प्रगतिशील सामाजिक संचार के भरोसेमंद नेटवर्क ज़रूरी: जगदीश्वर चतुर्वेदी

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कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर और संचार विशेषज्ञ डा. जगदीश्वर चतुर्वेदी अब दिल्ली में हैं। सोशल मीडिया तथा अन्य मंचों के माध्यम से वैचारिक जागरण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 26 फरवरी 2017 को सामाजिक कार्यकर्ता श्री बलराम और डॉ.विष्णु राजगढ़िया ने  उनके साथ ‘आज़ाद भारत’ की अवधारणा पर चर्चा की। इस चर्चा के दौरान डाॅ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने आज के दौर में सोशल मीडिया के सदुपयोग पर कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिये। प्रस्तुत है डाॅ. चतुर्वेदी के विचारों के कुछ अंश:
यह सत्य है कि देश में एक भयावह माहौल बनाया जा रहा है। लेकिन बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध नागरिकों के लिए वैचारिक रूप से आगे आने का यह एक बड़ा अवसर भी है। खासकर सोशल मीडिया में बहुत कुछ करने की गुंजाइश है। अभी जिस तरह का कुप्रचार और झूठ फैलाया जा रहा है, उसका सच बताने के लिए सोशल मीडिया में सभी प्रगतिशील लोगों को जोड़ने की कोशिश होनी चाहिए। वेबसाइट, फेसबुक,वाट्सएप इत्यादि के माध्यम से सबको जोड़ा जा सकता है। जिस तरह कोई अखबार निकालने के लिए तैयारी करते हैं उसी तरह हमें एक वर्चुअल अखबार निकालने का प्रयास करना चाहिए। इसमें ऐसे तमाम लोगों को जोड़ें जिनकी लोकतांत्रिक साख हो। उनके बीच संयुक्त प्रयासों से इस अखबार के देशभर में अनगिनत ग्रुप बनाए जा सकते हैं। हर जगह के कुछ लोग हों और वे अपने आसपास के लोगों को जोड़ें।
हमें ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों के नागरिकों से सीखना चाहिए जहां नागरिक आपसी संवाद के माध्यम से बेहतर लोकतंत्र बना रहे हैं। अमेरिका में किसी शहर के एयरपोर्ट पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने प्रदर्शन के लिए एक सूचना पर कुछ ही पलों में सैकड़ों नागरिक जुट जाते हैं। ऐसे विश्वसनीय लोगों की सूची बनानी चाहिए जिनकी लोकतंत्र में गहरी आस्था हो। चीन के नागरिकों ने भी इसी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी पर अंकुश लगाया है। पुलिस किसी को परेशान करे तो इंटरनेट की एक सूचना पर सैकड़ों लोग जुट जाते हैं।
इसलिए अब हमें भी देश में साखदार लोगों का भरोसेमंद नेटवर्क बनाने चाहिए,इससे परंपरागत मीडिया पर हमारी निर्भरता को खत्म होगी। आज तो हम जिस मास मीडिया पर भरोसा कर रहे हैं उसकी प्रतिबद्धता पर ही सवाल उठने लगे हैं। सोशल मीडिया को ऐसा भरोसेमंद संचार माध्यम बनाया जा सकता है, जिसकी सामग्री परंपरागत मीडिया भी ले।
हमारे लिखे को कोई भी ले जाए स्वागत है। आखिर वह हमारे विचार ही तो ले जा रहा है। हमारे पास अपने विचारों के प्रसार के लिए अनंत स्पेस है। जो लोग फिल्ड में काम करते हैं,उनके लिए लिखना मुश्किल है, लेकिन जो लिख सकते हैं, उन्हें लिखना चाहिए। यह एक श्रम विभाजन है। आंदोलनकारी और लेखक-विचारक का। लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह बेहद जरूरी है। रामजस काॅलेज या जेएनयू जैसी घटनाओं को देखकर यह काम काफी जरूरी लगता है।
