पुस्‍तक अंश: जब नेहरू ने कहा भगत सिंह की हर घर में पूजा हो रही है

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भगत सिंह की फांसी के तुरंत बाद कराची में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ. यहां महात्मा गांधी ने खुद भगत सिंह की शहादत पर एक प्रस्ताव पेश किया. इस प्रस्ताव को कांग्रेस में रखने की जिम्मेदारी नेहरू ने निभाई. गांधी का प्रस्ताव रखते समय भगत सिंह के बारे में नेहरू ने 29 मार्च 1931 को जो कहा, वह तारीखी है,

‘‘जनाबे सदर, भाइयो और बहनो,

आप सब लोग अब मेहरबानी करके खामोश हो जाइए. आप इन नारों को भी बंद कीजिए. अगर आप चाहते हैं कि आप खुद सुन सकें तो आप खामोशी अख्तियार करें, तभी आप कुछ सुन सकते हैं.

अब मैं आपके सामने यह प्रस्ताव पेश करता हूं. आप सब जानते हैं यह रेजूलेशन रंज का रेजूलेशन है. मैं आप लोगों को इसे पढ़कर सुना देता हूं.

मुनासिब तो यह था कि यह प्रस्ताव कोई और साहब पेश करते. मैं इस रेजूलेशन को पेश करने के मौजूं नहीं हूं. यह मुनासिब था कि जिनके हाथ में इस वक्त कांग्रेस की बागडोर है, जो इस वक्त कांग्रेस के सच्चे मायने में प्रतिनिधि हैं और मैं आपको यह भी बतला देना चाहता हूं कि जिन्होंने यह रेजूलेशन लिखा है, वही इसे पेश करते. सबसे मुनासिब था इसको रखने के लिए उन्हें आना चाहिए था, जो आज संसार में अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी हैं और जिन्होंने संसार को अहिंसा व्रत का नया नमूना दिखाया है. वही आपके सामने आकर इस रेजूलेशन के जरिए उस बहादुर लड़के की तारीफ करते, जो तारीफ के काबिल है. वह ऐसा जरूर करते, उन्हीं के हाथों से यह लिखा गया है, लेकिन कुछ ऐसा हो रहा है कि कांग्रेस का सारा काम उन्हीं के ऊपर पड़ रहा है. रात-दिन उन्हें कांग्रेस के काम में मशगूल रहना पड़ता है, कांग्रेस का काम उन पर इतना बढ़ गया है कि उन्हें होश भी नहीं मिलता. इन सब वजूहात को देखते हुए यह मुनासिब समझा गया था कि हर दफा उन्हें ही तकलीफ नहीं देनी चाहिए. वह कांग्रेस के काम में मशगूल रहने के सबब से यहां आ भी नहीं सकते. इस वजह से यह रेजूलेशन मुझे दिया गया है कि इसे पेश करूं. मैं इसे पेश करता हूं.

जब से लाहौर से यह खबर आई है, हम सब लोगों की एक अजीब हालत हो गई है. जहां सब के सब यह उम्मीद किए थे की मुल्क की आवाज पर गवर्नमेंट जरूर ख्याल करेगी, वहां नतीजा दूसरा ही निकला. मेरे दिमाग में एक अजीब हसरत हो गई है. मेरे दिमाग में परेशानी कायम रहती है. समझ में नहीं आता ऐसा हम अब क्या करें. यहां हम इकट्ठे हुए हैं. हमारे सबके अंदर एक अजीब परेशानी है. यह एक सदमा खत्म हुआ नहीं कि अभी कानपुर से एक खतरनाक खबर और आई. आप सब अखबारों में पढ़ चुके होंगे कि कानपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगा हो रहा है. सैकड़ों आदमियों की जानें जा रही हैं. क्या हम बिल्कुल पागल हो रहे हैं. समझ में नहीं आता कि हम क्या सोच रहे हैं. क्या इन्हीं झगड़ों से हम स्वराज्य लेंगे. कानपुर में सैकड़ों बेकसूर आदमी मारे जा रहे हैं. गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान की खबर हमें मिल रही है. उनकी लाश का भी पता नहीं है. उनकी शक्ल मेरे सामने रहती है. हर वक्त आंखों के सामने गणेश शंकर विद्यार्थी की शक्ल घूमती रहती है. इतना ही नहीं इस पिछली लड़ाई में हमारे कितने आदमी काम आए, जगह-जगह गोलियां चलीं, लाठियां बरसाईं, डंडे पड़े. पेशावर में गोलियां चलीं, सैकड़ों आदमी मरे. सोलापुर में मार्शल लॉ लागू हुआ, गोलियां चलीं, आदमी मारे गए. इतना ही नहीं और दसों जगह गोलियां चलीं. गवर्नमेंट ने कोई कमी नहीं रखी. भगत सिंह की फांसी से मुल्क में एक अजीब लहर फैल गई है. क्या वजह है कि आज भगत सिंह का नाम सबकी जुबान पर चढ़ा हुआ है. भगत सिंह का नाम क्या कीमत हमारे लिए रखता है. आज भगत सिंह सबका सबका प्यारा हो रहा है. गांव-गांव का बच्चा इसका नाम जानता है. आज घर-घर में इसके नाम की चर्चा है. इसकी कोई वजह जरूर है. भगत सिंह क्या था. वह एक नौजवान लड़का था. उसके अंदर मुल्क के लिए आग भरी थी. वह शोला था. चंद महीनों के अंदर वह आग की एक चिंगारी बन गया, जो मुल्क में एक कोने से दूसरे कोने तक आग फैल गई. मुल्क में अंधेरा था, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता था, वहां अंधेरी रात में एक रोशनी दिखाई देने लगी. हमारा यानी कांग्रेस का प्रोग्राम साफ है. हम कहते हैं कि शांति से हम काम करेंगे. हम शांति कायम रखने की हर एक कोशिश करते हैं. हम चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करें. हमारे रास्ते में अड़चनें लगाई जा रही हैं. क्या भगत सिंह की फांसी से मुल्क में अशांति नहीं फैलेगी.

