झारखंड: 3,684 शिक्षकों की नौकरी ख़तरे में, निशाने पर बीजेपी !

रूपेश कुमार सिंह रूपेश कुमार सिंह
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झारखंड के हाईस्कूलों में नियुक्त 13 अनुसूचित जिलों के 3,684 शिक्षकों का भविष्य झारखंड हाईकोर्ट के एक फैसले से अंधकारमय हो गया है। झारखंड की पिछली भाजपाई रघुवर दास की सरकार के समय 2016 में बनायी गयी नियोजन नीति की मार इन शिक्षकों पर पड़ी है।

झारखंड हाईकोर्ट में 21 सितंबर, 2020 को जस्टिस एचसी मिश्र, जस्टिस एस चन्द्रशेखर और जस्टिस दीपक रौशन की अदालत ने फैसला सुनाते हुए राज्य की नियोजन नीति को रद्द कर दिया। तीनों जजों ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए कहा कि सरकार की यह नीति संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इस नीति से एक जिले के सभी पद किसी खास लोगों के लिए आरक्षित हो जा रहे हैं, जबकि शत-प्रतिशत आरक्षण किसी भी चीज में नहीं दिया जा सकता। किसी भी नियोजन में केवल ‘स्थानीयता’ और ‘जन्मस्थान’ के आधार पर 100 प्रतिशत सीटें आरक्षित नहीं की जा सकती है, यह सुप्रीम कोर्ट के ‘इंदिरा साहनी एवं चेबरुलु लीला प्रसाद राव (सुप्रा)’ में पारित आदेश के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पारित किया था कि किसी भी परिस्थिति में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।

जजों ने कहा कि शिडयूल-5 के तहत शत-प्रतिशत सीट आरक्षित करने का अधिकार ना तो राज्यपाल के पास है और ना ही राज्य सरकार के पास। यह अधिकार सिर्फ संसद के पास है, इसलिए राज्य सरकार की अधिसूचना संख्या 5938/14.07.2016 तथा आदेश संख्या 5939/14.07.2016 को पूर्णतः असंवैधानिक पाते हुए निरस्त किया जाता है। अदालत ने राज्य के 13 अनुसूचित जिलों में शिक्षक नियुक्ति की प्रक्रिया को रद्द करते हुए इन जिलों में फिर से नियुक्ति प्रक्रिया शुरु करने का निर्देश दिया, जबकि 11 गैर-अनुसूचित जिलों में जारी प्रक्रिया को बरकरार रखा है।

अदालत ने यह भी कहा कि गलत होने पर कोर्ट मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकती है, इसलिए गलती सुधारना जरूरी है। राज्य सरकार की नियोजन नीति समानता के अधिकार (अनुच्छेद-14) एवं सरकारी नौकरियों में समान अवसर के अधिकार (अनुच्छेद-16) का उल्लंघन है। इस नीति में मौलिक अधिकार का हनन होता है। राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2016 में लागू नियोजन नीति अल्ट्रा वायरस है। निवास के आधार पर किसी को उसके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।

झारखंड हाईकोर्ट का फैसला ऐसे वक्त में आया जब झारखंड विधानसभा का मानसून सत्र चालू था, इसलिए स्वाभाविक था कि विधानसभा में हंगामा होता। विधानसभा में इस फैसले पर खूब हंगामा हुआ भी। भाजपा, सरकार पर हाईकोर्ट में मजबूती से अपना पक्ष नहीं रखने का आरोप लगा रही थी, तो वहीं सत्ता पक्ष की तरफ से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जवाब देते हुए कहा कि ‘‘पिछली सरकार के निकम्मों ने गंदगी फैला रखी है। अनुसूचित क्षेत्र में राज्यपाल के हाथों से बदलाव करके 13 जिले बांटे गये थे। कहीं ना कहीं राज्य को दो हिस्से में बांटने की तैयारी थी, इसपर राज्यपाल ने भी संज्ञान नहीं लिया। नतीजतन बात कोर्ट में गयी और कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया।’’ झामुमो के प्रवक्ता ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए कह दिया कि शिक्षकों को पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास व पूर्व मंत्रियों के आवास का घेराव करना चाहिए।

