित आलेख में की जा चुकी है। मोदी जी की मंशा यह है कि लोकसभा और देश की सभी विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ करा लिए जाएँ ताकि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग चुनाव न कराना पड़े और सत्ताधारी प्रमुख दल को लगातार चुनाव मोड में रहने की समस्या से निजात मिले, चुनाव कराने के राजकीय खर्च में कमी हो, सरकारें चुनावी दबाब में लोक लुभावन पग उठाने के चक्कर से बच कर ‘स्थिरता’ से राजकाज चला सके। आलेख के अनुसार चुनाव कराने पर राजकीय खर्च खर्च प्रति मतदाता 2009 और 2014 के आम चुनाव में क्रमशः 12 रूपये और 17 रूपये पड़ा था।

इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत, संघराज्य है जिसके सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव केंद्र की विधायिका के निम्न सदन, लोकसभा के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई सा भी संवैधानिक प्रावधान नहीं है। संविधान रचनाकारों ने ‘एक व्यक्ति , एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को अपनाया। उनके पास स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा के साथ ही सभी विधानसभाओं के भी चुनाव संपन्न कराने की व्यवस्था का प्रावधान रखने का विकल्प था। पर उन्होंने भारत में संवैधानिक लोकतंत्रं की आवश्यकताओं के मद्देनज़र बहुत सोच-समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।

इस बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का हालिया कथन कि आरएसएस चंद मिनट में अपनी फौज खड़ी कर लेगा राजकाज में खुरपेंच है। वह मोदी जी की तरह कच्चे बयान नहीं देते है। उन्होंने बहुत सोच-समझ कर ही यह बयान दिया है। वह भलि भांति जानते है कि आरएसएस के दीर्घकालिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके पास मोदीराज संभवतः अंतिम मौका है। वह इस बात से भी अवगत हैं कि समय, मोदी जी के हाथ से रेत की तरह फिसला जा रहा है और जिस लंपट पूंजीवाद के धनबल पर मोदीराज कायम हुआ वह हवा के एक झोंके भर से उसी तरह ख़त्म भी हो सकता है जिस तरह ताश के पत्तों के बनाये महल ज़रा-सी फूँक से बिखर जाते हैं

भागवत जी के बयान से उनका कुछ दर्प साफ़ झलकता हैं कि आरएसएस के पास भारत सरकार की आधिकारिक सेना के समानांतर एक हथियारबंद सेना मौजूद है, कि भारतीय सेना से ज्यादा अनुशासन संघ की सेना में है, कि भारत सरकार की सेना जंग की तैयारी करने में छह महीने लेगी जबकि आरएसएस के स्वयंसेवकों को ऐसा करने में महज तीन दिन लगेंगे। बेशक आरएसएस ने भागवत जी के बयान को मीडिया में तोड़-मरोड़कर पेश किया गया बताकर लोगों का ध्यान आरएसएस की गुप्त रणनीति से हटाने की कोशिश की है।पर कुछ सवाल तो खड़े हो ही गए हैं कि भारत की फौज से बड़ी कोई निजी फौज देश में कैसे हो सकती है, क्या आरएसएस को भारतीय सेना पर भरोसा नहीं है, क्या कोई गृहयुद्ध की तैयारी चल रही है, मोदी सरकार इस पर चुप क्यों है, क्या मोदी सरकार सिर्फ मुखौटा है और आरएसएस राजसत्ता की बागडोर कभी भी खुद संभाल सकता है?

आरएसएस सैद्धांतिक रूप से भारत के संविधान को नहीं मानता। भागवत जी के बयान से लगता है कि आरएसएस की सेना के इस्तेमाल में संविधान आड़े आ रहा है। इसलिए मोदी सरकार पर संविधान पलटने का दबाब है यह रेखांकित करना जरूरी है कि जिन्हे आरएसएस के बारे में समुचित प्रामाणिक जानकारी नहीं है वही इसकी स्थापना के 93 बरस बाद भागवत जी के खुली घोषणा से चौंक सकते है। 2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दि -जयन्ती है और वह चाहता है कि तब तक भारत, विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए।

गौरतलब है कि जब नाजी हिटलर के घोर दमनकारी और फासीवादी राजकाज का दुनिया भर में प्रतिरोध शुरू हुआ तब आरएसएस के द्धितीय सरसंघ संचालक, सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर, ने अंग्रेजी में “वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड” शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी जिसमे स्पष्ट लिखा है कि भारत के हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए।

