आज अलवर में ‘बेरोज़गार’ मुर्दों को चुप रहने की हिदायत है, केवल प्रधानमंत्री बोलेंगे…



मनदीप पुनिया / अलवर से लौटकर

राजस्थान के अलवर जिले में 20 नवम्बर को जो हुआ, वह दिल दहला देने वाला था। चार लड़कों ने एक साथ ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली। इनमें तीन लड़कों की मौत मौके पर ही हो गई। चौथा जो बचा था, उसने भी 23 नवंबर को जयपुर के अस्पताल में दम तोड़ दिया। शुरुआती खबरों में हमें बताया गया कि लड़कों ने बेरोज़गारी से तंग आकर जान दी है। चुनाव के चढ़े हुए मौसम में ऐसी घटनाएं और इनकी खबर किसे नहीं भाती, यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है।

आज सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलवर से ही राजस्‍थान विधानसभा चुनाव का प्रचार शुरू कर रहे हैं। इस लिहाज से अव्‍वल तो यह देखना बनता है कि वे अपने भाषण में इन चार मौतों का जि़क्र करेंगे या नहीं, चूंकि उनका मानना है कि देश में बेरोज़गारी घटी है और रोज़गार बढ़े हैं। पिछले दिनों उन्‍होंने एक इंटरव्‍यू में कहा था कि उनके पास रोजगार मापने के साधन नहीं हैं। बेरोजगारी को मापने का इससे बड़ा साधन क्‍या हो सकता है कि बेरोज़गार युवा ट्रेन से कटकर जान दे रहा है? कही-सुनी पर भरोसा करने के बजाय हमने सोचा कि इन मृत युवकों के परिवारों से सीधे मिलकर बेरोजगारी के पैमाने का अंदाजा लगाया जाए।

प्रधानमंत्री के भाषण से दो दिन पहले यानी 23 नवंबर की शाम अलवर से राजगढ़ होते हुए 40 किलोमीटर कच्चे-पक्के रास्तों से होकर हम बुचपुरी पहुंचे। गांव पहुंचने के लिए अलवर से ही हमें गाड़ी लेनी पड़ी क्योंकि वहां तक सार्वजनिक परिवहन सेवा नहीं उपलब्ध नहीं है। बुचपुरी में सत्यनारायण का घर है जो आत्महत्या करने वाले चार युवाओं में शामिल था। उसके घर तक पहुंचने के तकरीबन 12 किलोमीटर पहले ही पक्की सड़क खत्म हो जाती है और कच्चे रास्ते से हम उसके घर तक पहुंचते हैं। सरसों के खेत के किनारे आधे-अधूरे घर के आंगन में एक टेबल पर  सत्यनारायण की तस्वीर रखी गई है, जिस पर फूल चढ़ाए हुए हैं। उसके सामने ही कुछ महिलाएं और कुछ पुरुष बैठे हुए हैं। एक नजर देखते ही साफ पता चलता है कि घर अभी-अभी नया बनाया गया है जिसमें लिपाई, पुताई, फर्श, खिड़कियां, जंगले और दरवाजे लगने अभी बाकी हैं। आंगन में ही कुछ टीवी पत्रकारों की भीड़ जुटी है जो सत्यनारायण के भाई से कैमरे पर बाइट ले रहे हैं। कैमरे के सामने सत्यनारायण के बड़े भाई लगातार बोल रहे हैं कि उनका परिवार संपन्न है और सत्यनारायण को नौकरी की जरूरत नहीं थी। वे खुद सीमा सशस्त्र बल में काम करते हैं और उनके पास इतना पैसा है कि सब बड़े मौज से रह रहे थे।

