गिरती उपभोक्‍ता मांग में बाढ़-सुखाड़ का तड़का, त्‍योहार भी नहीं सुधार पाएंगे आर्थिक हालात

राहुल कुमार
ख़बर Published On :

A road sign suggesting to be prepared.


अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने की आशंका के बीच उपभोक्‍ता मांग में कमी आने के संकेत मिलने लगे हैं। रिजर्व बैंक के सर्वे के अनुसार नौकरियों में छंटनी तथा आर्थिक हालात के और बिगड़ने की आशंका से देश के उपभोक्‍ताओं का भरोसा डिग रहा है। देश का कंज्यूमर कॉन्फिडेंस इंडेक्स जुलाई में घटकर 95.7 प्वाइंट रह गया है, तो फ्यूचर एक्सपेक्टेशंस इंडेक्स 4 प्वाइंट गिरकर 124.8 प्वाइंट पर आ गया है।

आरबीआइ हालांकि अपनी तरफ से कंज्यूमर डिमांड को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में तेजी लाने की कोशिश करता दिख रहा है। इसने उपभोग बढ़ाने के उद्देश्‍य से रेपो रेट में कटौती की है, ताकि अर्थव्यवस्था को कुछ रफ्तार मिल सके। रेपो रेट में 0.35 फीसदी की कटौती से न सिर्फ कर्जधारकों की ईएमआइ सस्ती होंगी, बल्कि कर्ज सस्ता होने से उद्योग-धंधों की रफ्तार बढ़ाने में मदद भी मिल सकती है।

भारतीय रिजर्व बैंक का कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे यह बताता है कि जुलाई में भारतीय परिवारों के बीच नौकरी और आर्थिक हालात को लेकर अनिश्‍चय है। सर्वे के अनुसार करेंट सिचुऐशन इंडेक्स मई के 97.3 प्वाइंट की तुलना में जुलाई में 95.7 प्वाइंट रह गया है। यह इंडेक्स मार्च में 104.6 प्वाइंट था। महज 4-5 महीने में करेंट सिचुऐशन इंडेक्स में तेजी से गिरावट आना अर्थव्यवस्था को लेकर आम भारतीय परिवारों में बढ़ती घबराहट को भी दिखाता है। कई कंज्यूमर कंपनियां यह मानती हैं कि लोगों के खरीदारी पैटर्न में जरूरी सामानों की प्राथमिकता बढ़ी है और वे गैर-जरूरी सामानों की खरीदारी से बच रहे हैं। कंपनियां यह भी मानती हैं कि आने वाले दिनों में देश भर में त्योहारों का सीजन शुरू हो रहा है। ऐसे में कंपनियों को आने वाले दिनों में कंज्यूमर इंडेक्स में सुधार आने की उम्मीद है।

इसके बावजूद देश भर के अलग-अलग हिस्सों में बाढ़ और सुखाड़ का असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। इससे आने वाले त्योहारों पर कंज्यूमर डिमांड में तेजी आएगी, इसकी संभावना कम ही है। मार्केट रिसर्च कंपनी नीलसन इंडिया की रिपोर्ट ’’इंडिया एफएमसीजी ग्रोथ स्नैपशॉट’’ के अनुसार ग्रामीण इलाकों में पिछले साल अप्रैल-जून तिमाही में एफएमसीजी प्रोडक्ट का डिमांड ग्रोथ 12.7 फीसदी था, जो इस साल समान तिमाही में घटकर 10.3 फीसदी रह गया है। यही नहीं, डिमांड ग्रोथ में कमी आने की रफ्तार भी शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में करीब करीब दोगुना है।

सवाल उठता है कि कंज्यूमर इंडेक्स में आई गिरावट की वजह क्या है? क्या दुनिया में जारी उथल-पुथल का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है या इसके आंतरिक कारण हैं? गौरतलब है कि मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में अर्थव्यवस्था से जुड़े तीन बड़े कदम उठाए थे। पहला नोटबंदी, दूसरा जीएसटी और तीसरा रेरा। एक तरह से कहा जाए तो सरकार ने रिफॉर्म को लेकर धड़ाधड़ कई कदम उठाए। यह बात सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 की आर्थिक मंदी वाले हालात से नहीं गुजर रही है, लेकिन बिना तैयारी के सरकार के उठाए कदमों का नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।

