प्रधानमंत्री के नाम हिमालय के ‘मन की बात’: हमारे भगवानों की नींद क्यों हराम कर रहे हो, मोदीजी?

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प्रिय नरेन्द्र मोदी जी,

आशा है आप अपने सभी भक्तों के साथ आनंद से होंगे। कई बार आपसे बात करने को मन करता है, लेकिन जब भी सोचता हूं, तुम किसी अन्य देश में होते हो। पिछले दिनों सोच रहा था अब बात हो जायेगी, तुम चीन जैसे देश में निकल गये, जहां के माल का आपके भक्त लंबे समय से बहिष्कार कर रहे थे। उन्हें लगता था कि अगर चीन कि लड़ी जलायें तो हमारी ‘दीपावली भ्रष्ट’ हो जायेगी। वहां का अबीर लगा लिया तो होली का ‘रंग उड़’ जायेगा। चलो आपने ठीक ही किया इन भक्तों को बता दिया कि दीवाली और होली वैसी नहीं होती है जैसा तुम सोचते हो। होली और दीवाली उसी रूप में मनाई जानी चाहिये जिसमें हमारा छुपा एजेंडा शामिल हो। कभी-कभी जब तुम अपने मन की बात करते हो तो लगता है कि तुम्हें अपने मन की बात भी बता दूं। असल में अपने मन की बात करना जितना सरल होता है, दूसरे के मन की सुनना उतना ही कठिन क्योंकि अपने मन की बात कहते वक्त ‘अच्छे दिनों’ की बात होती है, दूसरे की मन की बात सुनने में विशेषकर जब मेरे मन (हिमालय) की बात सुननी होती है तो तुम और तुम्हारे पूरे कुनबे को धर्म और अध्यात्म याद आ जाता है। तुम लोग समझते हो कि हिमालय तो शांत है, सुन्दर है, यहां भगवान बसते हैं, यहां के रहने वाले लोग भी निरा ‘गाय’ हैं, उन्हें जब चाहो तब ‘गाय’ की तरह ही इस्तेमाल भी कर लो, जैसा पिछले दिनों से तुम करते रहे हो। हिमालय के लोग आपके लिये ‘गंगा’ भी हैं जब चाहो उसकी ‘पवित्रता’ की दुहाई देकर पार कर लो। सात जनम भी तर जायेंगे। खेैर गंगा और गाय की बात करने वाले मोदी जी! तुमने मेरे अस्तित्व के सामने संकट खड़ा कर दिया है। जब कल मैं तुम्हारी ‘मन की बात’ सुन रहा था तो तुम्हारी समझ पर तरस आ रहा था और गुस्सा थी। मैंने सोचा इस बीच शायद कहीं विदेश का दौरा नहीं होगा तो तुम मेरी इस चिट्ठी को पढ़ोगे। सोचोगे कि तुम्हें हिमालय के बारे में कितनी कम जानकारी है।

प्रिय मोदी जी! कल मैं आपका कार्यक्रम ‘मन की बात’ सुन रहा था। जब मेरे एक जनपद बागेश्वर का नाम आया तो मुझे लगा कि आप कोई बड़ी बात करने जा रहे हैं। हमारे अखबारों में काम करने वाले लोग भी बहुत ‘भावुक’ और ‘सीधे’ होते हैं। इस खबर को सब लोगों ने ऐसे प्रचारित किया जैसे मोदीजी के कहने भर से वैसे ही लोगों के ‘भक्कार’ भर गये हैं जैसे शिवजी के वरदान से भर जाते हैं। आपने बागेश्वर जनपद के कपकोट तहसील का जिक्र किया। आपने बताया कि कपकोट तहसील के मुनार गांव में कुछ युवाओं ने स्थानीय उपजों पर काम किया है। उन्होंने एक संस्था बनाई। उस संस्था के माध्यम से स्थानीय किसानों की उपज को लेना शुरू किया जिसका बाजार में मूल्य नहीं मिल पाता है। उन्होंने ‘चैलाई’ और ‘मडुवा’ को खरीद कर उसके बिस्कुट बनाये। ये बिस्कुट गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत पौष्टिक होते हैं। आपने यह भी बताया कि युवाओं के इस प्रयास के साथ 900 परिवार जुड़ गये। इस संस्था ने अपनी मेहनत से न केवल अपना सालाना टर्नओवर 10 से 15 लाख रुपया किया है, बल्कि इतने सारे परिवारों को रोजगार भी दिया है। इससे पहाड़ से पलायन को रोकने में मदद मिलेगी। पूरा पहाड़ खुश है। देश में भी आपकी बात की वाह-वाह हो रही है। लेकिन कुछ ‘विकास विरोधी’ और ‘नकारात्मक’ पहाड़ियों को इसमें भी शंका है। एक हमारे मित्र हैं चन्द्रशेखर करगेती जी। गलती से उनसे आपके भाषण की ‘तारीफ’ कर बैठा। इन वकीलों को अच्छा तो कुछ सूझता ही नहीं। दूसरे वकील से बात करा दी। मनीष भाई से। उन्होंने जो आंकड़ा दिया उससे यह बात भी समझ में आई कि जब आप अपने मन की बात करते हो तो उन ‘बेवकूफों’ से क्यों इसे लिखाते हो जिन्हें ‘धेले की अकल’ नहीं है। आप जैसे ‘विकास पुरुष’ ने बताया कि कपकोट से पलायन का रास्ता इसलिये रुक सकता है, क्योंकि 900 परिवारों को काम देने वाली संस्था का टर्नओवर 15 लाख रुपये सालाना है। इस हिसाब से अगर यह पैसा सीधे भी किसानों को दिया जाये तो उनकी सालाना इनकम 1,666 रुपये बैठती है। खैर संस्था तो ‘स्वयंसेवी’ है वह अपना खर्च निकाल ही लेगी। इस हिसाब से अगर आप पहाड़ से पलायन को रोकने का रास्ता सुझा रहे हैं तो फिर मुझे अभी कुछ नहीं कहना है।

