जीएसटी की प्रयोगशाला: लेखक, पत्रकार, चित्रकार, फ्रीलांसर सब जीएसटी के दायरे में



वरिष्‍ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह पिछले कुछ दिनों से जीएसटी का सच अपनी फेसबुक दीवार मुफ्त में बता रहे हैं। वे रोजाना जीएसटी के विरोध में छपने वाली खबरों का अनुवाद कर के हिंदी में अपने यहां पोस्‍ट करते हैं। यह एक अहम काम है। इस श्रृंखला में उन्‍होंने लेखकों-पत्रकारों पर जीएसटी से पड़ने वाले असर के बारे में बताया है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।

वैसे तो मीडिया संस्थान, अस्पताल और शिक्षा संस्थान अपने मूल कार्यों के लिए जीएसटी से मुक्त हैं पर ज्यादातर मामलों में अन्य संबंधित सेवाएं देने या प्राप्त करने के लिए जीएसटी पंजीकरण आवश्यक है। बहुत सारे लेखक पत्रकार अभी तक यह माने बैठे हैं कि जीएसटी उनके लिए नहीं है। पर है और बहुत स्पष्ट रूप से है। असल में आरएनआई से पंजीकृत मीडिया संस्थान जीएसटी में नहीं हैं और अखबार या पत्रिकाओं (उत्पाद) पर जीएसटी नहीं है इसलिए जीएसटी की आंच फ्रीलांसर्स तक पहुंचने में अभी समय लगेगा। मेरे ज्यादातर ग्राहक कॉरपोरेट और पीआर एजेंसी हैं इसलिए मुझे सबसे पहले काम मिलना बंद हो गया। जुलाई में जो काम हुआ उसका पर्चेज ऑर्डर अब आना शुरू हुआ है। और काम नहीं आ रहा है सो अलग। संक्षेप में यही समझिए कि गाड़ी पूरी तरह पटरी से उतर चुकी है।

अखबारों और मीडिया संस्थाओं के लिए काम करना जीएसटी मुक्त नहीं है। सिर्फ खबर भेजना अपवाद है और इसके लिए जीएसटी पंजीकरण जरूरी नहीं है। आप सोच सकते हैं कि कुछ ना कुछ रास्ता निकल जाएगा नहीं तो मीडिया संस्थान नकद तो दे ही सकता है। पर ऐसा कुछ भी संभव नहीं है। एक तो अब नकद देना-लेना मुश्किल होता जा रहा है या कहिए बैंक के जरिए पैसे लेना-देना अपेक्षाकृत आसान है। दूसरे, कोई भी संस्थान या व्यक्ति आयकर के लिए अपने खर्चों का हिसाब रखता है। इसलिए नकद देकर भी काम कराएगा तो खर्चा दिखाना ही पड़ेगा और वह जीएसटी के नियमों का उल्लंघन होगा। इसे ऐसे समझिए कि कोई भी संस्थान या व्यक्ति अपना खर्च ना दिखाए तो आयकर में फंसे और दिखाए तो जीएसटी में फंसे। सबको चोर मानने वाली सरकार ने कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। इसे आप सरकार की प्रशंसा मान सकते हैं।

वैसे भी, ज्यादातर लेखक, पत्रकार, फ्रीलांसर किसी एक अखबार में तो लिखते नहीं हैं और ना ही एक राज्य की पत्रिकाओं में। और नियम है कि दूसरे राज्य के अपंजीकृत सेवा प्रदाताओं से सेवा न ली जाए। इसलिए, नियमों में छूट को एक अप्रैल से आगे बढ़ाया नहीं गया तो देर-सबेर जीएसटी पंजीकरण जरूरी हो जाएगा। ऐसी हालत में मीडिया संस्थानों की मजबूरी है कि वे फ्रीलांसर्स से जीएसटी पंजीकरण कराने के लिए कहें और पंजीकरण न होने पर देर सबेर आपको छापना बंद कर दें। क्योंकि रिकार्ड में कोई कब तक गलती या गैर कानूनी काम करता रहेगा। जहां तक जीएसटी पंजीकरण के झंझट और खर्चों का सवाल है फ्रीलांसिंग की कमाई से उसका खर्चा उठाना संभव नहीं है। दूसरी ओऱ, मीडिया वाले क्यों लेख और विचार छाप कर झंझट में पड़ेंगे। वे भी सिर्फ खबरें छापने लगेंगे।

इससे राहत तभी मिलेगी जब नियम बदले जाएं। याद रखें, छह अक्तूबर को घोषित छूट अस्थायी हैं। अगर आप एनसीआर से कोई छोटी बड़ी पत्रिका निकालते हैं और गाजियाबाद, दिल्ली और गुड़गांव के फ्रीलांसर, चित्रकार, कलाकार, प्रूफ रीडर की सेवाएं लेते हैं तो नियमतः सबका जीएसटी पंजीकृत होना जरूरी है। इस संबंध में Pankaj Chaturvedi जी ने फेस बुक पर लिखा है, “जीएसटी में बदलाव नहीं हुए तो प्रकाशन उद्योग से जुड़े लोग भूखे मरेंगे। विडंबना है कि कोई भी प्रक्षक संघ इस पर आवाज़ नहीं उठा रहा हैं। जीएसटी में मुद्रित पुस्तक को तो मुक्त रखा गया है लेकिन कागज़ तो ठीक ही है, प्रूफ रीडिंग, सम्पादन, चित्रांकन जैसे कार्यों के भुगतान पर जीएसटी अनिवार्य कर दिया गया है। पिछले दिनों 16 साल से मेरे साथ काम कर रहे एक प्रूफ रीडर मेरे पास आये, उनसे मैंने भुगतान के लिए जीएसटी में पंजीयन के लिए कहा, उन्होंने कहा- यह काम मेरा मुफ्त में मान लेना, मैं इस झंझट में नहीं पड़ सकता।

“असल में नियम है कि दो-पांच हज़ार का कार्य करने वाले ऐसे लोग भी अपने बिल में अठारह प्रतिशत जीएसटी क्लेम करें, फिर वे इस राशि को खुद जमा करवाएं, फिर उसका रिटर्न फाइल करते रहें। जाहिर है कि चित्रकार या प्रूफ का कार्य करने वाले के पास ना तो इतना समय है, न कमाई और ना ही अनिवार्य जीएसटी का तकनीकी ज्ञान। नतीजतन इस तरह के काम करने वाले कुछ और करने लगेंगे और येन केन प्रकारेन पुस्तकों को तैयार करने में बड़ा नुकसान होगा। हिंदी के प्रकाशक वैसे ही आर्थिक दवाब में हैं। पुस्तक मेले आदि में सहभागिता के लिए भी जीएसटी लगने से स्टाल का किराया बढ़ गया हैं। मेरी जानकारी में कई ऐसे प्रकाशन गृह है जो बंद होने जा रहे हैं। उनमें कुछ हिंदी-अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तकें छापने वाले भी हैं। ऐसे में प्रूफ, चित्र, अनुवाद जैसे अस्थायी कार्य करने वालों का विमुख होना खतरे की घंटी है।”

(मैं जीएसटी पेशेवर या एक्सपर्ट होने अथवा जीएसटी को अच्छी तरह जानने का कोई दावा नहीं करता। इसलिए मेरी यह समझ गलत हो सकती है।)


आवरण चित्र साभार http://www.zunar.my