मेरी गिरफ़्तारी के पीछे RSS ! अपनी बारी आने से पहले बोलें- आनंद तेलतुम्बड़े

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विचारक और लेखक आनंद तेलतुंबड़े ने 14 अप्रैल, आंबेडकर जयंती के दिन एनआईए के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी ज़मानत की मियाद बढ़ाने से इंकार कर दिया था। उन पर माओवादियों के साथ संपर्क का आरोप है पर इसके लिए पुलिस ने हास्यास्पद क़िस्म के सबूतों को आधार बनाया गयाहै। आनंद तेलतुंबड़े, डॉ.आंबेडकर की प्रपौत्री रमा के पति हैं। वे भारत पेट्रोलियम के प्रबंधक,आईआईटी कानपुर में प्रोफेसर, आईआईएम अहमदाबाद के एल्युमनी और पेट्रोलियम इंडिया लिमिटेड के सीईओ रहे हैं। वर्तमान में गोआ इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं।उन्होंने गिरफ़्तारी देने से पहले जनता के नाम एक पत्र जारी किया है जिसका एक-एक शब्द बताता है कि भारत कैसी विकट स्थिति में फंस गया है जहाँ असहमति के हर स्वर को देशद्रोही बताकर कुचला जा सकता है। इस पत्र को बड़े पैमाने पर प्रसारित किया जाना चाहिए- संपादक 
 

आनंद तेलतुंबड़े का पत्र

 

मैं जानता हूँ कि मेरी बात भाजपा-आरएसएस गठबंधन और गोदी मीडिया के नक्कारखाने में तूती साबित हो सकती है, पर फिर भी मुझे लगता है कि यही मौका है आपसे बात करने का। इसके बाद पता नहीं यह मौका मिले या न मिले।

अगस्त 2018 में, जब  ‘गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के फैकल्टी हाउसिंग कॉम्प्लेक्स’ स्थित मेरे आवास पर पुलिस ने  छापा मारा, तो उसके बाद मेरी दुनिया पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गई । मेरे साथ असलियत में वह हो रहा था जो मैंने किसी बुरे से बुरे सपने में भी नहीं भुगता था। हालांकि, पहले से ही मुझे पता था कि जहाँ-जहाँ मैं भाषण देने जाता हूँ, खासकर विश्वविद्यालयों में, पुलिस आयोजकों को मेरे बारे में पूछताछ करके परेशान करती है। मुझे, फिर भी लगता था कि पुलिस मेरे और मेरे भाई, जो कई साल पहले घर छोड़ कर चला गया था, को लेकर गलती कर बैठती है। 

जिन दिनों मैं आई.आई.टी खड़गपुर में पढ़ाता था, उसी दौरान बीएसएनएल के किसी अधिकारी ने मुझे फोन किया। उस अधिकारी ने मुझे बताया कि वह मेरा प्रशंसक और शुभचिंतक है। उसने मुझे यह भी बताया कि मेरा फोन टैप किया जा रहा है। मैंने उस अधिकारी का शुक्रिया अदा करने के अलावा कुछ नहीं किया। यहाँ तक कि अपना सिम भी नहीं बदला। हालांकि मुझे इस तरह घुसपैठ से कोफ़्त हुई, लेकिन मैं फिर भी अपने आप को यह सोचकर तसल्ली दे रहा था कि चलो ऐसा करके पुलिस को भी समझ आ जायेगा कि मैं एक आम आदमी हूँ और मेरे आचरण में कहीं कोई गड़बड़ नहीं हैं। पुलिस आम तौर पर नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को नापसंद करती है क्योंकि ये पुलिस पर ही सवाल उठाते हैं। मुझे लगा कि क्योंकि मैं भी सवाल उठाने वाली बिरादरी से हूँ, इसीलिए मेरे साथ ऐसा हो रहा है। एक बार फिर, मैंने खुद को तसल्ली दे दी कि पुलिस वाले समझ जायेगें कि दिन भर अपने काम-धंधे में लगे रहना वाला मेरे जैसा आदमी भला कोई ऐसा-वैसा काम क्यों करेगा।   

