क्या बोला राखीगढ़ी का कंकाल?

चंद्रभूषण चंद्रभूषण
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


प्राचीन भारतीय इतिहास को लेकर सौ साल पुरानी ‘बड़ी बहस’ जेनेटिक्स की मेहरबानी से दोबारा शुरू होने को है। सिंधु घाटी सभ्यता की एक मुश्किल यह रही है कि उसके कंकालों में जेनेटिक मटीरियल के नाम पर कुछ भी नहीं खोजा जा सका। पांच हजार साल पुरानी पुरातात्विक जैव प्राप्तियों में काम लायक डीएनए मिलने की अधिक संभावना बर्फीले इलाकों में ही हुआ करती है। लेकिन हरियाणा में हिसार की राखीगढ़ी साइट ने इस मामले में कमाल कर दिखाया है। यहां करीने से दफनाए गए एक कंकाल के कान की हड्डी में ठीकठाक जेनेटिक मटीरियल मिल गया, जिसकी स्टडी से पहला नतीजा यह निकला कि यह 2800 से 2300 ई. पू. के बीच की (यानी अब से लगभग साढ़े चार हजार साल पहले जीवित रही) किसी स्त्री का है।
दूसरा बड़ा निष्कर्ष यह कि इस जैव अवशेष में आर1ए1 मार्कर नदारद है। मध्य एशिया के पशुचारी समाजों से जुड़ी इस पहचान को आर्य चिह्न भी कहते हैं। मौजूदा उत्तर भारतीय आबादी से लेकर आधुनिक यूरोप तक की जैविक बनावट में यह सहज उपलब्ध है। इससे एक बात स्पष्ट है कि इस महिला की पैदाइश से पहले तक आर्य या तो भारत में आए नहीं थे, या उनके यहां हुए इतना वक्त नहीं गुजरा था कि स्थानीय लोगों के साथ उनके अंतरंग संबंध हों और उनके जैविक चिह्न यहां के लोगों में दिखाई पड़ने लगें। किसी बाहरी जाति के स्थानीय आबादी में घुलाव-मिलाव की दृष्टि से, यानी एक आम नमूने में दूसरे के जैव चिह्न दर्ज करने के लिहाज से इस अवधि को हम एक हजार साल मान कर चल सकते हैं। हालांकि ज्यादा सही अंदाजा तब होगा, जब जांच के लिए हमारे पास इसी साइट के आसपास जैव सामग्री उपलब्ध करा सकने वाला एक नमूना और उपलब्ध हो।
शोधकर्ताओं के अनुसार राखीगढ़ी के उक्त कंकाल में उत्तर के पशुचारियों के अलावा ईरान या तुर्की से आए पश्चिमी खेतिहरों का भी कोई चिह्न नहीं मिला है। यूं कहें कि यह शुद्ध भारतीय मनुष्य है, जिसकी निरंतरता बरकरार है। इसके आधार पर एक नतीजा यह निकाला गया है कि भारत में खेती पश्चिमी ईरान और तुर्की के उस अर्ध चंद्राकार इलाके (फर्टाइल क्रिसेंट) के प्रभाव स्वरूप नहीं आई है, बल्कि यह अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की तरह स्थानीय आबादी द्वारा स्वतंत्र रूप में विकसित की गई है। यह नतीजा फिलहाल तथ्य-समर्थित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके लिए हमारे पास पौधों और घासों को फसल में तथा जंगली जानवरों को पालतू जानवरों में बदलने (डोमेस्टिकेशन) के पर्याप्त आंकड़े होने चाहिए, जो फिलहाल नहीं हैं।
तीसरी चकित करने वाली बात यह कि इस कंकाल का जेनेटिक मटीरियल पूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान में मिले 11 समकालीन कंकालों से मिलता-जुलता है। इससे एक नतीजा यह निकाला जा सकता है कि राखीगढ़ी का यह दफनाया हुआ कंकाल बाहर से आकर हिसार के इलाके में बस गई किसी जाति का है। लेकिन पूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान के जिन 11 कंकालों की बात कर रहे हैं, उनका जेनेटिक ढांचा खुद अपने मौजूदा परिवेश के लिए ही पराया है। लिहाजा यह नतीजा निकालना ज्यादा सही होगा कि इस उत्तर भारतीय जाति का फैलाव ही अब से 4500 साल पहले पश्चिम-उत्तर में काफी दूर तक था।
राखीगढ़ी के कंकाल का जीवनकाल भारत में आर्यों के आगमन से हजार साल पहले का है, पर न जाने किस रौ में तीन में से एक शोधकर्ता डॉ. वसंत शिंदे ने इसे आर्य आक्रमण को खारिज करने वाली खोज बता दिया है! विस्तार में जाने पर वे अपने बात की धार पलटने की कोशिश करते हैं। इस रूप में कि यह जो कहा जाता रहा है कि भारत में सारा कुछ, यानी घोड़ा, लोहा, वेद वगैरह सारा कुछ बाहरी लोग ही लेकर आए, वह ठीक नहीं है। यह देश यहीं के लोगों का बनाया हुआ है, उन्हीं ने यहां खेती और बाकी सारी चीजों को विकसित किया वगैरह-वगैरह। आर्यों को स्थानीय निवासी और सिंधु घाटी की सभ्यता को उन्हीं की कृत बताने का प्रयास हिंदुत्ववादी धारा लगभग प्रारंभ से ही करती आ रही है। लेकिन राखीगढ़ी के कंकाल के जेनेटिक अध्ययन से जो सीमित निष्कर्ष निकलते हैं, उनके आधार पर ऐसा दावा हंसिए के ब्याह में खुरपी का गीत गाने जैसा ही लगता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)