हमने शांति के तरीकों को छोड़कर दूसरे तरीकों की हमेशा बुराई की है. आज भी हम वही कार्यवाही करेंगे. आज हम फिर शांति के सामने सिर झुकाते हैं. इस रेजूलेशन में हमने यह लिखा है कि हम भगत सिंह इत्यादि के तरीकों से अलहदा हैं, लेकिन हम उनकी बहादुरी के सामने सिर झुकाते हैं. हम अजहद बहादुरी के सामने सिर झुकाना चाहते हैं. हम जानते हैं कि भगत सिंह के मुकदमे में कानूनी ज्यादिती हुई है. उनका मामूली अदालत से ही मुकदमा करना चाहिए था. मुल्क ने इस बात के रेजुलेशन पास किए कि स्पेशल अदालत न खड़ी की जाए, लेकिन एक भी सुनाई नहीं हुई. मुकदमा ठीक-ठाक नहीं हुआ. वायसराय का ऑर्डिनेंस निकला कि स्पेशल अदालत इस मुकदमे को सुनेगी. मामूली अदालत से उनके मुकदमे की सुनवाई नहीं होने दी. क्या यही कानून के अंदर फैसला कहलाता है.

मेरी समझ में तो नहीं आता कि यह फैसला कैसा फैसला हो सकता है. भगत सिंह एक खास राह पर चलने वाला था. उसका अपना प्रोग्राम अलहदा था. मुल्क के लिए बहुत लोगों ने कुर्बानियां की हैं और कर रहे हैं, फिर भगत सिंह का नाम आज सब की जबान पर इतना क्यों है. इसका सबब है. साहब, बात तो यह है कि वह मैदान में साफ लड़ने वाला था. जिस दिलेरी के साथ भगत सिंह मैदान में आया वह सब जानते हैं.

साफ बात तो यह है कि वह दुश्मन के सामने खुले मैदान में आया. उसकी बहादुरी इसलिए और भी ज्यादा बढ़ जाती है. आज हम देखते हैं कि भगत सिंह की तस्वीर घर-घर लगी है. लोग उनकी तस्वीर पोशाक में पहनते हैं. बटनों में उनकी तस्वीर लगी हैं.

मतलब यह है कि आज भगत सिंह की सब जगत में पूजा हो रही है. बच्चा-बच्चा उसका उसका नाम पुकारते हैं. यह रेजूलेशन यही कहता है कि हम उसके बहादुराना कामों की तारीफ करें. हां, जरूर यह हमारे लिए गौरतलब बात है कि वह किस राह पर चलता था. क्या वह रास्ता हमारे लिए ठीक था या नहीं. हम इस प्रस्ताव में यही कहते हैं: उसकी बहादुरी बड़ी भारी थी, जिसकी हम दिल से तारीफ करते हैं, लेकिन जिस रास्ते को यह लोग ठीक समझते थे, कांग्रेस उस रास्ते को ठीक नहीं समझती. हम यह बतला देना चाहते हैं कि हम यहां तमाशे के लिए इकट्ठा नहीं हुए हैं. हमने लाखों रुपए खर्च करके यहां तक आना तय किया. किसलिए? कुछ काम करने के लिए. हम आज यहां यह तय कर रहे हैं कि हमारा क्या प्रोग्राम है और रहेगा. आज हम तय करें कि हमें देश को किधर ले जाना है. जब हम दूरदराज से इकट्ठे हुए हैं तो कुछ करने के लिए. इसमें यही लिखा है कि हम भगत सिंह और उसके साथियों की बहादुरी की तारीफ करते हैं, लेकिन हम उनके अमल के तरीके से अलहदा रहते हैं. हम तो साफ-साफ कहते जाते हैं कि गोलीबारी से हम अपने मुल्क को आजाद नहीं करा सकते. इसके हक में भी बोलने वाले आएंगे और शायद कोई तरमीम भी पेश हो. यह सब होगा, लेकिन आप गौर करें कि आप क्या करने जा रहे हैं. आप अपने रास्ते को समझ लें.