पर  जब एक सुबह मेरे ही संस्थान के निदेशक का फोन मुझे आया और उन्होंने मुझे बताया कि कि पुलिस ने परिसर में छापा मारा है और वे मेरी तलाश कर रहे है तो कुछ क्षणों लिए मैं अवाक रह गया। मैं किसी आधिकारिक काम से मुंबई आया था और मेरी पत्नी थोड़ी ही देर पहले पहुँची थी। जब मुझे, कुछ और व्यक्तियों के जिनके घरों पर उस दिन छापा मारा गया था, की गिरफ्तारियों के बारे में पता चला, तो मैं इस अहसास से हिल गया था कि मैं तो बाल-बाल बचा हूँ। पुलिस को पता था कि मैं कहाँ हूँ, मुझे तभी गिरफ्तार किया जा सकता था। पर मुझे उस समय गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया, इस बारे में तो पुलिस ही बता सकती है। 

सुरक्षा-गार्ड से जबरन डुप्लीकेट चाबी लेकर पुलिस ने हमारा घर खुलवाया और उसमें विडियोग्राफी करने के बाद घर पर ताला लगवा दिया। इसके बाद हमारी कठिन परीक्षा का दौर शुरू हुआ। वकीलों की सलाह पर, मेरी पत्नी ने गोवा वापसी के लिए अगली उपलब्ध उड़ान ली, और बिचोलम पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई कि पुलिस ने हमारी अनुपस्थिति में हमारा घर खोला है। और अगर पुलिस ने हमारी अनुपस्थिति में हमारे घर पर कुछ रखा या किया है तो उसके लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगें।  पुलिस को अगर और कोई पूछताछ करनी हो तो इसके लिए उसने स्वेच्छा से हमारे सब टेलीफोन नंबर भी उन्हें दे दिए।

हैरत की बात है कि इस मामले में माओवादी कोण जोड़कर पुलिस ने प्रेस-वार्ताएं करनी शुरू कर दीं। गोदी मीडिया की मदद से मुझे गिरफ्तार करने के बाद, पुलिस साफ़ तौर पर, मेरे बारे मे जनता में पूर्वाग्रह फैलाने के इरादे से ऐसा कर रही थी। इसी तरह की एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस 31 अगस्त 2018 को भी हुई। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस  में एक अन्य गिरफ्तार व्यक्ति के कंप्यूटर से निकाले गए एक पत्र को मेरा पत्र बताया गया। अनाड़ी सी शैली में लिखे इस पत्र में मेरे द्वारा किसी शैक्षणिक सम्मेलन में भाग लेने का ज़िक्र था। यह जानकारी अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ पेरिस की वेबसाइट पर पहले से ही उपलब्ध थी। शुरू में मैंने इसे हंसी में उड़ा दिया, बाद में मैंने इस अधिकारी के खिलाफ दीवानी और आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर करने का फैसला किया। 5 सितंबर 2018 को प्रक्रियानुसार इसकी मंजूरी के लिए एक पत्र महाराष्ट्र सरकार को भेजा। सरकार की ओर से आज तक इसका कोई उत्तर नहीं आया है। हालांकि, उच्च न्यायालय द्वारा फटकार लगाए जाने के बाद पुलिस ने इस तरह की प्रेस-वार्ताएं बंद दीं।

यह कोई छुपी हुई बात नहीं थी कि इस पूरे प्रकरण के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ था। मेरे मराठी मित्रों ने मुझे बताया कि उनके एक कार्यकर्ता रमेश पातंगे ने अप्रैल 2015 में मुझे निशाना बनाते हुए पांचजन्यमें एक लेख लिखा था। इस लेख में अरुंधति रॉय और गेल ओमवेट के साथ मुझे एक मायावी अम्बेडकरवादी बताया गया।  हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार मायावी‘ का अर्थ है दानव, जिसका संहार होना है।