मालूम हो कि झारखंड की पिछली सरकार ने 2016 में स्थानीयता नीति लायी थी और उसी के आधार पर राज्य में नियोजन नीति भी बनायी गयी थी। इसी नियोजन नीति के तहत 2016 में ही झारखंड कर्मचारी चयन आयोग द्वारा हाईस्कूलों में शिक्षक नियुक्ति का विज्ञापन निकाला गया था। इस विज्ञापन में झारखंड के कुल 24 जिलों को दो कोटि (13 अनुसूचित जिला व 11 गैर-अनुसूचित जिला) में बांटा गया था। अनुसूचित जिलों के पद उसी जिले के स्थानीय निवासी के लिए 100 प्रतिशत आरक्षित कर दिये गये थे। वहीं गैर-अनुसूचित जिलों में बाहरी अभ्यर्थियों को भी आवेदन करने की अनुमति दी गयी थी। अनुसूचित जिलों में कुल 8423 पदों पर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए आवेदन लिए गये थे। परीक्षा 2017 के अंत में हुई थी, जबकि रिजज्ट व नियुक्ति पत्र 2019 में दिया गया था। 13 अनुसूचित जिलों में शामिल है- रांची, खूंटी, गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां, लातेहार, दुमका, जामताड़ा, पाकुड़ व साहिबगंज। इनमें से लगभग 3684 शिक्षकों की नियुक्ति की गयी थी। ये शिक्षक वर्तमान में स्कूलों में पदस्थापित हैं।

तत्कालीन झारखंड सरकार की हाईस्कूल शिक्षक नियुक्ति के विज्ञापन को 7 मार्च, 2017 को झारखंड हाईकोर्ट में सोनी कुमारी ने चुनौती दी एवं बाद में संशोधित याचिका दायर कर सरकार की नियोजन नीति को ही चुनौती दे दी। 14 दिसंबर, 2018 को जस्टिस एस चन्द्रशेखर की एकल पीठ ने मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे खंडपीठ में भेज दिया। 18 अगस्त, 2019 को खंडपीठ ने राज्य सरकार की अधिसूचना 5938/14.07.2016 के क्रियान्वयन पर अगले आदेश तक के लिए रोक लगा लगाते हुए मामले को लार्जर बेंच में भेज दिया। 21 अगस्त, 2020 को सभी पक्षों की सुनवाई पूरी हुई और तीन सदस्यीय लार्जर बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। 21 सितंबर को अंततः हाईकोर्ट ने फैसला सुना दिया।

21 सितंबर को झारखंड हाईकोर्ट का फैसला आते ही राज्य में शिक्षकों के विरोध के स्वर मजबूत होने लगे। नियोजित शिक्षकों का मानना है कि आखिर उनका कसूर क्या है? उन्होंने तो विज्ञापन की अर्हता को देखते हुए आवेदन दिया और उनकी नौकरी लगी। लगभग डेढ़ साल से नौकरी कर भी रहे हैं, फिर अचानक नौकरी को रद्द कर देना उनके साथ अन्याय है। इन 3684 शिक्षकों में से कई ऐसे शिक्षक हैं, जो पहले प्राथमिक शिक्षक भी थे और कई अच्छी नौकरियों में भी थे। अब ऐसे शिक्षक के सामने बहुत ही विकट स्थिति खड़ी हो गयी है। लगभग 35 प्रतिशत ने अपनी पुरानी नौकरी छोड़कर अपने बेहतर भविष्य के लिए इस नौकरी को ज्वाइन किया था। कुछ ने इस नौकरी के भरोसे बैंकों से लाॅन लेकर घर, गाड़ी व जमीन भी खरीदी है।

अब इन 3684 शिक्षकों के साथ-साथ उनके परिवार का भविष्य भी अंधकारमय हो गया है, इसलिए इस फैसले के अगले दिन से ही शिक्षकों ने जगह-जगह बैठकें कर हाईकोर्ट के फैसले को गलत बताया और झारखंड सरकार से उनके बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की अपील की। 23 सितंबर को शिक्षकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्य के वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव से मिलकर अपनी पीड़ा सुनायी, जिसके बाद इसी शाम को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने घोषणा किया कि झारखंड सरकार झारखंड हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जल्द से जल्द एसएलपी (स्पेशल लीव पिटीशन) फाइल करेगी। इधर शिक्षकों के तरफ से भी सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही जा रही है।

झारखंड हाईकोर्ट के फैसले के बाद झारखंड की विपक्ष के साथ-साथ सत्ता पक्ष भी सवालों के घेरे में है। आज सत्ता पक्ष 2016 की नियोजन नीति को झारखंड को दो भाग में बांटने की साजिश बता रही है, तो सवाल उठता है कि जब यह नीति बनी थी, तो उस समय इस नीति का जबरदस्त विरोध क्यों नहीं किया गया था? पिछली सरकार की गलत नीति का खामियाजा आखिर शिक्षक क्यों भुगते? क्या झारखंड सरकार इन तमाम शिक्षकों की नौकरी किसी दूसरे तरीके से बरकरार नहीं रख सकती है? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। हां, लेकिन इतना तय है कि हजारों शिक्षकों को नौकरी से निकाले जाने पर झारखंड में आंदोलनों का तूफान जरूर आएगा, जिसे संभालना सरकार के लिए बहुत ही मुश्किल होगी।


 

रूपेश कुमार सिंह, स्वतंत्र पत्रकार हैं।