जहां तक यह सवाल है कि भगत सिंह के लिए कांग्रेस ने क्या किया और हम भगत सिंह की कितनी इज्जत करते हैं तो आपको मालूम ही होगा कि इसकी अजहद कोशिश की गई कि यह लोग सजा से माफ कर दिए जाएं, चाहे जन्म कैद रखी जाए. लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. मेरे दिल में भगत सिंह के लिए जो इज्जत है, वह आपसे किसी से कम नहीं है. भगत सिंह का रास्ता दूसरा ही था. हमें गांधी जी ने एक नई राह दिखलाई, उससे हमें फायदा हुआ या नहीं यह आप खुद समझ सकते हैं. पिछले एक साल की लड़ाई ने हमें बतला दिया है कि हम गांधी जी की राह पर चलने से कितने आगे बढ़े. इन पिछले 12 महीनों में हमने मुल्क की कितनी तरक्की की. एक कोने से दूसरे कोने तक लड़ाई छिड़ी थी और सब लोग लड़ाई में मशगूल थे. औरतें और बच्चे खुशी से जेलों के अंदर दाखिल हुए. यह क्यों हुआ. बस हमारे लिए एक ही राह है और वह राह है जो है जो महात्मा गांधी ने हमें दिखलाई यानी अहिंसा की राह.

मेरी आदत कुछ छुपाने की नहीं है. मैं तो साफ-साफ कहता हूं कि गांधीजी की राह से ही हमें आजादी मिलेगी. हमने अगर शांति के रास्ते को छोड़ा तो हम बरसों तक भी आजाद नहीं हो सकते. शांति के रास्ते को छोड़कर चलने से ज्यादा कोई बुराई की बात नहीं है. मेरी अपनी राय है और बहुत साफ है की तशद्दुद से हमें आजादी नहीं मिल सकती. मेरा पूरा यकीन है कि इस रास्ते को पकड़कर अपना भला नहीं कर सकते. जो यह समझते हैं की तशद्दुद काम चल सकता है, वे गलती पर हैं. जो ऐसा कहते हैं, उन्होंने अभी इसके नतीजों पर गौर नहीं किया है. हिंसा का रास्ता हमारे मुल्क के लिए बड़ा खतरनाक है. इससे मुल्क में तबाही आ जाएगी. भाई पर भाई जुल्म करेगा. कहीं यह न होने लगे कि भाई-भाई पर तलवार चलाने लगे. मेरी समझ में यह कहा गया है कि हिंसा के रास्ते पर हम अपने इतने बड़े मुल्क को साथ नहीं ले सकते. एक ही रास्ता हमारे लिए है और वह है असहयोग का. इसलिए मैं इसरार करता हूं कि आप अच्छी तरह से समझ कर रेजूलेशन पर अपनी राय कायम करें.

मैंने यह रेजूलेशन इसलिए पेश करना ठीक समझा कि मैं असहयोग की लड़ाई को बहुत ऊंचे दर्जे की लड़ाई समझता हूं. मैं इसी वजह से यह रेजुलेशन पेश कर रहा हूं. इसमें साफ-साफ लिखा है कि हम हिंसा से कतई अलग हैं. इस प्रस्ताव का एक ही मतलब है कि अगर आप उसे मंजूर करते हैं तो आप असहयोग के रास्ते को ठीक समझते हैं, इसलिए आप कोई दूसरा रास्ता अख्तियार न करें.