पुलिस ने जब मुझे अवैध रूप से गिरफ्तार किया, (वह भी तब जब मुझे सर्वोच्च न्यायालय का संरक्षण प्राप्त था़) इस दौरान एक हिंदुत्ववादी साइबर गिरोह ने विकिमीडिया पर मेरे नाम से बने एक पेज को संशोधित कर इस पर मेरे बारे में ऊंट-पटांग जानकारियां भर दीं। यह एक सार्वजनिक पेज है और वर्षों से मुझे इस पेज के बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी। उन्होंने सबसे पहले तो इस पेज पर दी गई सारी जानकारी को मिटा दिया और उस पर सिर्फ ये पंक्तियां प्रकाशित कर दी “इसका भाई माओवादी है… इनके घर पर छापा पड़ा था… माओवादियों के साथ संबंधों के कारण उन्हें  गिरफ्तार किया गया”, वगैरह। कुछ छात्रों ने बाद में मुझे बताया कि जब भी उन्होंने पृष्ठ को पुनर्स्थापित अथवा संपादित करने की कोशिश कीयह गिरोह फिर से या तो सब कुछ मिटा देता या फिर इस पर कुछ अपमानजनक टिप्पणियां लिख देता। अंततः, विकिमीडिया ने हस्तक्षेप किया और पृष्ठ को उनकी कुछ नकारात्मक सामग्री के साथ स्थिर कर दिया। 

आरएसएस के तथाकथित नक्सल-विशेषज्ञों के माध्यम से मीडिया मेरे खिलाफ बेबुनियाद समाचारों की बमवर्षा करने लगा। मैंने इन चैनलों के खिलाफ, इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन सहित तमाम जगहों पर शिकायतें भेजीं पर कहीं से भी कोई साधारण प्रतिक्रिया तक नहीं मिली।

अक्टूबर 2019 में खुलासा हुआ कि मेरे अलावा और भी कई लोगों के फोन पर सरकार द्वारा एक अत्यंत खतरनाक जासूसी स्पाइवेयर पेगासस लगाया गया है। मीडिया में थोड़े समय के लिए इस पर ख़ासा हंगामा हुआ पर जल्दी ही इतना संगीन मामला कहीं दफन हो गया।

मैं एक साधारण व्यक्ति हूं। हमेशा अपने लेखन से, जितनी मेरी क्षमता है, लोगों में ज्ञान बांट उनकी मदद करते हुए, ईमानदारी से अपने रोज़ी-रोटी कमाता रहा हूं। लगभग 5 दशकों से, मेरा एक शिक्षक के रूप में, एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में और एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में, इस देश की सेवा का एक बेदाग रिकॉर्ड है। 30 से अधिक पुस्तकों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित कई पत्रों / लेखों / टिप्पणियों / स्तंभों / साक्षात्कारोंमें  हिंसा अथवा किसी भी विध्वंसक आंदोलन के समर्थन के बारे में कभी एक भी शब्द नहीं लिखा है। लेकिन अपने जीवन के अंतिम छोर पर, मुझ पर UAPA यानि आतंकवाद निरोधी कानून के तहत गंभीर अपराध का आरोप लगाया जा रहा है।

यह तय है कि मेरे जैसा व्यक्ति सरकार और उसके अधीन मीडिया के उत्साही प्रचार का मुकाबला नहीं कर सकता। पूरे मामले का विवरण इंटरनेट पर बिखरा हुआ है और किसी भी व्यक्ति के लिए यह समझना बेहद आसान है कि इस पूरे मामले को किस अनाड़ीपने और आपराधिक तरीके से गढ़ा गया है। ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजुकेशन (AIFRTE) की वेबसाइट पर इस बारे में एक नोट उपलब्ध है। आपकी जानकारी के लिए उसका एक अंश मैं यहां लिखना चाहूंगा:

पुलिस ने इस मामले में गिरफ़्तार 2 व्यक्तियों के कंप्यूटरों से कथित रूप से 13 पत्र बरामद किए हैं। मुझे इन में से पांच पत्रों के आधार पर फंसाया गया है। मेरे पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ।  इन पत्रों में आनंदनाम का जिक्र आता है और आनन्द नाम भारत में अत्यंत प्रचलित है। पुलिस ने निर्विवाद रूप से मान लिया कि यह आनन्द मैं ही हूं। इन पत्रों की शैली और सामग्री को विशेषज्ञों और सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने रद्दी करार दिया। पूरी न्यायपालिका में सिर्फ यही एक न्यायाधीश थे, जिन्होंने सबूत की प्रकृति की बात की। इन पत्रों की विषय-वस्तु में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसके आधार पर इसे सामान्य अपराध भी माना जा सके। लेकिन यू.ए.पी.ए जैसे अधिनियम के कठोर प्रावधानों, जिनके तहत आरोपी को बचाव का तक मौका नहीं है, का आश्रय लेकर मुझे जेल भेजा जा रहा है। 

