पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं की दयनीय स्थिति और भारत के लिए सबक



खबर से जुड़े हमारे सरोकार उस खबर के लिए हमारी संजीदगी को निर्धारित करते हैं, मेरी समझ से मुझे अभी जिस खबर की बात करनी है उससे इस मुल्क के हर व्यक्ति का सरोकार होना चाहिए और इसके मतलब को संजीदगी से समझना चाहिए। खबर पाकिस्तान के सिंध प्रांत के एक शहर घोटकी से आई है।

सिंध कभी बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा था, जिसे अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के तहत बांट दिया और तब सिंध प्रांत अस्तित्व में आया। अंग्रेजों ने ऐसा मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना को खुश करने के लिए भी किया था ताकि एक मुस्लिम बहुल राज्य पर उनकी हुकूमत कायम हो सके। मुम्बई प्रेसिडेंसी से अलग हो कर अलग सिंध प्रान्त बनने के बाद से मुस्लिम लीग सिंध प्रान्त में अपना प्रभाव जमाने के लिये बेचैन थी। उस दौर की यह एक अजीब विडम्बना थी कि जहां एक तरफ बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुसलमानों पर मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना का प्रभाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता था वहीं मुस्लिम बहुल राज्य सिंध उनकी सुनने को तैयार नहीं था। जिन्ना की राह का सबसे बड़ा रोड़ा तत्कालीन मुख्यमंत्री इत्तेहाद पार्टी के अल्लाह बक्स सूमरो थे जो कांग्रेस के समर्थन से सरकार चला रहे थे। जिन्ना, अल्लाह बक्स को अपने पाले में कर सिंध में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए हर यत्न कर रहे थे जिससे कि मुसलमानों का एकमात्र नुमाइंदगी करने का उनका दावा मजबूत हो और पाकिस्तान की मांग मानने पर अंग्रेज मजबूर हो जाएं। लेकिन न तो अल्लाह बक्स जिन्ना को सुनने को तैयार थे न ही सूफी संतों की धरती सिंध ही उनकी सुन रही थी।

साधू वेला मन्दिर और मंजिलगाह मस्जिद विवाद के पश्चात पहले रोह्ड़ी-सक्कर और फिर पूरे सिंध में भड़की साम्प्रदायिक हिंसा की आग ने मुस्लिम लीग और जिन्ना को वह मौका दे दिया जिससे कि वे सिंध की हजारों वर्ष पुरानी साम्प्रदायिक समरसता के माहौल में जहर घोलने में कामयाब हो गये और पाकिस्तान बनाने की उनकी राह आसान हो गई। हिंदुस्तान के विभाजन और जिन्ना की राह में रोड़ा बनने की कीमत अल्लाह बक्स सुमरो ने अपनी जान दे कर चुकाई। खैर, इस पर विस्तार से कभी बाद में बात करूंगा।

बॉम्बे प्रेसिडेंसी का बॉम्बे हिंदुस्तान में शुरू की गई ‘पुनः नामकरण’ की अद्भुत योजना के तहत अब मुंबई है और एक जमाने में सूफी संतों के सान्निध्य में साम्प्रदायिक समरसता का मिसाल रहा पाकिस्तान का सिंध आज अकलियत हिंदुओं पर अत्याचार की रोज एक नई दास्तां सुनने को मजबूर है।

पिछले दिनों सिंध प्रांत के घोटकी शहर में एक मुस्लिम बच्चे मुहम्मद एहतिशाम की शिकायत के बाद उसके हिन्दू शिक्षक नोतन दास पर ईश निंदा कानून के तहत केस दर्ज कर दिया गया। बच्चे का कहना है कि पढ़ाई के दौरान शिक्षक ने मोहम्मद साहब के लिए कुछ अमर्यादित शब्दों के प्रयोग किए थे। यदि शिक्षक पर आरोप साबित होता है तो वहां के कानून के मुताबिक उन्हें सजा होगी। पाकिस्तान में ईश निंदा कानून का दुरुपयोग बहुसंख्यक मुस्लिम समाज द्वारा अल्पसंख्यक हिंदुओं ईसाइयों और अहमदियों के खिलाफ व्यक्तिगत दुश्मनी साधने के लिए खुलेआम होते रहा है। यह कानून सैद्धांतिक तौर पर तो सभी पाकिस्तानी नागरिकों को अधिकार देता है कि वे अपने धार्मिक आस्था पर ठेस पहुंचने की स्थिति में दोषी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कारवाई कर सकें लेकिन व्यवहारिक तौर पर इसका दुरुपयोग बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के द्वारा ही किया जाता है। इस कानून के तहत अब तक जेलों में बंद लोगों के आंकड़े इसकी साफ गवाही देते हैं। इस कानून की क्रूरता के खिलाफ पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों द्वारा आवाज उठती रही है, लेकिन जब भी कोई सरकार इसमें फेरबदल पर विचार करने की सोचती है कट्टरपंथी तत्व इसके खिलाफ सड़कों पर उतर जाते हैं।

