संगम पर ‘संघर्षदीप’ : इलाहाबादी झुग्गियों ने रोक दिया योगी का बुलडोज़र !

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इलाहाबाद उच्च न्यायलय के ताज़ा फैसले ने फूँक दी जान शहरी मेहनतकशों के आंदोलन में।

कुम्भ 2019 की तैयारियों में टूट रही हैं दुकानें और घर, पर शान से सर उठाये खड़ी हैं झोपड़ियाँ।

अंशु मालवीय


महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के निवास  के रूप में पहचाने जाने वाले मोहल्ले दारागंज की एक सड़क जो दशाश्वमेध घाट,गंगा तक जाती है पर बहुत चहल-पहल थी। …छोटा  सा मंच बँधा था ,लाउडस्पीकर पर भाषण चल रहे थे,फूल- मालाएँ पहनाई जा रही थीं और ताज़ी मीठी बुँदियाँ बँट रही थी। मौक़ा था एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण जीत का। एक दिन पहले यानी इलाहबाद उच्च न्यायालय में संगम क्षेत्र में स्थित झोपड़पट्टियों के मुक़दमे पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने आदेश दिया था कि झोपड़पट्टियाँ नहीं उजाड़ी जाएँगी।

यह आदेश शहर के लोगों के लिए एक अचम्भे की तरह आया था। कारण साफ़ है प्रदेश की योगी सरकार जिस निर्ममता से पक्की दुकानें और पक्के घर, आस्था मिश्रित विकास के नाम पर तोड़ रही है, किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह फैसला झोपड़पट्टीवासियों के हक़ में आएगा। झोपडपट्टीवासियों की और से यह मुकदमा लड़ रहा था ‘संगम क्षेत्र मलिन बस्ती संघ’ और इस पर उनके पक्ष से बहस कर रहे थे-प्रख्यात मानवाधिकार  कार्यकर्ता और वकील के.के.रॉय और वक़ील स्मृति कार्तिकेय।

पिछले कुछ महीनों में इलाहाबाद के अर्धकुम्भ को ‘कुम्भ’ घोषित कर प्रदेश की सरकार ने उसे एक ‘इंटरनेशनल  इवेंट’ बनाने की सोची है। नतीजा सामने है। तथाकथित कुम्भ के लिए शहर को चमकाने के वास्ते बड़े पैमाने पर तोड़-फोड़ की गयी। सारा शहर धूल-मलबे से पट गया,हज़ारों पुराने पेड़ काट डाले  गए  और इस ग़ुबार में हज़ारों लोगों के घर और रोजी-रोटी ढँक गए। हज़ारों घर, दुकानें,पटरी दुकानें  सब उजड़ गए। यह सरकारी आतंक यहीं नहीं रुका, उसने संगम क्षेत्र स्थित झोपड़पट्टियों पर भी अपनी नज़र टेढ़ी कर दी। इंटरनेशनल ब्रांडिंग के रास्ते में यह झोपड़पट्टियां अपना ‘बदसूरत’ वजूद लिए  खड़ी जो थीं। लेकिन इन्हें उजाड़ना इतना आसान नहीं था। उनके संघर्ष का इतिहास १९ साल पहले तक जाता है।

इलाहाबाद में संगम पर जहाँ मुख्य मेला लगता है उसमें से ज़्यादातर ज़मीन सेना की है और मेला प्रशासन हर साल माघ मेले/कुंभ मेले के लिए सेना से वह ज़मीन हासिल करता है। सेना के इसी परेड ग्राउंड,बाँध और बाँध के इर्द-गिर्द छोटी-बड़ी झोपड़पट्टियां और फुटकर रिहाइशें हैं। यह सभी बाँस,टट्टर,टिन,पॉलीथिन,और कुछ ईंटों से बानी कच्ची रिहाइशें हैं। इनमें तक़रीबन 5000 परिवार निवास करते हैं। ये लोग नाव चलाने, माला-फूल,सिंदूर-टिकुली के बिसाती,चाय-पानी बेचने वाले, तेल वाले,रिक्शे वाले, घरेलू कामगार, सफाई कर्मचारी, कूड़ा बीनने आदि रोज़गार में लगे हैं। इनमें दो छोटी  बस्तियां  कुष्ठ रोगियों और भिखारियों की भी हैं।

सन 2001 के कुम्भ के करीब 10 महीने पहले सेना और मेला प्रशासन ने इन बस्तियों को जगह खाली करने की नोटिस भेजी और मार्च 2001 में कार्रवाई करते हुए एक बस्ती गिरा  भी दी। जबरन बेदखली के विरोध में झोपड़पट्टीवासी स्थानीय सामाजिक कार्यकर्त्ता के साथ मिलकर संगठित हुए और उनके साथ आए इलाहबाद के जनप्रिय नेता-पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह। संगम स्थित झोपड़पट्टियों के निवासी ‘संगम क्षेत्र मलिन बस्ती संघ’ के बैनर तले इकठ्ठा हुए और शुरू हुआ धरना-प्रदर्शन-जुलूस का सिलसिला। इसी बीच इसकी तरफ से एक मुकदमा (संख्या-15530/2000) इलाहबाद उच्च न्यायलय में दायर किया गया। मुक़दमे में जनता की और से पक्ष रखने की ज़िम्मेदारी ली वरिष्ठ वकील एवं बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष उमेश नारायण शर्मा ने। मुक़दमे में स्टे मिल गया और झोपड़पट्टियों में यथास्थिति बरक़रार रखने का आदेश उच्च न्यायालय की और से मिल गया।

