जिनसे मिलकर मजबूत होता है विश्वास: अहिंदी प्रदेश में हिंदी के एक लेखक से परिचय


उन्होंने दशकों पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की थी और उसके बाद उन्होंने अनेक पुस्तकों और लेखों का हिंदी अनुवाद किया जिसका प्रकाशन साहित्य अकादमी ने किया


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विनीत तिवारी 

प्रगतिशील लेखक संघ  की आंध्र प्रदेश इकाई के 18वें राज्य सम्‍मेलन में 8 और 9 दिसंबर, 2018 को मुझे मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था। मैं तेलुगु साहित्य का कोई छोटा-मोटा भी अध्येता नहीं लेकिन श्री श्री, चेराबंडा राजू, मखदूम मोइउद्दीन, राजबहादुर गौड़, और बाद के दिनों में वरवरा राव की क्रन्तिकारी उर्दू, हिंदी और तेलुगु कविताओं के अनुवाद भी पढ़कर एक दिलचस्पी तो रही ही है जानने में। और जब  हैदराबाद, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच एक ही राजधानी था, तब मखदूम के बेटे नुसरत मोइउद्दीन और उनके क़रीबी दोस्त और हिंदी के कवि स्वाधीन ने चारमीनार और हैदराबाद की मीठी जुबां के अलावा भी हैदराबाद से खासी मोहब्बत पैदा कर दी थी। 

हालाँकि ये सब पहचानें आज ज़्यादा तेलंगाना के हिस्से की हैं लेकिन कौन इस तरह जुड़ी हुई पहचानों को जुदा कर सकता है, और कौन होगा जो तेलंगाना के हैदराबाद, गोलकुंडा और भद्राचल से मोहब्बत करके आंध्र के श्रीकाकुलम और तिरुपति से मुँह मोड़ सकता है। आंध्र के ही ऐतिहासिक शहरों विजयवाड़ा और गुंटूर तथा कृष्णा के अपने आकर्षण हैं।  

सबसे पहले मुझे आंध्र प्रदेश की प्रगतिशील लेखक संघ की इकाई की सक्रियता के बारे में गुंटूर के लेखक साथी और प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव पेनुगोंडा लक्ष्मीनारायण के मार्फ़त ही जानकारी मिली थी। और चकित करने के लिए वो जानकारी भी पर्याप्त थी। 

प्रकाशन के क्षेत्र में आंध्र प्रदेश की प्रलेस इकाई देश की बाकी सभी इकाइयों से कहीं आगे है और इससे बाकी इकाइयों को सीखने की ज़रुरत है। उन्होंने 1973  से अभी तक 150 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनमे आंध्र प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के इतिहास से लेकर पिछले सौ वर्षों में तेलुगू में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, सर्वश्रेष्ठ कविताएँ, सर्वश्रेष्ठ नाटक, अनेक युवा और वरिष्ठ लेखकों के संग्रह और देश-विदेश के स्तर पर चल रहीं साहित्यिक बहसों एवं विचार- विमर्शों को  प्रकाशित किया है। अकेले गुंटूर ज़िले की इकाई ने ही 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। विशाखापत्तनम ज़िले ने क़रीब 25 पुस्तकें, कड़पा ज़िले की इकाई ने 5, कुर्नूल इकाई ने 2, कृष्णा ज़िले की इकाई ने 4  और इसी तरह अन्य ज़िला इकाइयों ने भी कुछ-कुछ प्रकाशन किये हैं। अनेक पुस्तकें राज्य की केन्द्र इकाई से प्रकाशित की गईं हैं। निश्चित ही इस बड़े काम के पीछे बहुत से साथियों का सहयोग रहा होगा। लेकिन मेरी अपनी सीमाओं की वजह से मैं इस कार्य के पीछे पेनुगोंडा लक्ष्मीनारायण, तेलुगु के प्रमुख कहानीकार-उपन्यासकार वल्लूरु शिवप्रसाद, वरिष्ठ आलोचक राच्छपालम चंद्रशेखर रेड्डी और कुछ ही लोगों को जानता हूँ। मेरे ख्याल से वल्लुरु शिवप्रसाद और  राच्छपालम चंद्रशेखर रेड्डी  तेलुगु साहित्य अकादमी के सम्मान से भी सम्मानित हैं। 
इस पुस्तक प्रकाशन अभियान में केवल पुस्तकें ही प्रकाशित नहीं की जातीं, बल्कि उन्हें सस्ते दामों पर पाठकों को उपलब्ध कराया जाता है और प्रलेस की ओर से अनेक ज़िलों में एक सप्ताह से लेकर १ माह तक के पुस्तक मेले पूरे राज्य में आयोजित किये जाते हैं जिनसे किताबें छापने से लेकर लोगों तक पहुँचाने का वृत्त पूरा होता है। 

