अटल को उन्‍हीं के पाले में खड़े होकर देखना..!



अभिषेक श्रीवास्‍तव

आदमी चला गया। हिकारत और तिजारत के दो पाले खींच गया। अब अंधेरा चढ़ रहा है। दिन भर लतीफ़ों से खेलने के बाद जब शाम पांच बजे अटलजी के निधन की आधिकारिक पुष्टि हुई, तब से मैं सोच रहा था कि दिन बीतते-बीतते ऐसा क्‍या लिख दिया जाए जिसमें खुद को छलना न पड़े। अटलजी पर स्‍मृतिशेष जैसा कुछ लिखने की सलाहियत मुझमें नहीं है, न ही इतना तजर्बा है। मृत्‍यु की दौड़ में हमारी पीढ़ी के लोग चालीसा पढ़ रहे हैं, फिर भी हम बहुत बाद की पीढ़ी के हैं। बाबरी विध्‍वंस के बाद हम जवान हुए, सदी के अवसान पर हमने सायास एक वैचारिक पाला चुना और नई सदी की पहली सांप्रदायिक करवट ने 2002 में हमें एक स्‍थायी चश्‍मा पहना दिया। तब वे शीर्ष पर थे। सामने उन्‍हें ढलते देखा। इस बीच चुने हुए पाले की मिट्टी को उखड़ते देखा, तो दूसरे पाले की सड़ांध भी देखी। अब हमारी स्थिति टोबाटेक सिंह जैसी है। कब मारे जाएं, किसके हाथों, पता नहीं। दूसरे पाले से कब कौन देशद्रोही कह दे, अपने पाले से कब कौन पतित कह दे, कोई भरोसा नहीं। फिर भी, कुछ न कहने से कुछ कह देना हमेशा बेहतर होता है।

विचारधाराएं अपनी पालना के लिए हैं। अपना चश्‍मा हैं। हर किसी को अपने चश्‍मे से दुनिया को देखने और बरतने की इजाज़त है। मैं अपने चश्‍मे से देखूं तो जो मौजूदा निज़ाम है, उसकी जड़ इंदिरा गांधी तक जाती है। अटल इस विकासक्रम में एक कड़ी भर हैं। इस फ्रेम में अटल का मूल्‍यांकन करना मुमकिन नहीं। यह ज्‍यादती होगी। उन्‍हें समझने के लिए मुझे उनके पाले में खड़ा होना होगा। अपने पाले में खड़े होकर दूसरे पाले वाला दुश्‍मन ही नज़र आएगा। बोले तो हमारा गुंडा कामरेड, तुम्‍हारा कामरेड गुंडा। यह सबसे आसान काम है। ऐसे बात नहीं बनती। इसलिए यदि मैं भारतीय दक्षिणपंथ के आईने में अटल बिहारी वाजपेयी का अक्‍स देखने की कोशिश करता हूं तो दो मोटी बातें समझ में आती हैं।

पहली, वे अनिवार्यत: संघ के समर्पित कार्यकर्ता थे और अनिवार्यत: एक सनातनी ब्राह्मण थे। इसमें मैं खानपान आदि निजी चीज़ों को कसौटी नहीं मान रहा। अब मेरे सामने सवाल उठता है कि उन्‍होंने अपनी (मने संघ की) विचारधारा को कितना जिया? आज जैसी प्रचुर प्रतिक्रियाएं उनके विरोध और समर्थन में आई हैं, वे इसे नापने का फौरी पैमाना हो सकती हैं। दोनों की भावभूमि एक ही है कि वे समर्पित संघी और सनातनी रहे। अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदार कोई भी शख्‍स सम्‍मान योग्‍य होना चाहिए, भले हम विरोधी विचारधारा के हों। कमिटमेंट एक मूल्‍य है, चाहें दाएं हो या बाएं।

दूसरी बात, उनकी पीढ़ी के लालकृष्‍ण आडवाणी को छोड़ दें तो क्‍या उनके बाद भाजपा में उभरी नेताओं की पीढ़ी में से आप किसी को भी विचारधारा का सच्‍चा वाहक मान सकते हैं? नरेंद्र मोदी का इकलौता उदाहरण काफी होगा। क्‍या मोदी आरएसएस के सच्‍चे कार्यकर्ता हैं? मेरा जवाब नहीं में है। ढेरों कारण गिना सकता हूं। अव्‍वल तो यही कि आरएसएस वाले उनके विराट हो चुके व्‍यक्तित्‍व से बहुत घबराते हैं। सत्‍ता में रहने की एक व्‍यावहारिक विवशता है जो संघ और भाजपा को कदमताल करने दे रही है अब तक वरना संघ जिस मजबूरी में और जितना रिफॉर्म हुआ है इस बीच, वह अप्रत्‍याशित है। वाल्‍टर एंडर्सन और श्रीधर दामले की एक किताब आई है आरएसएस पर। ज़रूर पढि़एगा। संघ के लोगों से बात करिए। संघ का एक विचार-पारायण काडर मोदी से नफ़रत करता है। मोदी ने संघ को दीवार से सटा दिया है। अंदरखाने संघ छोटी-छोटी साजि़शों का अड्डा बन चुका है। उधर मोदी के आभामंडल में भाजपा का संगठन छुछुक के छुहारा हो गया है। ऐसा अटल के दौर में क्‍या, जन्‍म के नब्‍बे साल में कभी नहीं हुआ कि आरएसएस एक सांस्‍कृतिक संगठन से राजनीतिक संगठन में तब्‍दील हो जाए और बाद में शिखर पर बैठे व्‍यक्ति का रेहन बनकर रह जाए।