प्रिय मोदी जी! विकास और पलायन पर जो आपकी और आपके नीति-नियंताओं की समझ है उसने पहाड़ से पलायन का रास्ता तैयार किया है। उत्तराखंड का पूरा पलायन नीतिजनित है, जिसके लिये आप और आपके नुमाइंदे जिम्मेदार हैं। कभी कुछ एनजीओ आपके ‘कारनामों’ पर पैबंद लगाते रहते हैं। वे आपके लिये ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम करते रहते हैं ताकि आप अपनी ‘मन की बात’ में हमारे दर्द का ‘सौदा’ कर सको। आपकी तर्ज पर और आपसे ‘प्रेरणा’ लेकर पिछले दिनों जब हमारे मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत थाइलैंड से वापस आये तो इसकी सूचना भी मुझे एक छुटभैये भक्त टाइप नेता से मिली, जिसने ऋषिकेश में आपकी थाइलैंड की सफल यात्रा की होर्डिंग लगाई थी। उम्मीद की जानी चाहिये कि वह भी थाइलैंड के पर्यटन का कोई माॅडल मेरे लोगों को देंगे। इससे पहले वे नासमझी भरा एक ‘पलायन आयोग’ बना चुके हैं।

पिछले दिनों मुझसे पूछा जा रहा था कि राज्य बनने के बाद उत्तराखंड की क्या उपलब्धियां रहीं! मैंने जवाब दिया- ‘हमारे बगल का राज्य है हिमाचल। हिमाचल को बने 63 साल हो गये हैं। वहां 63 साल में छह मुख्यमंत्री हुये। खंडूडी के दो कार्यकाल और हरीश रावत के उतरने और चढ़ने को लगा दिया जाये तो उत्तराखंड में 18 साल में दस मुख्यमंत्री। इस लिहाज से उत्तराखंड में दो चीजें हुईं। पहला यहां सुअर-बंदर पैदा हुये और दूसरे मुख्यमंत्री।’ मुझे लगता है कि अब हमारे लोग दो की चीजों से त्रस्त हैं- बंदर-सुअरों से और मुख्यमंत्रियों से। ‘मन की बात’ से आपने पलायन की याद दिला दी। जब हरीश रावत मुख्यमंत्री बने तो मेरे से पूछा गया कि अब आपको क्या दिक्कत है। अब तो जमीन से जुड़ा एक नेता मुख्यमंत्री बन गया है, जिसे गाड़-गधरे सब मालूम हैं। तब भी मैंने कहा था- ‘हां, हरीश रावत ही नहीं, अब तक जितने भी मुख्यमंत्री पहाड़ में रहे वे सब जमीन से जुड़े थे। पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी भी जमीन से जुड़े थे। अगर वे जमीन से जुड़े नहीं होते तो दो दशक से ज्यादा समय तक हमारे विधान परिषद के सदस्य नहीं होते। हमारे दूसरे मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी इतने जमीन से जुड़े थे कि उन्होंने अपने को ‘गधेरू मुख्यमंत्री’ कहा। हमारे तीसरे मुख्यमंत्री माननीय नारायण दत्त तिवारी न केवल उत्तराखंड की जमीन से जुड़े थे, बल्कि वे देश-दुनिया की जमीन से भी जुड़े थे। हमारे चौथे मुख्यमंत्री थे मेजर जनरल भुवन चन्द्र खंडूडी। खंडूडी जी के बारे में बताया जाता था कि वे दुनिया में ईमानदारी के सबसे बड़े अवतार थे, इसलिये वे भी जमीन से जुड़े थे। हमारे पांचवें मुख्यमंत्री थे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’। रमेश पोखरियाल साहित्य, संगीत, कला, राजनीति के मर्मज्ञ थे। उनकी हिन्दी कवितायें भले ही देश में किसी ने न पढ़ी हों, लेकिन उनका विदेशी भाषाओं में पहले अनुवाद हो जाता था। हमारे छठे मुख्यमंत्री थे विजय बहुगुणा। वे पर्वत पुत्र हेमवतीनन्द बहुगुणा के सुपुत्र थे। हाईकोर्ट में जज रहे। वे भी जमीन से जुड़े थे। हरीश रावत तो ‘धरती पुत्र’ ही थे। अब हमारे मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत हैं, वह भी संघ का प्रचार करते-करते ‘धरती’ से जुड़ गये। अगर ये सब ‘जमीन से जुड़े’ नहीं होते तो देहरादून से लेकर पिथौरागढ तक बिक नहीं गया होता। इनके कार्यकाल में एक ही काम हुआ- जमीनों के सौदे।

