बस्तर में संवाद की खुलती राह और जमुना देवी का एक अहम पत्र


मंत्रिपद की शपथ के साथ ही कवासी लखमा ने भी यह दोहराया कि बस्तर का विकास होगा और इस क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए गोली से नहीं बल्कि बातों से काम लिया जाएगा, हालांकि हिंदुस्तान की मीडिया ने उनके ठीक से शपथ न ले पाने को ही ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह दिखाया





सत्यम श्रीवास्तव

छत्तीसगढ़ की नव निर्वाचित सरकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने खुलेपन से इस बात को स्वीकार किया है कि नक्सल समस्या का इलाज केवल बंदूक नहीं है बल्कि एक स्वस्थ संवाद है और समाजार्थिक कारणों को ध्यान में रखकर ही इस मुद्दे पर कुछ ठोस और कारगर किया जा सकता है। इस अभिव्यक्ति और मंशा का खुलेपन से स्वागत किया जाना चाहिए। मीडिया को अगर हनुमान की जात का पता लगाने या नसीरुद्दीन शाह जैसे गंभीर कलाकार के एकदम साफ सुथरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और लोगों को उत्तेजना के भंवर में झोंकने से थोड़ी भी फुर्सत मिले तो छत्तीसगढ़ में हो रही इन कोशिशों को भी देश के सामने लाना चाहिए। यह स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए बहुत ज़रूरी खबर है।

मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही भूपेश बघेल ने झीरम घाटी की घटना की जांच के आदेश दिये और अगले ही रोज़ नक्सल समस्या को लोकतान्त्रिक ढंग से समझने और सुलझाने पर ज़ोर दिया। यह खबर इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि जिस झीरम घाटी की घटना के जांच के आदेश उन्होंने दिये हैं उस निर्मम हत्याकांड में प्रदेश कांग्रेस का लगभग पूरा नेतृत्व मारा गया था। इसमें शुरू से ही गंभीर साजिश की आशंका रही है जिसे रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने जांच के लायक भी नहीं समझा। हो सकता है जांच के बाद ऐसा कुछ हासिल न भी हो पर पिछली सरकार जिस तरह से जांच से बचती रही है उससे इस आशंका को बल ही मिला है। बावजूद इसके अगर सत्ता में आने के बाद कांग्रेस सरकार ने नक्सली हिंसा को लेकर उदार और जनतांत्रिक ढंग से निपटने की मंशा ज़ाहिर की है तो इसे लोकतन्त्र के लिए एक उदात्त परिघटना के तौर पर ही देखा जाना चाहिए।

अपनी कैबिनेट बनाने से पहले बस्तर में टाटा कंपनी के लिए अधिग्रहीत हुई 1700 हेक्टेयर ज़मीन मूल स्वामियों (आदिवासियों) को लौटाने के निर्देश ने भी उनकी इस स्वस्थ मंशा को आधार दिया है। इसके अलावा आदिवासी मंत्रणा परिषद के पुनर्गठन को प्राथमिकता से अपने शुरुआती कामों में लिया। अपने मंत्रिमंडल में बस्तर क्षेत्र से चार बार विधायक रहे कवासी लखमा को महत्वपूर्ण भूमिका देने से भी इस सरकार की नीयत को पुख्ता आधार मिलता है। लखमा इस संघर्ष क्षेत्र में ऐसे नेता के तौर पर जाने जाते हैं जो संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकते हैं। स्थानीय समुदायों का अपार भरोसा और उस क्षेत्र की हर नब्ज़ से वाकिफ मंत्री छत्तीसगढ़ सरकार की इस महत्वाकांक्षी लेकिन संभव रणनीति को धरातल पर ला सकेंगे, यह उम्मीद जताई जा सकती है।

मंत्रिपद की शपथ के साथ ही कवासी लखमा ने भी यह दोहराया कि बस्तर का विकास होगा और इस क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए गोली से नहीं बल्कि बातों से काम लिया जाएगा, हालांकि हिंदुस्तान की मीडिया ने उनके ठीक से शपथ न ले पाने को ही ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह दिखाया।

इस मंशा को क्रियान्वित करते समय मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को मध्य प्रदेश की आदिवासी नेता और नेता प्रतिपक्ष रहीं जमुना देवी द्वारा 11 सितंबर 2009 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे उस पत्र को पूरी तसल्ली से पढ़ना चाहिए जिसके मार्फत वह मौजूदा प्रधानमंत्री को नक्सल समस्या को लोकतान्त्रिक ढंग से हल करने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण व ठोस सुझाव देती हैं और कुछ बुनियादी सूत्र मुहैया कराती हैं।

अपने इस पत्र में जमुना देवी ने सबसे पहले इस सवाल पर विचार करने की गुजारिश की है कि “आखिर वो क्या कारण रहे कि पश्चिम बंगाल में जमींदारों के खिलाफ भूमि के वितरण को लेकर हुए हिंसक आंदोलन का विस्तार आदिवासी इलाकों में हुआ?” ज़मीन का बंटवारा एक कानूनसम्मत प्रक्रिया थी जिसे नेक इरादों के साथ लोगों को भरोसे में लेकर किया जाना था। अगर जमींदार इसमें सहयोग नहीं कर रहे थे तो यह सरकार का काम था कि अपने बनाए जमींदारी उन्मूलन के तहत भूमिहीनों को ज़मीन दिलाने की कार्यवाही करती। ऐसा नहीं होने पर नक्सल आंदोलन ने हिंसक रूप लिया और बड़े पैमाने पर इसने क्रांति का रूप ले लिया। बड़े पैमाने पर राजकीय दमन के बाद किसी तरह इस आंदोलन की आग पश्चिम बंगाल में तो शांत हुई पर यह देश के तमाम आदिवासी बहुल जंगल के क्षेत्रों में सघनता के साथ फैल गयी। आज नक्सल या माओवादी आंदोलन घने जंगलों में ही सीमित हो गया है।

