मुनाफ़ाख़ोर कंपनियों ने नहीं बनायी कोरोना की दवा- माइक डेविस 

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
ख़बर Published On :


कोरोना के इस महा-काल में दुनिया उन प्रयोगशालाओं की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रही हैं जहाँ इसका टीका या दवा बनाने के लिए प्रयोग हो रहे हैं। मानव जाति की जिजीविषा ने अतीत में ऐसे न जाने कितने मुक़ाबले किये हैं। लेकिन कारोबार की दुनिया जिस तरह मुनाफ़े की हवस का शिकार हो चुकी है, उसकी वजह से इस स्वाभाविक निष्कर्ष पर सवाल उठने  लगे हैं। जाने-माने अमेरिकी लेखक ने कहा है कि दुनिया का हाल देखते हुए इस दवा को बनाना मुनाफ़े का सौदा नहीं होगा, इसलिए इसे बनाने में कोई रुचि नहीं लोगा।

माइक डेविस के अनुसार एक दवा वर्षों प्रभावी हो तो उसका उत्पादन फायदेमंद नहीं होगा. यह वैसे ही है कि कोई ऐसी डिजाइन बन जाए जो वर्षों चलने वाली हो तो क्या कोई कंपनी ऐसी कार बनाएगी? उन्होंने बताया कि 2005 में एच5एन1 एवियन फ्लू फैलने के बाद अमेरिका में बुश प्रशासन ने इसकी दवा बनाने के लिए कदम उठाए थे. पर बीमारी कम हुई तो दिलचस्पी भी खत्म हो गई. उसके बाद से ही कार्रवाई की मांग नियमित रूप से होती रही है.

माइक डेविस ने यह चिंता मिस्र के ऑनलाइन अखबार मेदतमिस्र (madamasr.com)  को दिये एक इंटरव्यू में जतायी है। अख़बार ने कोरोना वायरस के कारण फैली महामारी को ठीक से समझने के लिए अमेरिकी लेखक, इतिहासकार और राजनीतिक कार्यकर्ता माइक डेविस से बात की. सिटी ऑफ क्वार्ट्ज, प्लैनेट ऑफ स्ल्मस, इकोलॉजी ऑफ फीयर और द मोनस्टर ऐट आवर डोर: द ग्लोबल ऑफ एवियन फ्लू समेत 20 पुस्तकों के लेखक माइक डेविस कैलिफोर्निया विश्विवद्यालय में जाने माने एमेरिटस प्रोफेसर हैं और मैक आर्थर फेलोशिप तथा गैर फिक्शन लेखन के लिए लैननन साहित्य पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं.

माइक डेविस ने जो कहा है अगर वह आशंका सच हुई तो कोरोना का क़हर इंसान के लिए बहुत भारी पड़ने वाला है। भारत जैसे देशों के लिए स्थिति बेहद ख़तरनाक़ हो सकती है जहां स्थिति दिनो दिन बिगड़ती जा रही है। ताली-थाली जैसे टोटके कितना असर करेंगे, इसे समझना मुश्किल नहीं है। उधर लॉकडाउन भी गले की हड्डी बनता जा रहा है, जारी रहा तो लोग भूख से मरेंगे वरना कोरोना तो काल बन ही रहा है।

कोरोना के प्रसार के मामले में भारत अभी दुनिया के कई देशों से पीछे है लेकिन संकेत अच्छे नहीं हैं। ख़बर लिखे जाने तक भारत में 5916 कोरोना केस आ चुके हैं जिनमें 506 ठीक हो चुके हैं जबकि 178 लोगों की मौत हो चुकी है। भारत में 532 केस एक्टिव  हैं। दुनिया भर में 88505 लोग कोरोना के चलते अब तक जान से हाथ धो चुके हैं जबकि 15 लाख से ज्यादा लोगों के संक्रमित होने की पुष्टि हो चुकी है।

कोरोना का संक्रमण तेजी से फैलता है और स्थिति गंभीर होने पर संभालना मुश्किल हो जाता है. बचने का सबसे सबसे आसान तरीका है दूर-दूर रहना. भारत में इसे सोशल डिसटेंसिंग कर जा रहा है पर असल में यह एक दूसरे के शरीर से दूर रहना है. आप किसी के नजदीक न जाएं, हाथ न मिलाएं, उसके छींकने-खांसने के छींटे आप तक नहीं पहुंचे तो आपको संक्रमण नहीं होगा. उम्मीद की जाती है कि संक्रमित लोगों की संख्या कम रखने और इससे जल्दी छुटकारा पाने का यही तरीका है. यह कल्पना करना भी डरावना है कि भारत में गरीबों और झुग्गियों में फैल गया तो कैसे संभलेगा.बच्चों के कुपोषण और भीषण ग़रीबी के कारण इससे मुकाबला मुश्किल हो सकता है। शायद इसीलिए न्यूयार्क टाइम्स में पिछले दिनों छपी एक ख़बर के मुताबिक भारत में एक करोड़ लोगों की जान कोरोना की वजह  से ख़तरे में है।