इस मुकदमे में  अंतिम आदेश 2010  में आया और तब से यह लड़ाई कई मोड़ों से गुज़री। सन 2005  में इस लड़ाई को ज़्यादा व्यापक बनाते हुए शहर की  सभी झोपड़पट्टियों को शामिल करते हुए ‘शहरी गरीब संघर्ष मोर्चा’ की स्थापना की गयी। अगले साल 2006 में अंतराष्ट्रीय संस्था ऑक्सफैम और सामाजिक संस्था विज्ञान फॉउंडेशन के साथ मिलकर मोर्चा के दो साथियों जीतेन्द्र कुमार मौर्य और विशाल सिंह गौतम ने झोपड़पट्टियों के सहयोग से एक ‘स्लम मैपिंग’ की। यानी अब इलाहबाद शहर की झोपड़पट्टियाँ नक्शे पर मौजूद थीं,उनकी सूची बनायीं गयी थी और उनमें मुलभूत सुविधाओं के सामान्य आँकड़े हमारे पास मौजूद थे। स्लम मैपिंग की इस छोटी सी पुस्तक ने बाद में इस पुरे मुक़दमे में बहुत साथ  दिया। मुक़दमे की इस पूरी प्रक्रिया के 18 सालों  में मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ताओं उत्पला,प्रभा,सरिता,किरन,ज्ञान और अनुराधा ने नए आयाम जोड़े।

यह नए आयाम दोतरफा थे। एक और तो मोर्चा ने क़ानूनी लड़ाइयों का दायरा सभी झोपड़पट्टियों तक फैलाया, दूसरी और इन बस्तियों में शहरी मेहनतकशों के अलग-अलग तबकों की यूनियनें  बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। संगम क्षेत्र मलिन बस्ती संघ के इस मुक़दमे  के साथ ही मोर्चा ने 1998 में रेलवे की ज़मीन पर बनी झोपड़पट्टियों के आवासीय अधिकार के लिए ‘आवासहीन मोर्चा’ द्वारा किये गए मुक़दमे को भी अपने हाथ में ले लिया।

इसी बीच मई 2010 में मुक़दमे  में एक अंतरिम आदेश आया जिसमें  संगम क्षेत्र स्थित सभी झोपड़पट्टियों को पुनर्वास किये जाने तक हटाने पर रोक लगा दी गयी। इसके बाद जुलाई 2010 और 2010 के अंतरिम आदेशों में यह स्थिति बरकरार राखी गयी और सरकार को यह स्पष्ट आदेश दिया गया कि संगम क्षेत्र स्थित झोपड़पट्टियों को उजाड़ा न जाये बल्कि उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं के अंतर्गत घर दिए जाएं। अदालत के इस अंतिम आदेश को  सरकार अथवा सेना द्वारा कभी चुनौती नहीं दी गयी। पुनर्वास का काम अभी भी बाकी  है जिसके लिए याचिकाकर्ताओं ने 2017 ने पुनः एक अपील की थी।

अदालत के इस फैसले के बाद कुम्भ भी आया(असली वाला ),अर्ध कुम्भ भी आया,माघ मेले भी आये लेकिन सरकार या सेना ने इन झोपड़ियों को उजाड़ने की कोशिश नहीं की लेकिन वर्तमान भाजपा सरकार ने सत्ता के मद  में माननीय उच्च न्यायलय के फैसले को रद्दी का टुकड़ा साबित करने की कोशिश की। इस पर संगम क्षेत्र मलिन बस्ती संघ ने उच्च न्यायालय में एक अवमानना याचिका दायर की जिसमें मेला प्रशासन, सेना और प्रदेश सरकार सभी को पक्षकार बनाया गया। 24 /27 अक्टूबर 2018 का यह आदेश इसी यचिका के सन्दर्भ में आया है जिसमें  न्यायालय ने ग़रीबों को ना उजाड़ने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। मुक़दमे में 8  हफ्ते बाद  शासन से प्रगति रिपोर्ट माँगी गयी है।

संगठन ने झोपड़पट्टीवासियों की और से पुनर्वास की एक वैकल्पिक योजना भी न्यायालय  में प्रस्तुत की है जिसमें कोओपरेटिव आधार पर लोग स्वयं अपना घर बना सकें ।


लेखक चर्चित इलाहाबादी कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

 



 


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