इसकी तस्दीक सरकार की भीतर बैठे नीति निर्धारक करते हैं। देश की नीतियों को तय करने वाली संस्था नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत भी मानते हैं कि सरकार के उठाए कदमों से अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है। अब तो बड़े बड़े उद्योगपति और बैंकर्स भी अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली को लेकर अपनी चुप्पी तोड़ रहे हैं। रियल एस्टेट सेक्टर के सबसे बड़े लेंडर एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख हों या इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी एलएंडटी के प्रमुख अनिल मनिभाई नायक या फिर बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज और आरबीआइ के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन हों, सभी बड़े चेहरे सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना करने लगे हैं।

अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखा जाए तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, लेकिन हम अपनी जरूरतों का बड़ा हिस्सा आयात से पूरा करते हैं। इसके उलट चीन न सिर्फ अपनी जरूरतों को अपने यहां के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को मजबूत कर पूरा करता है, बल्कि दुनिया के मार्केट में भी अपने उत्पादों को पहुंचाने का हरसंभव प्रयास करता है। हम मोबाइल सेक्टर में भी देशी कंपनियों को बढ़ावा देने में असफल रहे। कुछ समय पहले तक माइक्रोमैक्स जैसी कंपनियां तेजी से आगे बढ़ रही थीं, लेकिन चीन की कंपनियों ने भारत के मोबाइल बाजार को पूरी तरह तबाह कर दिया। यही हाल फोटो वोल्टेइक, टेलीकॉम गियर, ऑटोमोबाइल तकनीक मार्केट का है। सूरत, तमिलनाडु से लेकर नोएडा में टेक्सटाइल इंडस्ट्री हांफ रही है। टेक्सटाइल इंडस्ट्री का प्रोडक्‍शन लगातार घट रहा है, तो दूसरी तरफ बांग्लादेश से चुनौती बढ़ती जा रही है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की लगातार खस्ताहाल की बुनियाद सरकार के पिछले कार्यकाल में ही पड़ चुकी थी। इसकी सच्चाई छिपाने के लिए सरकार ने आंकड़ों से हरसंभव छेड़छाड़ की। यह बात कई अवसरों पर साबित हो चुकी है। जाहिर है अर्थव्यवस्था की पतली हालत को आंकड़ों की बाजीगरी से नहीं सुधारा जा सकता है। सरकार न सिर्फ आंकड़ों से बाजीगरी कर रही थी, बल्कि आरबीआइ पर भी अनावश्‍यक दबाव भी बना रही थी। आरबीआइ के रिजर्व फंड पर सरकार की नजर पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के समय से ही है। राजन के साथ विवाद बढ़ने पर सरकार उर्जित पटेल को लेकर आई और अब शक्तिकांत दास आए हैं। यह अलग बात है कि शक्तिकांत दास भी सरकारी प्रयासों को खारिज करते हुए अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने होने की बात खुलेआम कह चुके हैं।

इस बीच डॉलर की तुलना में रुपया कमजोर पड़ रहा है। इसका असर न सिर्फ आयात पर पड़ रहा है, बल्कि शेयर बाजार पर भी पड़ रहा है। घरेलू शेयर बाजार में सूचीबद्ध सभी कंपनियों का कुल मार्केट कैप (बाज़ार पूंजीकरण) 2 लाख करोड़ डॉलर से नीचे गिरकर 1.95 लाख करोड़ डॉलर पर पहुंच गया है। मोदी सरकार के दूसरे बजट के बाद अभी तक भारतीय शेयर बाजार को 250 अरब डॉलर का झटका लग चुका है। दुनिया भर के शेयर बाजारों में भारतीय शेयर बाजार का प्रदर्शन पिछले एक महीने में सबसे खराब रहा है।


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