किसानों की उपज पर ऐतिहासिक MSP या उनके ज़ख्मों पर थोड़ा और नमक?


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उबैद उल्लाह नासिर

भारत सरकार ने खरीफ के लिए धान समेत कई फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का एलान कर दिया है. यह वह कीमत होती है जिस पर सरकार किसानों से उनकी उपज खरीदती है. इसका मकसद होता है कि किसान किसी मजबूरी के कारण अपनी उपज औने पौने दामों पर बेचने को मजबूर न हों मगर आम तौर से यह हो नहीं पाता. केन्द्रीय कृषि मंत्री ने नयी MSP को आज़ादी के बाद की सब से अधिक MSP बताया है लेकिन किसान इसे अपने जख्मों पर नमक छिडकना बता रहे हैं. उन्हें उम्मीद थी कि चार वर्षों तक महज़ जबानी जमाखर्च करने वाले प्रधानमंत्री इस चुनावी वर्ष में अपना पुराना चुनावी वादा पूरा करते हुए स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार उन्हें उनकी लागत पर पचास फीसदी का लाभ देते हुए MSP का एलान करेंगे लेकिन इस नयी MSP में उन्हें पिछले साल के मुकाबले केवल 12-13 प्रतिशत का इजाफा दिया गया है जबकि डीजल समेत अन्य कई आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ जाने से उसकी लागत बहुत बढ़ गयी है.

खरीफ की मुख्य फसल धान होती है जिसकी सहारा कीमत में 200/- प्रति क्विंटल का इजाफा किया गया है जबकि २०१२-१३ में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने उस समय तक का सर्वाधिक इजाफा 170/- प्रति क्विंटल का मंज़ूर किया था. सरकार ने इसके साथ ही अरहर, उरद, मूंग, कपास, सोयाबीन आदि फसलों के लिए भी समर्थन मूल्यों का एलान किया है लेकिन असल समस्या वही है कि इस भाव पर खरीदने वाले कहाँ हैं? सरकार यह सब अनाज खरीदती नहीं क्योंकि उसके पास धान-गेहूं रखने का ही पर्याप्त प्रबंध नहीं है, उसने फिर पुरानी रवायत दोहराते हुए एजेंसियों से कहा है कि वे सहारा मूल्य पर यह अनाज किसानों से खरीदें, उनके नुकसान की भरपाई कर दी जाएगी. 

किसानों की लागत निर्धारित करने के लिए सरकार के पास कई फार्मूले होते हैं. अब तक के चलन के अनुसार बाहर से खरीद कर डाली जाने वाली खाद, बीज, बिजली, डीजल, जुताई, गुड़ाई और मेहनत की लागत और घरवालों की मेहनत जोड़ कर और उस पर दस प्रतिशत मुनाफा दे कर मूल्य निर्धारित कर दिए जाते थे. इसे A2 फार्मूला कहते हैं. इसमें अगर कृषि यंत्रों के मूल्यों में ह्रास और अदा किये जाने वाले ब्याज को जोड़ दिया जाय तो इसे C1 फार्मूला कहते हैं. इसी में अगर किसान की ज़मीन का बाज़ार भाव भी जोड़ दिया जाय तो यह C2 लागत बन जाती है. स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट में इसी C2 फार्मूले को अपनाते हुए लागत निकालने और उस पर पचास प्रतिशत मुनाफा देने की सिफारिश की गयी थी जिसे लागू करने का वादा बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में किया था, लेकिन बाद में एक किसान की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करना सम्भव नहीं है.

मोदी सरकार की इस पलटी को किसान अपनी पीठ पर छुरा मारना कह रहे हैं. भारतीय किसान कमीशन के पहले अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री ने कहा है कि सरकार ने लगभग 12% का इजाफा किया है जबकि विगत चार वर्षों में किसानों की आमदनी में तीस से चालीस प्रतिशत की गिरावट हुई है. उनका इलज़ाम है कि किसी बहुत शातिर और चालाक नौकरशाह ने लागत का फार्मूला सरकार को सुझा कर किसानों की पीठ में छुरा घोंपा है. ख़ासकर छोटे और मंझोले किसान इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे क्योंकि फसल कट के घर आने के तुरंत बाद किसान को पैसों की आवश्यकता होती है जबकि सरकारी खरीदारी बहुत देर से शुरू होती है. फिर खरीदारी केंद्र उसकी पहुँच से दूर होते हैं और भुगतान मिलने व बैंकों के चक्कर लगाने का उसके पास समय नहीं होता. इसलिए वह अपनी उपज स्थानीय आढती या बिचौलिए के हाथों सरकारी कीमत से कम पर बेच देता है. यह आढती और बिचौलिए उसके घर आ कर ही अनाज तौलवा लेते हैं और तुरंत नकद भुगतान कर देते हैं. कभी कभी तो किसान फसल तैयार होने से पहले ही इन आढतियों और बिचौलियों से अपनी ज़रूरत के लिए पैसा ले लेता है और तैयार होने पर अपना अनाज उन्हें तौलवा देता है.

समर्थन मूल्य का निर्धारण तो एक महत्वपूर्ण मसला है ही, उससे भी महत्वपूर्ण है उस भाव पर उपज की खरीदारी. किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनका गेहूं-धान ही सरकार समय पर और पूरा नहीं खरीद पाती तो अन्य उपजों के बारे में क्या सोचना. ईमानदारी की बात यह है कि योगी आदित्यनाथ के आदेश से किसानों का पूरा गेहूं पहली बार सरकार ने यूपी में खरीदा था लेकिन इस बार धान में वह भी पिछड़ गए. इस बार क्या होगा यह देखना बाक़ी है. मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और अन्य राज्यों में जो लाखों किसान सड़क पर निकलने को मजबूर हुए, वह सरकार की इसी लापरवाही के कारण है.

दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान खरीफ में केवल धान और रबी में केवल गेहूं ही नहीं पैदा करता, दूसरे अनाज भी पैदा करता है लेकिन सरकार खरीदती है केवल गेहूं और धान ही, हालांकि वह अन्य अनाजों के लिए भी समर्थन मूल्य निर्धारित कर देती है लेकिन खरीदती नहीं. इस से किसान इन मूल्यों से लाभान्वित नहीं हो पाता. यहाँ फिर उसे आढतियों और बिचौलियों का सहारा लेना पड़ता है. सरकार हर बार कहती है कि अनाज खरीदने वाली एजेंसियां MSP पर अन्य अनाज- दलहन, तिलहन, आदि- खरीद लें, सरकार उनके नुकसान की भरपाई कर देगी लेकिन यह घोषणा वैसी ही है जैसे कब बाबा मरेंगे और कब बैल बटेंगे! न एजेंसियां सरकार से भरपाई का इन्तिज़ार करती है और न किसान एजेंसियों से सरकारी मूल्य या सहारा कीमत पाने की उम्मीद करता है. वह अपनी पैदावार अपने हिसाब से बेच देता है और एजेंसियां अपने हिसाब से खरीद लेती हैं. एक और कटु लेकिन दिलचस्प सच्चाई यह है कि अक्सर बिचौलिए किसान से सस्ते दामों पर धान गेहूं खरीद लेते हैं और फिर बाद में सरकारी या सहारा कीमत पर सरकार को ही बेच देते हैं. ऐसा करके वे लाखों के वारे-न्यारे कर लेते है जिससे सरकारी अमले की भी मुट्ठी काफी गर्म कर दी जाती है हालांकि सरकार ने अब खतौनी, किसान बही, परिचय पत्र आदि की शर्त भी जोड़ दी है सरकारी खरीदारी के साथ लेकिन तू डाल डाल मैं पात पात वाली बात है- सरकार की हर पाबंदी की काट इन बिचौलियों के पास मौजूद रहती है.

एक और संकट ये है कि सरकार बाज़ार में दाम कण्ट्रोल में रखने के लिए दालें आदि बाहर से मंगा लेती है. जब तक किसान की फसल मंडी पहुंचे उससे पहले विदेश से मंगाई गयी दाल बाज़ार में आ जाती है. विगत साल दालों की आसमान छूती कीमत देख कर किसानों ने उरद, अरहर, मूंग आदि खूब बड़े पैमाने पर बोया लेकिन सरकार ने दाल बाहर से मंगा कर उनकी कमर तोड़ दी. मजबूरन किसानों को उरद, अरहर आदि दालें कौड़ी के मोल बेचना पड़ी और भारी घाटा उठाना पड़ा. शकर की उठान न होने से शकर मिलों पर किसानों का अरबों रुपया बाक़ी है. खबर आई थी कि सरकार ने पाकिस्तान से कई लाख टन शकर मंगा ली है. ज़ाहिर है इससे मिलों में शकर पड़ी रहेगी. वह तो कहिये चुनावों में हार के बाद सरकार की आँख खुली और किसानों के भुगतान के लिए उसने मिलों को अस्सी अरब रुपया की लोन गारंटी दे दी.

किसानों की एक और बड़ी समस्या बीजेपी सरकारों का गऊ प्रेम है जिसके कारण किसान अपने बूढ़े और बेकार हो चुके मवेशी बेच नहीं पा रहे हैं. उनको खिलाने पिलाने पर रोज़ सौ दो सौ रुपया खर्च कर पाना भी उनके बस में नहीं जिस कारण वह उन्हें छुट्टा छोड़ देते हैं. ये छुट्टा जानवर ख़ासकर बछड़े जो सांड बन जाते हैं, किसानों की लहलहाती फसल चर जाते हैं और ये इतने हिंसक हो चुके होते हैं कि भगाने जाने वाले किसानों पर हमला तक कर देते हैं. किसानों की फसल ही नहीं, उनकी जान तक खतरे में आ गयी है.
मांस की बिक्री पर तरह-तरह की पाबंदी के कारण केवल गौवंश ही नहीं बल्कि भैंस-बकरी बेच पाना भी किसान के लिए एक समस्या बन गयी है. ये जानवर किसान के ATM हुआ करते थे. रात में बारह बजे भी अगर किसान को पैसों की आवश्यकता पड़ जाए तो वह स्थानीय मांस विक्रेता के हाथों अपने जानवर बेच कर पैसा पा लेता था. बीजेपी मुख्यमंत्रियों के इस पशुप्रेम ने न केवल स्थानीय मांस विक्रेताओं बल्कि उससे भी अधिक आम किसान को मुसीबतों में डाल दिया है. ज़ाहिर है ये किसान अधिकतर हिन्दू हैं. इसके अलावा कई बीजेपी शासित राज्यों में जमीनों की रजिस्ट्री पर गौ-टैक्स लग गया है जिससे पहले से ही बढ़ी हुई रजिस्ट्री पर अब उन्हें दस-पन्द्रह प्रतिशत अधिक खर्च करना पड़ता है. ज़मीन का खरीदार परोक्ष रूप से यह बोझ भी किसान पर ही डालता है और उससे सस्ती दर पर जमीन का सौदा करता है अर्थात यह सरकार हरसंभव तरीके से किसानों का खून चूस रही है.