राजनीतिक प्रचार बनते एग्ज़िट पोल


अबजब 11 तारीख को नतीजे आने वाले हैं, तब इन भ्रामक नतीजों की पत्रकारिता केनज़रिए से कोई अहमियत नहीं रह जाएगी, लेकिन इन नतीजों के बल पर मीडिया और सर्वेसंस्थान अपने हित साधते रहेंगे




गणपत तेली

बीते सात नवंबर की शाम जब राजस्थान और तेलंगाना में मतदान अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच रहा था, अधिकांश टीवी चैनलों के स्टूडियों में एग्ज़िट पोल दिखाने के लिए पत्रकारों, चुनाव विशेषज्ञों और राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता तैयार होने लगे। कुछ साल पहले तक चुनावों को लेकर किए जाने वाले ओपिनियन पोल और एग्ज़िट पोल सामान्यत: एक पत्रकारिता और विश्लेषण की प्रक्रिया माने जाते थे लेकिन पिछले 5-6 साल में इनकी विश्वसनीयता में भयानक गिरावट आई है, अब यह राजनीतिक प्रचार का माध्यम समझे जाने लगे।

हालांकि चुनावी सर्वे विवादों और आरोपों से अछूते कभी नहीं रहे। 1999 के लोकसभा चुनावों में जब दूरदर्शन पर एग्ज़िट पोल ने तीसरे-चौथे चरण के बाद भाजपा को बढ़त दिखाई तो कांग्रेस ने इस पर भाजपा के पक्ष में राजनीतिक माहौल बनाने का आरोप लगाया, जिसे उस समय के कार्यवाहक सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने स्टार न्यूज़ के एग्ज़िट पोल से तुलनाकर जवाब दिया था। इसके बाद जैसे-जैसे निजी समाचार चैनलों की संख्या बढ़ती गई, एग्ज़िट पोल का क्रेज भी बढ़ने लगा लेकिन जो पार्टी इन सर्वे में पिछड़ती, वह पक्षपात का आरोप लगाती रहीं। पिछले बीस सालों में हालांकि ऐसे मौके कम ही आए, जब एग्ज़िट पोल सही साबित हुए हों। प्रसंगवश: मुझे आज दिन कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिससे किसी ने चुनावी सर्वे के लिए संपर्क किया हो और जिसके घर में टीआरपी का बोक्स लगा हो।

मतदान से महीनों पहले ही ओपिनियन पोल प्रारंभ हो जाते हैं और आखिरी दौर के मतदान के बाद एग्ज़िट पोल किए जाते हैं। 2013 में जब आम आदमी पार्टी दिल्ली की राजनीति में उतरी तो आप और भाजपा के बीच ओपिनियन पोल के माध्यम से अपने पक्ष में हवा बनाने की होड़ सी मच गई। हर कुछ दिन में दोनों पार्टियों की तरफ से ओपिनियन पोल आने लगे और हर पोल में पार्टी अपने आपको बढ़त बनाए हुए दिखाती थी। दिल्ली के चुनावों में यह एक आम दृश्य हो गया था कि हर कुछ दिनों में वोट प्रतिशत और सीट दिखाते नए पोस्टर दिल्ली भर में सट जाते थे।

जबतक पार्टियां अपने स्तर पर यह करती रही, तब तक यह बड़ी समस्या नहीं थी लेकिन जबसमाचार चैनल यही करने लगे तो यह बड़ी समस्या बन गई। पार्टियों द्वारा किए गए सर्वेको लोग पार्टी का मानते थे लेकिन समाचार चैनल के सर्वे को निष्पक्ष मानते थे। उससमय तक अधिकांश लोग मीडिया संस्थानों को निष्पक्ष मानते थे इसलिए वे समाचार केबहाने प्रचार पाने लगे। निश्चित तौर पर 2014 के लोकसभाचुनावों में विभिन्न समाचार चैनलों पर आए सर्वेक्षणों ने भारतीय जनता पार्टी केपक्ष में माहौल बनाने में मदद की। ओपिनियन पोल में भाजपा को बढ़त दिखाई देने केसाथ-साथ एग्ज़िट पोल में भी प्राय: भाजपा को ओवरएस्टीमेट कर प्रोजेक्ट किया जाताथा। इससे समग्रता में भाजपा के पक्ष में माहौल बनता था।