ईश निंदा कानून से जुड़ा एक मामला पूरी दुनिया की नजर में तब आया था जब पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या एक कट्टरपंथी ने सिर्फ इसलिए कर दी थी क्योंकि वे ईश निंदा कानून के तहत गलत तरीके से जेल में बंद आसिया बीबी की फांसी की सजा माफ करने की मांग कर रहे थे। पाकिस्तान के समा टीवी पर मेहर बुखारी को इंटरव्यू देते हुए सलमान तासीर ने ईश निंदा कानून की आलोचना की थी और आसिया बीबी के रिहाई की वकालत की थी। इस इंटरव्यू के कुछ दिन बाद 4 जनवरी 2011 को सलमान तासीर के एक बॉडीगार्ड मलिक मुमताज कादरी ने इस्लामाबाद में उनके घर के पास एक-47 से 27 गोली दाग कर उनकी हत्या कर दी। कादरी को इसका कोई अफसोस भी नहीं था। तब कादरी का कट्टरपंथी तत्वों ने एक हीरो की तरह महिमामंडन किया था।

अभी जिस नोतन दास की गिरफ्तारी की मांग को लेकर पाकिस्तानी कट्टरपंथी इतना उग्र हो गए कि उन्होंने न सिर्फ तीन मंदिरों में तोड़-फोड़ मचाई और उसे तहस-नहस किया बल्कि वहां के हिंदुओं के घरों में घुसकर उनके साथ अत्याचार भी किया। वे पहले से ही ऐसे तत्वों के निशाने पर थे। दरअसल नोतन दास ने कुछ समय पहले एक हिंदू लड़की मोनिका के जबरन धर्मांतरण का पुरजोर विरोध किया था और उसे अपने यहां पनाह दी थी।

वहां से आ रही खबरों के मुताबिक नोतन दास का यह विरोध घोटकी के एक कट्टरपंथी मजहबी शख्सियत मियां मिट्ठू को बहुत बुरा लगा था और उन्होंने ही इस घटना की साजिश रची। मियां मिट्ठू सिंध में इस तरह की घटना को अंजाम देने के लिए पहले से कुख्यात हैं। घोटकी से 30 किलोमीटर दूर इनका विशाल साम्राज्य है जहां वे पूरे शान-शौकत से रहते हैं। हथियारबंद लोगों और गाड़ियों के काफिले के बीच चलने वाले मियां 2008 से 2013 तक पाकिस्तान के पार्लियामेंट के सदस्य भी रह चुके हैं।

इस बार के आम चुनाव के पहले मियां मिट्ठू के इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ से चुनाव लड़ने की चर्चा जोरों पर थी। इमरान खान के साथ इनकी एक तस्वीर भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक अंतिम समय में इमरान खान इनकी कट्टरपंथी छवि से हिचक गए और इन्हें अपनी पार्टी में शामिल नहीं किया। मियां मिट्ठू 2012 में भी सुर्खियों में तब आये थे जब इनकी शह पर एक स्थानीय हिंदू शिक्षक नंद लाल की नाबालिग बेटी रिंकल कुमारी का जबरन धर्म परिवर्तन करा कर नवीद शाह नामक मुस्लिम युवा से विवाह करा दिया गया था। उस वक्त भी पूरी घटना के सूत्रधार मियां मिट्ठू ही थे।

आज घोटकी शहर के पचास हजार अकलियत हिंदू दहशत के माहौल में अपने घरों में कैद हैं। अभी सिंध प्रांत पर लिबरल मानी जाने वाली बिलावल भुट्टो वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की हुकूमत है जो कि दोषियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने से इसलिए हिचक रही है कि कहीं सरकार को समर्थन देने वाले कट्टरपंथी तत्व नाराज न हो जाएं। पाकिस्तान में हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उसे जबरन मुस्लिम बनाकर शादी करने की घटनाएं चरम पर हैं, हिंदुओं का शोषण, उन पर अत्याचार आम बात है फिर भी वहां की सरकार मुतमइन है।

घोटकी की इस घटना के बीच ही लरकाना, सिंध के ही मेडिकल कॉलेज की हिंदू छात्रा नम्रता चंदानी की हत्या बर्बर तरीके से उसी के हॉस्टल में कर दी गई। इस छात्रा की हत्या कर इसे आत्महत्या करार देने की साजिश रची गई।

अब नम्रता चंदानी के परिवार वाले और पाकिस्तान के अकलियत हिंदू इंसाफ की मांग कर रहे हैं। इस तरह की घटनाएं हर रोज हैं, हर जगह हैं। वैसे वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों में कुछ अमनपसंद लोग भी हैं जो ऐसी घटनाओं का विरोध करते रहे हैं लेकिन इनकी आवाज सेना और सरकार द्वारा सामान्यतः अनसुनी कर दी जाती है।