मैं इस बात को बहुत अच्छा नहीं समझता हूं कि हम कहें कुछ और करें कुछ. यह आदमियत से बाहर है कि कहें कुछ और करें कुछ. अगर हम अपने मुल्क को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो हमेशा साफ तरीकों के साथ चलना पड़ेगा. अगर मसले का फैसला करना है तो साफ कीजिए. शायद यह बात की जाए कि जब हमने हिंसा के खिलाफ अपना रास्ता तय किया है तो फिर इस रेजूलेशन के लाने की क्या जरूरत है. यह ठीक है और गलत भी है. जब हम लंबे सफर पर चले हैं तो एक-एक पड़ाव पर आगे बढ़ते रहे हैं. नामालूम अभी कितने पड़ाव बाकी हैं. अभी तो हमारा सफर शुरू ही हुआ है. हमने लड़ाई शुरू की और आज उसका नतीजा क्या हुआ. आज सुबह की स्थिति नजर आती है. हमें तो आजादी हासिल करने के लिए अपने आपको तैयार करना ही है. बड़ी-बड़ी तैयारियां करनी पड़ेंगी. सो हमें तो तैयार होना ही है. हमारा पड़ाव अभी लंबा है और हमें अभी अपने मकसद पर पहुंचने तक बहुत से रास्तों पर गिरना पड़ेगा. हमारा फर्ज है कि हम गिरें, तो दूसरों के लिए रास्ता साफ कर दें और उन्हें ठीक रास्ता दिखा दें. हम बतलावें कि इस मुल्क में जिंदादिल रहते हैं. यह मैं कह सकता हूं कि मुल्क जिंदादिल है. आप अच्छी तरह से इस रेजूलेशन पर गौर करें, तब अपनी राय कायम करें. मेरी ख्वाहिश है कि मुल्क जल्दी आजाद हो.’’

नेहरू ने जो बातें कहीं, उन्हें गांधी और नेहरू दोनों की बात समझना चाहिए. कराची में यह बिरला संयोग ही था कि गांधी के प्रस्ताव को नेहरू पढ़ रहे थे. इसमें वे गांधी की बात भी कह रहे थे और अपनी बात भी कह रहे थे. और दोनों ही बातें आपस में गुंथकर एक हुई जा रही थीं. लेकिन वे दो विचारधाराओं को नहीं गुंथने दे रहे थे. उन्होंने भगत सिंह की बहादुरी के सम्मान में हर वह बात कही जो उनके दिल में और भारत के दिल में उमड़ रही थी, लेकिन साफ कहा कि भगत सिंह का रास्ता अलहदा है. अच्छे से अच्छे काम के लिए की गई हिंसा पलट कर हमारे ऊपर आती है. हमें गांधी के अहिंसा के रास्ते पर चलना है.

यह बड़े सौभाग्य की बात है कि देश नेहरू की बात पर आज तक टिका हुआ है. हममें से ज्यादातर लोग सरदार भगत सिंह का पूरा सम्मान करते हैं. लेकिन जब आंदोलन की बात आती है तो अहिंसा के साथ ही जाते हैं. देश में जब-जब कोई आंदोलन होता है तो जब तक वह अहिंसक रहता है, उसे जनसमर्थन मिलता है, लेकिन हिंसा शामिल होते ही जनता उससे दूर होने लगती है.

देश में इस समय माओवादियों और नक्सलवादियों के आंदोलन और कश्मीर में चल रहे आंदोलन में हिंसा की प्रधानता है. लेकिन दोनों जगह पूरी जनता हथियार लेकर इन आंदोलनों के साथ खड़ी नहीं हो गई है. हां, कश्मीर में मारे गए आतंकवादी के जनाजों में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं. लेकिन इस दौरान बड़ी हिंसा देखते को नहीं मिलती. जो दूसरे नौजवान आतंकवादियों से प्रेरित होकर बंदूक उठाते हैं, वे भी जल्दी ही मार दिए जाते हैं. बंदूक उनके आंदोलन कमजोर से कमजोर बनाती जा रही है और वह भारत के बड़े जन समूह की सहानुभूति भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं. अगर कश्मीर के ये लड़के और वामपंथी चरमपंथ की तरफ मुड़े लड़के सामाजिक आंदोलनों की तरफ चलें तो स्थिति पलट सकती है.

आखिर इसी देश में तो हमने बहुत से राजनैतिक दलों के उभरने के अहिंसक आंदोलन देखे हैं. आज दलित और आदिवासियों के पास अपनी पार्टियां हैं. इन दोनों वर्ग से ज्यादा वंचित तबका कौन सा था या है. यही गांधी का रास्ता है, यही अमन का रास्ता है. हालांकि इसमें वह सनसनी नहीं है, जो कंधे पर बंदूक रखने से आती है. इसलिए इस सनसनी से बचना जरूरी है. इसीलिए नेहरू की तरह भगत सिंह को सलाम करना और गांधी की उंगली पकड़कर चलना ही हमारा सत्य है.

पुस्तक: नेहरू- मिथक और सत्य

लेखक: पीयूष बबेले

प्रकाशक: संवाद प्रकाशन मेरठ

मूल्य: 300 रुपये


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