इसलिए जब मैं गुंटूर जा रहा था तो इन साहित्यिक आंदोलनकारियों  को सलाम करने भी जा रहा था। लेकिन वहाँ पहुंचकर मुझे और भी कुछ ऐसा मिला जिसने मेरी  जानकारी और तेलुगु आरसम के प्रति सम्मान और बढ़ गया। 

वहाँ मुझे मिले एक बुजुर्गवार जिनका नाम था तक्कोलु माचि रेड्डी। उन्होंने हिंदी में मुझसे बात की और बताया कि उन्होंने दशकों पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की थी और उसके बाद उन्होंने अनेक पुस्तकों और लेखों का हिंदी अनुवाद किया जिसका प्रकाशन साहित्य अकादमी ने किया। तेलुगु के महाकवि कहे जाने वाले श्री श्री के सर्वाधिक चर्चित कविता संग्रह “महाप्रस्थानम” का हिंदी अनुवाद किया। निराला और मुक्तिबोध के अनेक निबंधों का हिंदी अनुवाद किया जिसका संकलन केंद्रीय साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया। उन्होंने लम्बे समय आकाशवाणी के केन्द्र निदेशक के रूप में काम किया और 2004 में वे सेवानिवृत्त हुए। 

उन्होंने मुझे अपनी दो किताबें भी भेंट कीं। उनमें से एक किताब प्रगतिशील लेखक संघ, कड़पा इकाई, आंध्र प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गयी थी और उसका प्रकाशन 1984 में हुआ था। किताब का शीर्षक आकर्षक है “हिंदी और तेलुगु की कविता में बिंब-विधान”। और दूसरी किताब थी साहित्य अकादमी से ही प्रकाशित राचमल्ल रामचंद्र रेड्डी जिन्हें “रारा” के नाम से जाता है, उनके रचनाकर्म पर केंद्रित पुस्तक “भारतीय साहित्य के निर्माता – रारा” जिसका लेखन और अनुवाद दोनों ही माचि रेड्डी ने किया है। रारा ने बाल साहित्य का सृजन करने से लेकर आलोचना, अनुवाद, पत्रकारिता, कहानियाँ, नाटक अदि लिखे हैं।  श्री श्री उन्हें ‘क्रूर आलोचक’ कहा करते थे। उन्हें 1988 का साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया था। 

बात चली तो उन्होंने ये दर्द भी व्यक्त किया कि अब लोग पढ़ते कम हैं। पहले, उनके ज़माने में एक एक किताब पढ़ने के लिए लोग कितना भटका करते थे। उन्होंने मुझसे ये भी कहा कि उनके पास “हिंदी और तेलुगु की कविता में बिंब-विधान” की क़रीब 50 प्रतियाँ उपलब्ध हैं जिसकी क़ीमत मात्र रुपये 35.00 है और वे चाहते हैं कि वो हिंदी के ऐसे पाठकों तक पहुँच सके जो उसे वाक़ई पढ़ना चाहते हैं। वे उसे डाक से या कुरियर से भेजने का कष्ट भी उठाने को तैयार हैं बशर्ते लोग उसे पढ़ना चाहें। 

मैं यह वाकया लिखकर हिंदी साहित्य के अपने दोस्त पाठकों, लेखकों तक ये जानकारी तो पहुँचाना ही चाहता हूँ कि ऐसी किताब माचि रेड्डी के पास उपलब्ध है और साहित्य अकादमी में रारा की किताब भी उपलब्ध है। साथ ही मैं ये अपील भी दोस्तों से करना चाहता हूँ कि हम माचि रेड्डी जी को इस ख़ुशी का एहसास करवाएँ कि उनके इस श्रम साध्य शोधपूर्ण काम में हमारी भी दिलचस्पी है। न केवल दिलचस्पी है बल्कि एक गैर हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी और तेलुगु के बीच साहित्य के पल का काम करने के लिए हमारे दिलों में उनकी इज़्ज़त भी है। 

यहाँ मैं माचि रेड्डी जी का डाक का पता और फ़ोन नंबर दे रहा हूँ। जो उनसे संपर्क करेंगे, ख़त लिखेंगे, फ़ोन करेंगे, पुस्तक बुलाएँगे और पैसे भेजेंगे, उनके लिए तो ढेर सारा आभार। लेकिन जिन्होंने मेरी ये पोस्ट पढ़ी और इस तरह माचि रेड्डी को, श्री श्री को, रारा को, पेनुगोंडा लक्ष्मीनारायण को, गुंटूर और आंध्र प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ (आरसम) की गतिविधियों को जाना, उनका भी धन्यवाद। 

डॉ. तक्कोलु माचि रेड्डी 40/39-2, मुत्थुरासु पल्ली,जिला – कड़पा (आंध्र प्रदेश). पिन – 516002, मोबाइल – 96666 26546 


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