अयोध्याः पुराने विवाद पर मिट्टी डालना एक बात है, इंसाफ़ करना दूसरी बात



सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों द्वारा अयोध्या के ज़मीन विवाद के मुकदमे में ‘सर्वसम्मति’ से दिये गये फैसले पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, लेकिन सही-गलत से आगे भी कुछ सवाल हैं जिन पर बात करने की ज़रूरत है।

फैसला सुनाने से पहले शुक्रवार को प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक और प्रमुख सचिव से मिलकर कानून व्यवस्था की समीक्षा की। उसी रात नौ बजे के करीब सूचना आती है कि फैसला सुबह साढ़े दस बजे सुनाया जाएगा। इसके पहले दस दिनों से आरएसएस, केन्द्र और राज्य सरकार सबसे शांति की अपील कर रही है और भाईचारे की दुहाई दी जा रही है। उस वीएचपी के द्वारा भी, जो अपनी स्थापना के समय से कहती रही है कि न्यायालय उसकी आस्था को निर्धारित नहीं कर सकता। सवाल यह है कि आरएसएस और वीएचपी को किसकी तरफ से यह आश्वासन दिया गया था कि फैसला मंदिर के पक्ष में ही आएगा?

दूसरी बात, फैसला सुनाने से पहले प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई किस आधार पर उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव और डीजीपी से मिल रहे थे? अनुच्छेद 370 पर अभी तक वे फैसला क्या इसीलिए नहीं दे पाये हैं कि वहां के प्रमुख सचिव और डीजीपी से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी? क्या हर फैसला सुनाने से पहले वे राज्य के सबसे बड़े पदाधिकारियों से मिलते हैं?

कुछ अन्य बातों पर भी हमें विचार करने की ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मस्जिद बनाते समय वह ज़मीन खाली थी। कोर्ट का कहना है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के अनुसार उसके नीचे कोई गैर-इस्लामिक ढांचे का अवशेष था, लेकिन वह राम मंदिर नहीं था। कोर्ट ने यह भी माना कि बाबरी मस्जिद में 1949 में रामलला की मूर्ति रखी गयी। कोर्ट ने यह भी माना कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दिया जाना एक गैर-कानूनी कृत्य है।

कुल मिलाकर कोर्ट कह रही है कि राम मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद नहीं बनी थी। और अगर यह मान भी लिया जाय कि बाबरी मस्जिद के नीचे किसी प्रकार का कोई ढांचा था, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वह बौद्ध या जैन मंदिर था। चूंकि जैन धर्मांवलंबियों की तरफ से कोई दावा पेश नहीं किया गया था, सिर्फ बौद्धों की तरफ से दावा पेश किया गया था, इसलिए यह ज़मीन कायदे से बौद्धों को मिलनी चाहिए थी।

इसलिए, जो फैसला दिया गया है वह तात्कालिक रूप से विवाद पर मिट्टी डालने जैसा तो लग सकता है लेकिन कहीं से भी न्याय नहीं दिखता। बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला मंदिर के पक्ष में दिया है। इस फैसले का विरोधाभास हर जगह दिखाई पड़ने लगा है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना अपराध है। फिर कोर्ट का यह कहना कि बाबर के निर्देश पर मीर बाकी ने मस्जिद बनवायी थी।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने भी माना है कि बाबरी मस्जिद विध्‍वंस की कार्रवाई कानून का स्‍पष्‍ट उल्‍लंघन थी। कोर्ट ने यह भी सही कहा है कि भूमि के मालिकाने का फैसला तथ्‍यों व सबूतों के आधार पर ही होना चाहिए, धार्मिक आस्थाओं के आधार पर नहीं। इसके बावजूद समूची विवादित भूमि को केन्‍द्र के माध्‍यम से मंदिर बनाने के लिए देने और गिरा दी गयी मस्जिद के एवज में नयी मस्जिद बनाने हेतु 5 एकड़ भूमि किसी अन्‍य स्‍थान पर देने का फैसला सर्वोच्‍च न्‍यायालय की खुद की राय के साथ ही न्‍याय नहीं है।

गौर करने लायक बात यह भी है कि परंपरा से हटकर एक न्यायाधीश के जरिये जोड़े गये परिशिष्ट में हिन्दू मान्यताओं के आधार पर विवादित स्थल को राम जन्मभूमि साबित करने की कोशिश की गयी है। अपने फैसले में कोर्ट कहती है कि फैसला तथ्‍यों के आधार पर होना चाहिए, धार्मिक मान्‍यताओं के आधार पर बिल्‍कुल नहीं। अगर 1045 पेज के फैसले को देखें तो इसमें दो हिस्से स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। एक वह जिसमें तर्कसंगत बातें कहीं गयी हैं और दूसरा वह जिसमें हिंदू आस्था सारे तर्कों को काट रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा पहली बार नहीं किया है। लगभग इसी तरह का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने संसद भवन पर हुए हमले के मामले में लिया था। अफजल गुरू को फांसी की सज़ा सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इससे ‘समाज का सामूहिक विवेक संतुष्ट होगा’ जबकि अफ़ज़ल के खिलाफ केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे। यहां तो बाबरी मस्जिद विध्वंस के सबूत हैं। जब बाबरी मस्जिद बनी थी, उस समय वहां कोई मंदिर नहीं था (भले ही उसके नीचे किसी मंदिर का अवशेष रहा हो)। 1949 में रामलला को जब मस्जिद में रखा गया था तब तक वह पूरी तरह मस्जिद थी, फिर भी ज़मीन राम मंदिर को दे दी गयी। इसके बावजूद जो फैसला आया, उसमें एक बार फिर से समाज के “सामूहिक विवेक को संतुष्ट कर दिया गया”। क्या फैसला देते समय पांचों न्यायाधीशों को संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का खयल नहीं रखना चाहिए था, जो कहता है कि राज्य को सभी धर्मों से बराबर की दूरी बनाकर रखना चाहिए।

इस फैसले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि पांचों न्यायाधीशों ने इस बात को स्पष्ट रूप से कहीं नहीं कहा कि यह इस तरह का अंतिम मामला है और इससे आगे इस तरह के मामले में किसी विवाद को जगह नहीं दी जाएगी। इसके चलते इस देश के हजारों गैर-हिंदू ढांचों पर खतरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है, जिन्हें भाजपा और आरएसएस मानते हैं कि मंदिर तोड़ कर उन्हें बनाया गया। इसमें ताजमहल से लेकर तमाम मुग़लिया इमारतें शामिल हैं। काशी और मथुरा का नारा फैसले के दिन से ही दिया जाना शुरू हो चुका है।

किसी भी देश और समाज में न्यापालिका का यह कर्तव्य होना चाहिए कि न्‍याय सिर्फ मिले नहीं, बल्कि दिखे भी। बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने हमारे देश में न्याय की अवधारणा को पूरी हिलाकर रख दिया है।


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