सत्यनारायण के भाई से हमने पूछा कि जब उसके ऊपर नौकरी का दबाव था ही नहीं, तो इतने साल से वह अलवर में नौकरी के लिए कोचिंग क्यों ले रहा था। हमने उन्‍हें बताया कि चश्मदीद भी यही कह रहे थे कि सत्यनारायण ने बेरोजगारी से परेशान होकर आत्महत्या की है। सवाल सुनकर बड़ा भाई थोड़ा सहम सा गया और कहने लगा, ‘’हम तीन भाई हैं। सत्यनारायण सबसे छोटा था इसलिए उसे नौकरी की जरूरत नहीं थी। नौकरी की जरूरत तो मुझसे छोटे वाले को थी क्योंकि उसकी शादी हो रखी है।”

इतना कहकर उन्होंने अपने से छोटे वाले भाई को आगे कर दिया। उनसे छोटे वाला भाई चुपचाप खड़ा रहा। उसकी आंखें अपने भाई के दुख में सूज चुकी थीं। जब उसने काफी देर कोई जवाब नहीं दिया, तो सत्यनारायण के बड़े भाई ने दोबारा बोलना शुरू किया- “सत्यनारायण को हमने हर सुविधा दी हुई थी और उस पर नौकरी का कोई भी दबाव नहीं था। इसलिए बेरोजगारी के चलते आत्महत्या करने का कारण उन्हें वाजिब मालूम नहीं होता है। फिर पता नहीं क्यों मीडिया लगातार इसे बेरोजगारी का मुद्दा बनाकर खबरें छाप रहा है।”

इतना कहकर वह चुप हो गया और इधर-उधर ताकने लगा। घर के दालान में एक किनारे सत्यनारायण के साथ अलवर में नौकरी की कोचिंग लेने वाले उसके कई दोस्त चुपचाप खड़े थे। जब उनसे सत्यनारायण के बारे में पूछा गया तो वे यही कहने लगे कि घर वाले जो कह रहे हैं, वह ठीक ही होगा। काफी देर उनसे बात करने के बाद सत्यनारायण का एक साथी हमें घर से थोड़ी दूर ले गया।

जब हमने उससे नाम पूछा तो वह कहने लगा, “नाम तो मैं नहीं बताऊंगा, पर आपको इतना जरूर बता दूं कि अब घरवाले बेशक यह कह रहे हों कि सत्यनारायण ने आत्महत्या बेरोजगारी के चलते नहीं की, लेकिन जब हमारी जान-पहचान वाले लड़के की नौकरी लगती थी तो सत्यनारायण इस बात का जिक्र जरूर करता था कि पता नहीं  हमारी नौकरी कब लगेगी।‘’

उसने आगे कहा, ‘’कल पुलिस वाले सत्यनारायण के भाइयों से मिल कर गए थे। उसके बाद से ही ये लोग रट लगाए बैठे हैं कि सत्यनारायण ने आत्महत्या किसी दूसरी वजह से की है। बेरोजगारी की वजह से नहीं। शायद पुलिस ने इन्हें डरा दिया है कि अगर बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या बताओगे तो बात तुम्हारे ऊपर आ जाएगी। इसलिए अब ये सब ऐसा बोल रहे हैं। अभी जो सत्यनारायण का बड़ा भाई अपने आपको बड़ा अमीर बता रहा था, असल में वह झूठ बोल रहा था। आप यह घर देख रहे हैं। यह भी उसने अपने सैलरी पर लोन लेकर बनाया है। पैसे की कमी के चलते इस घर को भी अभी तक ये लोग पूरा नहीं कर पाए हैं। अब बेशक ये लोग कह रहे हों कि सत्यनारायण पर नौकरी का कोई दबाव नहीं था, लेकिन वह कई बार नौकरी की बातें करता था।”

वह लड़का इतना कहकर अपने दोस्तों के टोले में वापस जाकर खड़ा हो गया। काफी देर तक सत्यनारायण के परिवार से बातचीत करने के बाद भी उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया और लगातार यही कहते रहे कि सत्यनारायण बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या नहीं कर सकता।