इस बातचीत में अखबार ने इस तरह के वायरस पैदा होने, इनके उद्गम और नए वायरस के प्रकार और विकास आदि के बारे में पूछने के बाद माइक डेविस से यह जानना चाहा कि इनके लिए वैक्सीन (प्रतिरोधक दवा या टीका) का विकास क्यों नहीं हो पाया है. अमेरिका के ही नहीं, दुनिया के नामी विद्वान नोम चोमस्की ने पिछले दिनों कहा था कि इसके लिए कोशिश नहीं की गई, पर माइक डेविस ने कहा कि तकनीकी तौर पर ऐसी दवा बन सकती है लेकिन बड़ी फार्मा कंपनियां ऐसी दवा क्यों बनाना चाहेंगी?

माइक डेविस के अनुसार एक दवा वर्षों प्रभावी हो तो उसका उत्पादन फायदेमंद नहीं होगा. यह वैसे ही है कि कोई ऐसी डिजाइन बन जाए जो वर्षों चलने वाली हो तो क्या कोई कंपनी ऐसी कार बनाएगी? उन्होंने बताया कि 2005 में एच5एन1 एवियन फ्लू फैलने के बाद अमेरिका में बुश प्रशासन ने इसकी दवा बनाने के लिए कदम उठाए थे. पर बीमारी कम हुई तो दिलचस्पी भी खत्म हो गई. उसके बाद से ही कार्रवाई की मांग नियमित रूप से होती रही है.

माइक के अनुसार वैक्सीन डिजाइन करने के क्षेत्र में क्रांति हुई है और कोविड पर विजय के लिए अनुसंधान में वृद्धि के बाद फ्लू के लिए वैक्सीन का विकास होना चाहिए. इस मामले में एक ही बात तय है कि कोई बड़ी दवा कंपनी इसका विकास नहीं करेंगी.

अभी तक यह बीमारी बच्चों और किशोरों में नहीं हुई है. पर जिन देशों में दवाइयों तक लोगों की पहुंच न्यूनतम है और पोषण का स्तर बहुत खराब है, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है और प्रतिरक्षा प्रणाली खराब हो चुकी है वहां स्थिति और होगी तथा उम्र का लाभ अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई झुग्गियों में बहुत कम होगा. यह भी संभवाना है कि यहां संक्रमण का तरीका बदल जाए और बीमारी की प्रकृति को नया रूप मिले.

एक अन्य सवाल के जवाब में माइक डेविस ने कहा कि समाज के हर वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक, इस तरह की महामारी की स्थिति में सरकारें अनावश्यक रूप से दमनकारी नीतियां अपनाती हैं और खुद डरी होने के कारण प्रगतिशील उपायों की भी अनुमति देती हैं. उदाहरण के लिए आयरलैंड में अस्पतालों का सरकारीकरण कर लिया गया है जबकि अमेरिका में अस्थायी तौर पर लोगों की आय का स्तर कायम रखा जा रहा है. ऐसे में संघर्ष का नया मंच मिलता है. इसमें एक राजनीतिक लड़ाई शुरू होती है और दक्षिण पंथी पार्टियां संकट के अंदर भी, पूंजीवादी एजेंडा तय करने की कोशिश करती हैं जबकि वामदल स्थायी सुधार जैसे सबके लिए इलाज लागू करवाने की कोशिश करते हैं.

माइक डेविस की राय में पूरी स्थिति को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है, कि सभ्यता से संबंधित हमारे समय का यह संकट मुख्य रूप से पूंजीवाद द्वारा ज्यादातर लोगों के लिए आय पैदा नहीं किए जाने के कारण है. आवश्यकता इस बात की है कि लोगों के पास काम हो और उनकी अर्थपूर्ण सामाजिक भूमिका हो, जीवाश्म ईंधन से होने वाला उत्सर्जन समाप्त हो और क्रांतिकारी जैविक प्रगति को जन स्वास्थ्य में बदला जाए.

इन सभी संकटों का केंद्र एक है और उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है और इन्हें एक साथ इनके मुश्किल रूप में ही देखने की जरूरत है, अलग-अलग मामलों की तरह नहीं. इसी बात को अच्छे से कहना हो तो कहा जा सकता है कि आज का सुपर पूंजीवाद हमारी भिन्न प्रजातियों के बने रहने के लिए आवश्यक, उत्पादक शक्तियों के विकास में एक बड़ी बाधा बन चुका है. नोम चोमस्की ने भी कहा है कि हम कोरोना से तो निपट लेंगे पर परमाणु बम और जलवायु से संबंधित खतरों से नहीं निपट सकते हैं.


प्रस्तुति: संजय कुमार सिंह


Related