कुछ राज्यों में एग्ज़िट पोल का औसत और परिणाम की तुलना

जैसे-जैसे टीवी चैनलों पर सरकार का नियंत्रण बढ़ता गया यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। सामान्य समाचारों और विश्लेषणों में जिस तरह से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों और सरकार से असहमत होने वाले लोगों को नज़रअदांज़ किया जाता था, वहीं चुनाव विश्लेषणों में होने लगा था। चुनावों के परिणामों का इंतज़ार न कर एग्ज़िट पोल के आधार पर ही विश्लेषण किए जाने लगे और मोदी-अमित शाह की छवि निर्माण के प्रयास किए गए।

सात नवंबर को दिखाए गए एग्ज़िट पोल में समाचार चैनलों और सर्वे एजेंसियों के सामने एक गंभीर चुनौती उठ खड़ी हुई। 2014 के बाद यह पहला मौका था, जब कांग्रेस भाजपा के सामने बड़ी चुनौती बनकर उभरी। हिंदी क्षेत्र के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एन्टी इनकंबेंसी का सामना कर रही चुनौती को कांग्रेसी नेतृत्त्व ने कड़ी चुनौती दी और यह समझा जा रहा है कि राजस्थान में कांग्रेस सरकार बना लेगी और मप्र, छग में कांग्रेस भाजपा से पीछे नहीं है।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हालांकि कांग्रेस ढीली रही लेकिन राजस्थान में चार साल पहले ही सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर नरेटिव बदलने का काम प्रारंभ कर दिया था। सचिन पायलट ने बूथ स्तर तक जाकर कांग्रेस को दोबारा खड़ा कर दिया। वसुंधरा राजे की सरकार की नाकामियों ने उनकी मदद भी की। इसलिए जहां चुनाव सभी कांग्रेस को आगे मान रहे थे, वहीं लोग चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में यह कहने लगे कि मोदी और अमित शाह के प्रचार के कारण भाजपा फिर से रेस में आ गई है जबकि राजस्थान की राजनीति पर नज़र रखने वाले निष्पक्ष पत्रकारों का मानना था कि ऐसा कुछ हुआ नहीं है।

इसबात का कई समाचार चैनलों और पत्रकारों ने प्रसार किया। दिलचस्प स्थिति एग्ज़िट पोलदिखाते समय आई। उस समय उन्होंने अपना नरेटिव दोबारा बदलते हुए यह कहा कि मामलाबराबरी का है। दरअसल पहले वे भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में माहौल बनाना चाहतेथे, तो अब अपनी साख बचाते हुए भाजपा को नाराज़ भी नहीं करना चाहते हैं। इसके लिए कुछचैनलों ने बड़ी रेंज ले ली। आजतक चैनल (एक्सिस सर्वे)ने मध्य प्रदेश का सर्वे दिखाते हुए कांग्रेस और भाजपा की रेंज क्रमश:104-122 और 102-120 दिखाई, जबकि बहुमत आकड़ा 116है।   

जाहिर है, 18 सीटों का प्लस-माइनस लेकर आजतक ने कांग्रेस, भाजपा और साख तीनों को साधने का प्रयास किया है।

इसीतरह का एक सर्वे जन की बात द्वारा किया गया। यह सर्वे रिपब्लिक टीवी के लिए था।इसकी विशेषता यह थी कि आज तक ने जो मध्यप्रदेश के लिए किया था, वह इसने सभीराज्यों के लिए किया।  

यानी इस सर्वे में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस को समान रेंज दी गई है। आश्चर्य यह है कि यहां पर अधिकतम रेंज लगभग 20 सीटों की है। सबसे मजेदार यह है कि इसने राजस्थान में भी भाजपा को जीत की स्थिति में रखा है।

अबजब 11 तारीख को नतीजे आने वाले हैं, तब इन भ्रामक नतीजों की पत्रकारिता केनज़रिए से कोई अहमियत नहीं रह जाएगी, लेकिन इन नतीजों के बल पर मीडिया और सर्वेसंस्थान अपने हित साधते रहेंगे।    

लेखक जामिया मिलिया में प्राध्‍यापक हैं