सत्यनारायण के घर से निकलकर हम ऋतुराज के घर की तरफ रवाना होते हैं। कच्चे रास्ते को दोनों तरफ से कम गहरी उपजी सरसों के खेतों ने घेरा हुआ है। खेतों के पार अरावली की छोटी-छोटी पहाड़ियां भी दिखाई दे रही हैं। ड्राइवर से इस क्षेत्र के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, “यहां आसपास सारे गांव-ढाणी मीणा जनजाति के लोगों के हैं। इसलिए इसे अलवर जिले की मीणा बेल्ट भी कहा जाता है। ये लोग ज्यादातर किसानी और पशुपालन में हैं। ज़मीन उपजाऊ तो है मगर पानी की बड़ी किल्लत है। इस वजह से यहां खेती कोई फायदे का सौदा नहीं है। खेत हैं तो सरसों-बाजरा जैसी फसलें बो लेते हैं। खेती में सिर्फ टाइमपास ही होता है, मुनाफा नहीं। ये बैकवर्ड सा इलाका है। सुविधाएं तो यहां क्या ही होंगी जब यहां ढंग से फ़ोन के नेटवर्क तक नहीं आते।”

कुछ देर में हम ऋतुराज के घर पहुंच गए। आत्महत्या करने वाले चारों लड़कों में ऋतुराज सबसे छोटा था जिसकी उम्र महज 17 वर्ष थी। ऋतुराज के पिता का नाम बाबूलाल मीणा है और वह दोनों पैरों से अपाहिज है। उसका घर गांव की पक्की फिरनी पर पड़ता है। घर के बरामदे में ऋतुराज की एक तस्वीर टेबल पर रखी हुई है जिस पर फूल चढ़ाए हुए हैं। उसके सामने ही ऋतुराज की मां बेसुध होकर लेटी हुई हैं। उनके अलावा वहां कोई भी नहीं बैठा है। पूछने पर पता चला कि वह लगातार ऋतुराज की शादी करने की बात कर रही हैं और कुछ देर में ही सांस भूल जा रही हैं।

घर के बाहर चबूतरे पर कुर्सियां लगी हुई हैं जहां उसके चाचा कालूराम मीणा और घर के ही दो-तीन बच्चे बैठे हुए हैं। जब हमने ऋतुराज के बारे में पूछा तो उनके चाचा अंदर से राजस्थान पत्रिका की एक प्रति उठाकर ले आए। अखबार हमारे हाथ में देते हुए वह कहने लगे, “देखो भाईसाहब अखबार वालों ने क्या लिखा है। अखबार वाले लिख रहे हैं कि इन बच्चों के पास 60-60 हजार के मोबाइल थे, 1-1 लाख की गाड़ियां थीं, 15-15 हजार के जूते पहनते थे, जबकि यह सच नहीं है। अखबार ने यह तक लिखा है कि बच्चे सिगरेट, शराब और तमाम तरह का नशा करते थे। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि जब उनके साथियों ने जो वहां मौके पर मौजूद थे, यह कहा है कि इन बच्चों ने बेरोजगारी के कारण अपनी जान दी है, तो अखबार ऐसी चीजें क्यों छाप रहा है।‘’

इतना कहकर उन्होंने हमें मौका दिए बगैर हमसे ही सवाल कर दिया- ‘’आप तो सत्यनारायण के घर गए थे, वहां क्या माहौल है?”

हमने बताया कि वहां तो सभी आत्महत्या की वजह बेरोजगारी कतई नहीं बता रहे। यह सुनकर ऋतुराज के चाचा थोड़े ठहरे और कहने लगे, “लगता है पुलिस ने उन्हें डरा दिया है। हमारे वाले की तो समझ में आती है कि नौकरी इतना बड़ा मुद्दा नहीं थी क्योंकि उम्र ही बस 17 साल थी उसकी, लेकिन बाकी तीन की तो उम्र भी हो चुकी थी और कई साल से वे अलवर में रहकर नौकरी की कोचिंग भी ले रहे थे। हमें तो समझ ही नहीं आ रहा कि अब उनके घर वाले ऐसी बात क्‍यों कर रहे हैं।” हमने उनसे और भी बात करनी चाही लेकिन उन्होंने कुछ भी बोलने से मना कर दिया। ऐसा लगा कि वे सुन्न पड़ गए हों।