आज देश में एक छायायुद्ध चल रहा है। नीति-दुर्नीति के बीच अंतर्क्रियाएं चल रही है। किसी भी लोकतांत्रिक आवाज को अवैध घोषित किया जा रहा है। सीधे हरेक की देशभक्ति पर सवाल किए जा रहे हैं। जबकि ऐसे आंदोलनों से लोकतंत्र समृद्ध होता है। अगर तेलंगाना आंदोलन नहीं होता, तो जमींदारी प्रथा खत्म करने का कानून नहीं बनता। देश के कई महत्वपूर्ण कानून किसी ऐसे आंदोलन का नतीजा हैं, जिसे अवैध कहा गया। देश में राष्ट्रीय राजमार्ग की अवधारणा भी ऐसे आंदोलनों के वक्त विधि-व्यवस्था को नियंत्रण में रखने के कारण आयी।
सच तो यह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलन हमारी व्यवस्था में लोच पैदा करते हैं। इससे व्यवस्था में सुधार आता है। कोई भी विकास यथास्थिति वादियों के कारण नहीं बल्कि बदलाव के आंदोलनों के कारण आता है। आंदोलन वही करता है जो व्यवस्था से असंतुष्ट हो। उनसे वैचारिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन उसके बाद भी मित्र भाव होना चाहिए। उन्हें दुश्मन या देशद्रोही कहना लोकतंत्र के खिलाफ है] हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। आज देश में सूचना का अधिकार कानून है। यह भी आंदोलनों की देन है। इसने भी देश की व्यवस्था को समृद्ध किया है।
एंगेल्स कहते थे कि व्यवस्था की खासियत यह है कि जब कोई चीज भौतिक वस्तु बन जाती है,उसे खत्म नहीं किया जा सकता। जैसे अब आरटीआइ को खत्म नहीं कर सकते। ऐेसी प्रगतिशील चीजों को पैदा करने में उन्हीं लोगों की भूमिका होती है जो इस सिस्टम को नहीं मानते थे। लोकतंत्र को मानने वालों और लोकतंत्र को न मानने वालों के बीच हरेक देश में संघर्ष रहा है।इन दोनों तरह की शक्तियों के बीच अंतर्क्रिया से ही डेमोक्रेसी बनती है। संसद को मानने और न माननेवाले, दोनों तरह की शक्तियों की लोकतंत्र में भूमिका है। यही द्वंदवाद है। इसे ही ‘यूनिटी आॅफ अपोजिट‘ कहते हैं।
मौजूदा दौर में कोई भी चीज बेकार नहीं होती। रद्दी का कागज भी बेकार नहीं होता।यही वजह है कि रिसाइक्लिंग इंडस्ट्री आज बहुत बडी ताकत है।कहने का आशय यह कि इसलिए लोकतंत्र में हरेक की भूमिका होती है। हर चीज के लिए हम राज्य पर निर्भर नहीं कर सकते। हमें सबसे संपर्क-संबंध रखने चाहिए। । हम अगर सिर्फ भले लोगों से बात करेंगे तो बुरे लोगों से बात कौन करेगा। हमें तो समाज के हर आदमी से बात करनी चाहिए।
आज सोशल मीडिया में ट्रोल की परिघटना देखी जा रही है। यह पहले से चला आ रहा है। 1970 के बाद सीआइए की यही रणनीति रही। भाड़े के सैनिकों और प्रायोजित खबरों के माध्यम से कई सरकारों को गिराया गया। बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय भी प्रायोजित खबरें हुआ करती थीं।यह शीतयुद्ध में पैदा हुआ फिनोमिना है। शीत युद्ध के दौरान कोई मीडिया सोवियत संघ की प्लांटेड स्टोरी चलाता था तो कोई अमेरिका की। अब सोवियत लाॅबी बिखर गयी है लेकिन अमेरिकन लाॅबी काफी संगठित है।
हमें ट्रोल से घबराने की जरूरत नहीं है। इसी बहाने कम-से-कम ये लोग भी कुछ तो पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं। एक बार जब वे इस स्पेस में घुस जाएंगे तो धीरे-धीरे चीजों का फर्क भी समझने लगेंगे। सोचने भी लगेंगे। इसके लिए जरूरी है कि हम प्रगतिशील विचारों को संगठित तौर पर सामने लाते रहें और सबसे संवाद का प्रयास करें।
इंटरनेट,मोबाइल और सोशल मीडिया ने नागरिकों को काफी ताकत दी है। आज जितना भरोसेमंद नेटवर्क होगा, उतने ही प्रभावी तरीके से आप झूठ को बेनकाब कर सकेंगे। अभी दिक्कत यह है कि हिंदी लेखकों का एक बड़ा समूह अब तक सिर्फ कलम से जुड़ा है। उसे नए मीडिया की आदत नहीं है। वह भी इसका सदुपयोग करें तो प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि बड़ी संख्या में नौजवानों और नागरिकों ने लिखना सीख लिया है। इसे संगठित करने की आवश्यकता है।