हिंसा–प्रतिहिंसा अनवरत 35-40 साल तक इस समस्या को किसी सार्थक दिशा में नहीं ले जा सके। देश का एक तबका जो हमेशा संवाद की तरफदारी करता रहा वह बीते पंद्रह सालों में हाशिये पर चला गया और आज ‘अर्बन नक्सल’ के नाम पर जो हौव्वा खड़ा किया गया है उसमें इस वर्ग की आवाज़ का बिकाऊ मीडिया के सक्रिय सहयोग से अपराधीकरण ही किया जा रहा है। ऐसे में एक राज्य के मुख्यमंत्री जब पुन: संवाद की ज़रूरत पर बल देते हैं तो इस अपराधीकरण की कोशिशों पर भी नैतिक दबाव बनता है और इससे आगे बढ़कर जब भूपेश बघेल ने सभी पक्षों से परामर्श के रास्ते भी खोले हैं तब एक वृहत लोकतान्त्रिक फलक में इस समस्या का सार्थक समाधान दूर की कौड़ी नहीं लगती। बहरहाल।

जमुना देवी ने इस पत्र में ‘1950 के बाद हुए भूमि सुधारों की असफलता को बुनियादी कारण बताया है’ और इसके बाद वन विभाग के साम्राज्यवादी रवैये को जिम्मेदार ठहराया है। जिस तरह से अपनी सीमित शक्तियों के बल पर वन विभाग ने सामुदायिक वन संसाधनों पर एकतरफा नियंत्रण लिया और स्थानीय समुदायों के सदियों से चले आ रहे हक़ अधिकारों का न केवल हनन किया बल्कि लोगों को जबरन उनसे वंचित किया उससे इस हिंसक आंदोलन को इन इलाकों में जड़ें जमाने का भरपूर अवसर मिला। भारतीय गणराज्य जब अपने आरंभिक दौर में था तब से ही इन स्थानीय समुदायों का एक खास तरह का दृष्टिकोण निर्मित हुआ जो सकारात्मक तो कतई न था। उल्लेखनीय है कि इन दुर्गम इलाकों में राजसत्ता का एकमात्र प्रतीक वन विभाग ही था जिससे इन समुदायों को रोज बेइज़्ज़त होना पड़ा।

इसकी ऐतिहासिक वजह बताते हुए इस पत्र में जमुना देवी एडवोकेट अनिल गर्ग द्वारा किए गए अनुसंधान का हवाला देती हैं और बताती हैं कि दरअसल भूमि सुधार के लिए लाये गए क़ानूनों के माध्यम से देश के वन विभाग ने देश के एक बड़े जंगली भूभाग पर जबरन कब्जा किया। जंगल क्षेत्र में सदियों से रह रहे आदिवासियों की परंपरगत जीवन शैली और उनके सामुदायिक अधिकारों पर गंभीर चोट पहुंचाई। ऐसे आदिवासी समुदाय जो ठीक से अभी भारतीय गणराज्य का हिस्सा भी खुद को महसूस नहीं कर पाये थे उन्हें उन्हीं के संसाधनों से वंचित करने का काम वन विभाग ने किया। ऐसे में एक स्वाभाविक आक्रोश इन इलाकों में पनपा जिसने इन इलाकों में राजसत्ता के खिलाफ विचारधारा को मजबूत समर्थन दिया। हालांकि यह कहना तब भी बहुत मुश्किल है कि स्थानीय आदिवासी किसी हिंसक कार्यवाही में मुब्तिला हुए पर जरूर भारतीय गणराज्य के सबसे नजदीकी प्रतीक के रूप में वन विभाग की तमाम कार्यवाहियों ने उन्हें इस स्थिति में तो ला ही दिया कि वो इस हिंसक आंदोलन में आश्रय तलाश करने लगे।

आज इस नई सरकार ने यह उम्मीद तो जगाई ही है कि इस समस्या के बुनियादी कारणों की पड़ताल करने और उन्हें इतिहास के जिस कालखंड में दुरुस्त करने की ज़रूरत है वहाँ तक सोच विचार करने की कोशिश इस सरकार में खले इरादे से होगी। यह एक ऐतिहासिक अवसर है जो न केवल छत्तीसगढ़ के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक नज़ीर बन सकता है कि लोगों को उनके परंपरागत हक़ अधिकार देकर उनका भरोसा कैसे जीता जा सकता है। शांति की पहल न्यायसंगत ठोस जमीनी हालातों के निर्माण से हो सकती है इस बात को छत्तीसगढ़ सरकार अगर ध्यान में रखती है तो यह मुहिम निश्चित ही कामयाब होगी।

वन अधिकार (मान्यता) कानून, पेसा कानून, संविधान की पाँचवीं व ग्यारहवीं अनुसूची के साथ साथ सर्वोच्च न्यायालय के समता जजमेंट, नियमगिरी से संबद्ध निर्णय व 2011 में सामुदायिक संसाधनों पर आए निर्णयों को आधार बनाकर और प्रदेश के राज्यपाल को उनकी संवैधानिक प्रतिबद्धताएं याद दिलाकर इस युगांतरकारी मंशा को वाकई फलीभूत किया सकता है।     

लेखक सामाजिक आंदोलनों से जुड़ाव रखते हैं