इसी नैरेटिव के बीच अटल विशिष्‍ट होकर उभरते हैं। अटल ने अपने संगठन और उसकी विचारधारा को अंत तक थामे रखा। मोदी अपने संगठन और उसकी विचारधारा से इतना वृहत्‍तर हो गए कि उन्‍होंने ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर डाला। तमाम वैचारिक चेहरों को मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया। आडवाणी जैसे विचार-पुरुष को अपने सामने झुकने को विवश कर दिया। सनातन धर्म की विरोधी नाथ परंपरा के ऐसे महंत को सबसे बड़े सूबे की कमान थमा दी जो उस परंपरा का भी नहीं हुआ जिसमें वह दीक्षित है। नतीजा- आज बनारस में मंदिर तोड़े जा रहे हैं। यह सनातन की पीठ में भोंका गया ज़हर बुझा छुरा है। आप ध्‍यान से देखिए, पाएंगे कि जितने भी लोग सत्‍ता के शीर्ष पर बैठे हैं, सब के सब अपनी वैचारिक परंपरा के विश्‍वासघाती हैं। अपने संगठन के भितरघाती हैं। सत्‍ता के प्रेम में पितृहंता और भ्रातृहंता भी बनने में उन्‍हें कोई संकोच नहीं।

अटल ने ऐसे ही राजधर्म की बात नहीं की थी। मुखौटे में रहना एक शासक का आपद्धर्म है। अटल जानते थे कि बगैर मुखौटे के वे न तो विचार को बचा पाएंगे, न संगठन को और न सत्‍ता को। इतना पानी उनकी भी आंख में रहा। आज जो मुखौटा हम देखते हैं राजा के चेहरे पर, वह दरअसल उसके चेहरे से भी ज्‍यादा खालिस है। असली है। मुखौटे और चेहरे के बीच का झीना परदा फट चुका है। कौन असली है और कौन नकली, जान पाना मुश्किल है। यह बाइपोलर सिन्‍ड्रोम है, पाखंड है, जो हमें अटल के यहां नहीं मिलता। जो एक स्‍तर पर पाखंड रचता है, वह हर स्‍तर पर पाखंड रचता है। वह संगठन, विचारधारा और सहोदरों-परिजनों के प्रति भी पाखंडी होता है। अटल जो थे, कम से कम पाखंडी नहीं थे। अखण्‍ड थे।

मैं फिर कहूंगा कि दक्षिणपंथ और आरएसएस की राजनीति से हमारी वैचारिक असहमति एक बात है, लेकिन अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदारी बिलकुल दूसरी बात है। लोकतंत्र है। हर तरह के विचार रहेंगे। रहने भी चाहिए। असल बात यह नहीं कि अटल हमारे वैचारिक विरोधी थे। असल बात यह है कि वे अपनी (यानी संघ की) विचारधारा के ‘अटल’ वाहक थे, जो उनके बाद भाजपा में कोई नहीं हुआ। हर वो शख्‍स सम्‍मान का पात्र है जो अपने विचारों से दगा नहीं करता। हर वो शख्‍स तिरस्‍कार का पात्र है जो अपने विचारों से दगा करता है।

इस देश में बचे-खुचे, खुरदुरे और विकृत हो चुके वैचारिक दक्षिणपंथ के सच्‍चे वाहक का इस तरह अनंत में चले जाना हिंदुस्‍तान नाम के विविधतापूर्ण वैचारिक संगमन के लिए एक दुर्भाग्‍यपूर्ण स्थिति है। एक ऐसे समय में जब हर किस्‍म के राज्‍य-प्रयोजित या स्‍वतंत्र अपराध को एक विचारधारा विशेष की चादर ओढ़ा दी जा रही हो, ज़रूरी है कि अटल बिहारी वाजपेयी के अवसान के बहाने कुछ चीज़ों पर नए सिरे से विमर्श हो। मसलन, राष्‍ट्रवाद क्‍या है। हिंदुत्‍व क्‍या है। सनातन धर्म क्‍या है। मौजूदा निज़ाम नरेंद्र मोदी और उनके लघु संस्‍करणों के नेतृत्‍व में जो कुछ भी कर रहा है, क्‍या उसे दक्षिणपंथी राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है अथवा वे कृत्‍य विशुद्ध अपराध की श्रेणी में आते हैं। क्‍या नरेंद्र मोदी आरएसएस के विचारों के वाहक हैं? क्‍या आज का आरएसएस और भाजपा सनातन धर्म के रक्षक हैं अथवा विरोधी? क्‍या खुद को हिंदू हित रक्षक कहने वाली सरकार वाकई हिंदू हित रक्षक है या हिंदू विरोधी? हिंदुत्‍व क्‍या हिंदू धर्म है या कुछ और? इन सवालों पर अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की राजनीति में क्‍या और कितना फ़र्क है?

अटल का जाना पाले खींचकर फूल चढ़ाने या चप्‍पल मारने का अवसर नहीं बनना चाहिए। ऐसा किसी के साथ नहीं होना चाहिए। अंधश्रद्धा और अंधविरोध दोनों घातक हैं। व्‍यक्ति का मूल्‍यांकन उसके खित्‍ते में उसकी अवस्थिति से होना चाहिए। यह काम कौन करेगा, इसका जवाब मेरे पास नहीं है लेकिन एक आखिरी बात कहना चाहूंगा- अटलजी के अवसान पर हमें यह सवाल उनके वसुधैव कुटुम्‍ब से जरूर पूछना चाहिए कि अब कुटुम्‍ब के मुखिया को राजधर्म की याद कौन दिलाएगा? कोई है?


लेखक मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक हैं