(आनंद तेलतुम्बड़े गिरफ्तारी देने से पहले परिजनों के साथ)

 

पूरे मामले को इस तरह समझा जा सकता है:

अचानक पुलिस की एक टुकड़ी आपके घर में दाखिल होती है, और बिना किसी वारंट के, घर की चीजों को की तलाशी लेते हुए इधर-उधर बिखेरना शुरु कर देती है। इस कार्रवाई के बाद आप को गिरफ्तार करके हवालात में डाल दिया जाता है।

अदालत में, पुलिस कहती है कि xxx जगह (भारत की कोई भी जगह हो सकती है) पर चोरी (या किसी अन्य शिकायत) के मामले की जांच करते समय पुलिस को yyy नाम के व्यक्ति ( इस व्यक्ति का नाम कुछ भी हो सकता है) से एक पेन ड्राइव या एक कंप्यूटर बरामद हुआ था, जिसमें कुछ ऐसे पत्र मिले हैं, जो एक प्रतिबंधित संगठन के एक कथित सदस्य द्वारा लिखे गए थेऔर इन पत्रों में zzz नाम के एक व्यक्ति का उल्लेख था और  पुलिस के अनुसार यह zzz नाम का व्यक्ति आप ही हैं, कोई और नहीं। अचानक आप पाते हैं कि आपकी दुनिया पलट गई है, आपकी नौकरी चली जाती है, आपके परिवार से घर छिन जाता है, मीडिया आपको गालियां देना शुरू कर देता है और आप कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। पुलिस जजों के सामने कुछ बंद लिफाफे प्रस्तुत कर कहती है। जजों को यकीन दिलाया जाता है कि प्रथम दृष्टया आपके विरुद्ध एक मुकदमा बनता है और पूछताछ के लिए के लिए पुलिस आपकी कस्टडी की मांग करती है। कोई बहस नहीं; आपके द्वारा प्रस्तुत किसी सबूत पर गौर नहीं किया जाएगा और जज कहेंगे कि आपके सबूतों को मुकदमे की कार्रवाई के दौरान देखा जाएगा। हवालात में पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जाएगा। आप जमानत की अर्जी देंगे तो यह अर्जी कोर्ट द्वारा खारिज कर दी जाएगी। आंकड़े बताते हैं इस तरह के मामलों में आपको जमानत मिलने अथवा बरी होने में 4 से 10 साल लग जाते हैं। और ऐसा किसी के साथ भी सचमुच में हो सकता है।

राष्ट्रके नाम पर बनाये गये ऐसे कठोर क़ानून निर्दोष लोगों को उनकी स्वतंत्रता और सभी संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देते हैं। राजनीतिक वर्ग द्वारा, ध्रुवीकरण के इरादे से, कट्टरता और अंधराष्ट्रवाद को हथियार बनाकर असहमति के स्वरों को कुचला जा रहा है। 

बड़े पैमाने पर फैले इस उन्माद ने विचलन की प्रक्रिया को पूरा कर शब्दों के अर्थों को पलट कर रख दिया है। राष्ट्र के विध्वंसक अब देशभक्त हैं और लोगों के निस्वार्थ सेवक देशद्रोही। मैं देख रहा हूं कि मेरा भारत नष्ट हो रहा है। इस विकट समय में मैं मामूली सी उम्मीद के साथ आपको यह पत्र लिख रहा हूं। खैर, मैं एनआईए की हिरासत में जा रहा हूं और मुझे नहीं पता कि अब मैं आपसे कब बात कर पाऊंगा। हालाँकि, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले ज़रूर बोलेंगे।

 



अनुवाद- कुमार मुकेश

 

 


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