जिस पाकिस्तान की स्कूली किताब बगैर हिंदू धर्म और हिंदुओं की आलोचना किये बिना, मजाक उड़ाए बगैर पूरी नहीं होती वहां के एक शिक्षक पर धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने के इल्जाम भर लगाने पर इस तरह का आतंक मचाना साबित करता है कि वह मुल्क किस हद तक बर्बादी के कगार पर है। विडम्बना देखिये कि जिस ईश निंदा कानून के तहत और जिस आधार पर पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमान हिंदू शिक्षक को फांसी देने की मांग कर रहे हैं, वे मंदिरों में तोड़-फोड़ मचाकर उसी ईश निंदा कानून का मखौल भी उड़ा रहे हैं। उनके अंदर यह निश्चिंतता पुलिस, सेना- जो  पाकिस्तान के असली शासक हैं- और सरकार की ढील के बगैर आ ही नहीं सकती। उन्हें पता है कि अल्पसंख्यक हिंदुओं और उनके धार्मिक स्थलों पर जुल्म कर वे बेदाग बच जायेंगे।

अपनी अगली किताब के रिसर्च के दौरान मुझे पाकिस्तान की जो भयावह सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति दिखी वह एक पल के लिए अविश्वसनीय था। दरअसल जिस किसी मुल्क में बहुसंख्यकवाद, धर्मान्धता चरम पर हो उसे नष्ट होने से, तबाह होने से बचा पाना असंभव है। विश्व इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें सिर्फ हिटलर की जर्मनी और बोको हरम, अलकायदा के प्रभाव वाले मुस्लिम बहुल मुल्क ही नहीं हैं।

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अब इस खबर से हमारे सरोकार की बात, जो कि एकदम साफ और स्पष्ट है। धर्म के आधार पर मुल्क निर्माण का अनोखा प्रयोग कर बना पाकिस्तान आज 70 साल बाद बहुसंख्यकवाद की आग में जलकर सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक रूप से बर्बादी के कगार पर खड़ा है और अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। इन्हीं 70 साल में धर्मनिरपेक्षता, सहनशीलता के बल पर हिंदुस्तान विश्व के चंद विकासशील से विकसित राष्ट्र बनने को अग्रसर राष्ट्रों में से एक है। जब धर्मान्धता, बहुसंख्यकवाद के दुष्परिणाम का इतना साफ उदाहरण हमारे पड़ोस में मौजूद है तो क्या आज हमें पूरी ईमानदारी से अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता नहीं है? क्या हमें स्वमूल्यांकन नहीं करना चाहिए कि हमारे मुल्क के बहुसंख्यक वर्ग का व्यवहार अकलियतों के साथ किस तरह का है?

क्या हमें यह देखना नहीं चाहिए कि कहीं हम भी तो कोई वैसी गलती नहीं कर रहे जो पाकिस्तान पिछले 70 वर्षों में करता रहा और आज इस दयनीय हालत में पहुंच गया? लगभग एक सी परिस्थिति में एक साथ चलने के पश्चात हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बिलकुल भिन्न निष्कर्ष, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति और वैश्विक प्रतिष्ठा में अंतर क्या यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि धर्मान्धता, बहुसंख्यकवाद और फासीवादी दृष्टिकोण किसी भी मुल्क के लिए किस हद तक घातक हो सकता है। और यह निष्कर्ष क्या हमें बार-बार आगाह नहीं कर रहा कि हम धर्मनिरपेक्षता जैसी अपनी मूल पूंजी को खोने की भूल नहीं कर सकते।

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यह बात सच है कि इस मुल्क के ऊपर भी 1984, 2002 जैसी तारीख़ों का कलंक है पर इसके बावजूद हमारा व्यवहार पाकिस्तान की तुलना में काफी संयत रहा है और तभी हमने इतनी प्रगति की, विश्व में प्रतिष्ठा पाई और महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हो पाये। लेकिन पिछले कुछ समय में इस मुल्क में अल्पसंख्यकों के साथ कभी गो-रक्षा के नाम पर तो कभी किसी अन्य वजह से हुई मॉब लिंचिंग की घटना न सिर्फ हमें शर्मसार और चिंतित करने के लिए काफी है बल्कि यह काफी हद तक पाकिस्तान के व्यवहार का नकल भी प्रतीत होता है और यदि ऐसा वास्तव में है तो क्या हम अपनी बर्बादी की कहानी खुद नहीं लिख रहे हैं? पाकिस्तान अपने बहुसंख्यकवाद से, उसकी परिणति से, अपनी दयनीय स्थिति से रोज हमें शिक्षा दे रहा है, हमें सतर्क होने का मौका दे रहा है- प्रश्न यह है कि हम इससे सीखने और समझने को तैयार हैं भी या नहीं?

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आज की दुनिया 1947 की दुनिया से बहुत तेज है। यदि हमारे अंदर पाकिस्तान सरीखा कोई तत्व मौजूद हो या हम उनकी नकल कर रहे हों तो यकीन मानिए हमें आज के पाकिस्तान की हालत में पहुंचने में उसके जितना वक्त नहीं लगेगा। यह हम पर निर्भर है कि 70 साल के शानदार सफर के पश्चात अब हम आने वाली पीढ़ियों के लिए किस तरह का मुल्क छोड़ कर जाते हैं। यह भी हमारे आज के व्यवहार पर निर्भर है कि आने वाले समय में वे हम पर फ़ख्र करेंगे या शर्मिंदा होंगे।


प्रभात प्रणीत लेखक हैं, पटना में रहते हैं