आरएसएस ने अपने गुरु गोलवलकर की इस पुस्तक से कभी पल्ला नही झाड़ा है। पर उसने इस पुस्तक का ज्यादा प्रकाशन और प्रचार -करने से पीछे हटना, बल्कि छुपा देना ही रणनीतिक कारणों से श्रेयष्कर समझा।

दिल्ली के एक्टिविस्ट, शम्शुल इस्लाम, ने उक्त पुस्तक की मूल प्रति ढूंढ कर उसके किये हुए पन्नों को ज्यों का त्यों का समावेश कर ‘ गुरु जी ‘ की बातों की पोल खोलने एक नई पुस्तक लिख डाली जो अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है।

गुरु जी की पुस्तक ‘ पहली बार 1939 में छपी थी। कुछ लोग़ इसे अारएसएस का बाइबिल कहते हैं। इस पुस्तक से और अारएसएस वर्ष की गतिविधियों पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि उसके लिए ‘हिन्दू’ का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ‘राष्ट्र’ का मतलब मनुवादी फासीवाद है।

एक बात साफ है कि अारएसएस कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं है। उसके उदेश्य राजनीतिक हैं।समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं। अारएसएस ने खुद भी अपने राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिए हैं। यह उदेश्य है हिंदुस्तान को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना। पर ‘हिन्दू’ और ‘ राष्ट्र ‘ का उसका वह मतलब नही है जो अाम लोग समझते है।

अारएसएस की स्थापना 1925 में ‘ डॉक्टर जी ‘ ( के.बी. हेडगेवार ) ने की थी। पर उसे वैचारिक एवं संगठनिक अाधार ‘गुरु जी’ ने प्रदान किया। अारएसएस की स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त अांदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर अपना प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी। ये अांदोलन 1870 दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में ‘पिछड़ी’ जातियों ने और 1920 के दशक में डा। भीमराव अाम्बेडकर की अगुवाई में दलितों ने छेड़े थे। ये महज संयोग नही कि अारएसएस के अब तक के सभी प्रमुख ब्राह्मण रहे है। बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण लेकिन सवर्ण ही (ठाकुर/क्षत्रीय) राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया अारएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे।

अारएसएस के वैचारिक अाधारों पर और बात करने से पहले उसके सांगठनिक तंत्र को समझ लेना अच्छा रहेगा। अारएसएस के अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर की “प्रेरणा” से “1992 में ” लक्ष्य एक कार्य अनेक’ नाम की एक पुस्तक छपी। इसके अनुसार अारएसएस के नियंत्रण में अखिल भारतीय स्तर के 25 और प्रांतीय स्तर के 35 संगठन हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विद्या भारती प्रमुख है। इसी पुस्तक के अनुसार तब देश भर के 25 हज़ार स्थानों पर अारएसएस की नियमित शाखाएं लगती थीं। पुस्तक 1992 की है इसलिए जाहिर -सी बात है उसके बाद के इन करीब 28 बरस में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ोत्तरी ही हुई होगी। बहरहाल उक्त पुस्तक के अनुसार इन शाखाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका “राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यकरण” की कार्यनीति को अागे बढ़ाना है। जैसा कि पुस्तक शीर्षक से ही स्पष्ट है अारएसएस के जितने भी संगठन, समितियां और मंच हो सबका एक अंतिम लक्ष्य है और वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या-क्या होगा और क्या-क्या नहीं होंगे यह तय कैसे होगा, कब तय होगा, कौन तय करेगा ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके उत्तर एक झटके में नहीं दिए जा सकते हैं।

नया संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए मौजूदा संविधान की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए आवश्यक विधिक उपायों की संस्तुति करने के वास्ते एक कमेटी बनाने की चर्चा है। आरएसएस के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भाजपा के पदाधिकारी रहे के एन गोविंदाचार्य इस काम में लगे हैं। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है। उनका कहना है कि मौजूदा संविधान में “भारतीयता” नहीं है, उसकी जगह नया संविधान बने। देखना है मोदी जी के स्वप्न के न्यू इंडिया के संविधान में भारतीयता के लिए कितनी जगह मिलेगी।

वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रप्रकाश झा की फेसबुक वाल से लिया गया है