मोदी जी! अगर मैं गलत कह रहा हूं तो कभी चले आना भीमताल, मुक्तेश्वर, भवाली, रामगढ़, नौकुचियाताल, रानीखेत, मजखाली, लमगड़ा, मरचूला, मानीला, सल्ट, धूमाकोट से लेकर गंगा के पूरे किनारों तक। अभी आना धनोल्टी, चंबा, प्रतापनगर, नरेन्द्रनगर और भी आगे तक। पूरा का पूरा पहाड़ इन 18 सालों में बेच डाला है, पलायन का रोना रोने वाले इन नीति-नियंताओं ने। अगर और अंदर की बात जाननी हो तो कभी आना चैकुनी, मौना, मवाड़, डडलियां, द्वारसों, कठपुड़िया, शीतलाखेत, डीडा आदि जगहों पर, तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारी ही भक्ति करने वाले लोगों ने कैसे मेरे गांव के लोगों को वहीं प्राॅपर्टी डीलर बना दिया है। कभी खुली आंखों से देखना मेरी नदियों को जिन्हें तुमने और तुम्हारे जैसे सत्ता में बैठे लोगों ने बड़े-बड़े इजारेदारों के हवाले कर दिया है।

प्रिय मोदी जी! तुम पलायन की यह लफ्फाजी करना बंद करो। तुमने अभी मेरी चार नदियों को समाप्त करने का षडयंत्र किया है। पिथौरागढ़, चंपावत, अल्मोड़ा के 134 गांवों को लील कर उसमें पूंजीपतियों के हितों के लिये पंचेश्वर परियोजना बनाने जा रहे हो। तुम्हें थोड़ी तो समझ होनी चाहिये कि एक तरफ तुम पलायन रोकने की बात करते हो, दूसरी तरफ बड़ी परियोजनाओं से पूरे पहाड़ को नेस्तनाबूद करने पर तुले हो। तुमने अभी ‘आॅल वेदर’ सड़क के निर्माण का एक विनाशकारी विकास का माॅडल पहाड़ के ऊपर थोपा है। मोदी जी आपको पता होना चाहिये कि पहाड़ में भगवान भी कभी ‘आॅल वेदर’ नहीं थे। बदरी-केदार, गंगोत्री-यमनोत्री भी छह महीने विश्राम के लिये नीचे आते हैं। आपको यह ‘अकल’ किसने बताई कि पहाड़ ‘आॅल वेदर’ होता है। तुमने पहले हमारी ‘नींद हराम’ की, अब आप हमारे भगवानों को भी नहीं सोने दे रहे हो। इसका ‘पाप’ किसको लगेगा, मोदी जी?

अंत मैं इतना कहना चाहूंगा कि किसी माॅडल को बताकर पलायन को रोकने की बात करने की नासमझी मत करना। गलत तथ्यों और भावनाओं का दोहन कर लोगों को गुमराह भी मत करना। तुम लोगों को पता नहीं है कि पहाड़ सुलग रहे हैं। तुम्हें इसका अहसास नहीं हो पा रहा है। अभी मैं भी विश्राम करता हूं। कल फिर चिट्ठी को जारी रखूंगा।

तुम्हारे शोषण का नया उपनिवेश
हिमालय


वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की फेसबुक दीवार से साभार