उनके घर से निकलने के बाद हम बहड़के कलां गांव में मनोज के घर के लिए रवाना हुए। मनोज के घर तक भी हमें एक कच्चा रास्ता लेकर गया। घर के बाहर कुछ लोग चटाई बिछा कर बैठे हुए थे। घर के भीतर कच्ची छत के नीचे एक टेबल पर मनोज की तस्वीर रखी हुई थी और उसके सामने महिलाएं बैठी हुई थीं। मनोज की मां का भी वही हाल है जो सत्यनारायण और ऋतुराज की मां का है। घर में पहाड़ी पत्थर के सिर्फ दो कमरे बने हुए हैं जिन्हें रहने के हिसाब से आदर्श नहीं कहा जा सकता। मनोज के पिता रामभरोसी किसान हैं, जिनके पास कम पानी की थोड़ी सी जमीन है। मनोज के एक छोटा भाई और एक बहन भी है। बहन ने एमए और बीएड किया है और घरवाले उसे ब्याहने के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं। घर में खेती के अलावा आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं है।

मनोज के बारे में पूछने पर उसके पिता ने कहा, ‘’हमें तो पता ही नहीं कि हमारे बेटे को मौत ने क्यों निगल लिया। राम जाने क्यों वो लोग ट्रेन के आगे कूदे।” इतना बोलने के बाद वे वहां से उठकर हुक्के के लिए चिलम भरने चले गए। वहीं पास बैठे मनोज के चाचा के लड़के ने हमारा परिचय पूछकर बोलना शुरू किया, ‘’”मनोज ने आत्महत्या बेरोजगारी की वजह से नहीं की है क्योंकि वह जब चाहता उसको नौकरी मिल जाती। उसको घर से हम पूरा खर्चा भी भेजते थे।”

जब हमने उनसे पूछा कि घर में आय का ऐसा क्या स्रोत है जिससे आप मनोज को खर्च भेजते थे, तो उन्‍होंने सवाल सुनकर उसे अनसुना कर दिया। हमने उनसे फिर पूछा कि अगर मनोज को कभी भी नौकरी मिल जाती तो अभी तक उसने नौकरी ज्वाइन क्यों नहीं की थी? इस सवाल का भी उनके पास कोई जवाब नहीं था। हमने फिर पूछा कि क्या आपके ऊपर कोई दबाव है? जवाब में उन्होंने बड़े हलके मन से सिर हिला कर इनकार कर दिया। कई कोशिशें करने के बावजूद उन्होंने इसके बाद हमसे बात करने से इनकार कर दिया।

जाहिर है, चुनाव पूरा होने तक तस्‍वीर ऐसी ही रहने वाली है। बेरोजगारी की बात तो दूर रही,  चार आत्‍महत्‍याओं भी जिक्र भी अगले दो हफ्ते तक यहां कोई नहीं करेगा। हो सकता है बाद में भी नहीं करे, जैसा अब पहलू खान और रकबर का कोई जिक्र नहीं करता जो इसी धरती पर मार दिए गए थे। निर्दोषों के खून से रंगे अलवर में प्रधानमंत्री की पहली रैली सुचारु रूप से संपन्‍न हो, छह लाशों को इंसाफ के मुकाबले यह कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है। अखबारों और प्रशासन ने इसकी मुस्‍तैद व्‍यवस्‍था कर दी है।

अलवर में आज सिर्फ प्रधानमंत्री बोलेंगे। मनोज, ऋतुराज, सत्‍यनारायण चुप रहेंगे। पहलू खान और रकबर भी चुप रहेंगे।