रोहिंग्या त्रासदी में गैया का प्रवेश ! मीडिया में टॉपो-टॉप हैं गोबरगणेश !

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‘स्टेटलेस’ रोहिग्या मुसलमानों की हालत पर दुनिया भर में चिंता जताई जा रही है। संयुक्त राष्ट्र भी इसके लिए म्यामार सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है। अमानवीय व्यवहार का सवाल उठाकर वहाँ की नेता आन सांग सू की को मिला शांति का नोबेल पुरस्कार वापस लेने की माँग उठ रही है। लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम वाले भारत में स्थिति अजब है। रोहिंग्या को शरणार्थी का हक़ देने की पैरवी कर रहे देश के कई बड़े वक़ीलों ने साफ़ कहा है कि रोहिंग्या के मुसलमान होने की वजह से भारत सरकार अपनी नैतिक और कानूनी मान्यताओं से मुकर रही है। ज़ाहिर है, मीडिया के सामने इसकी पड़ताल एक बड़ी चुनौती थी। लेकिन वह तो जैसे ख़ुद इस मानव निर्मित त्रासदी को सांप्रदायिक ज़हर में डुबो रही है। बिना किसी प्रमाण के उसने पूरे रोहिंग्या समुदाय को आतंकी घोषित करना शुरू कर दिया है। वहीं कुछ लोग इस मौके का इस्तेमाल यह बताने के लिए कर रहे हैं कि रोहिंग्या को मुसलमानों के ‘कर्मों ‘ का फल मिल रहा है। टीवी टुडे जैसे संस्थान की वेबसाइट लल्लनटॉप पर छपा एक लेख इसकी नज़ीर है। लेखक ने गोहत्या से लेकर बामियान में बुद्ध प्रतिमा तोड़े जाने तक की घटनाओं के सहारे रोहिंग्या की दुर्गति को स्वाभाविक ठहराने की कोशिश की है। यूँ तो ऐसा और भी लोग कर रहे हैं, लेकिन इसे एक नमूना मानते हुए युवा पत्रकार आर.अखिल ने यह लेख लिखा है–संपादक

 

रोहिंग्या मुसलमानों की वर्तमान स्थिति पर लल्लनटॉप पर छपे इस लेख के शीर्षक और कंटेंट से पहली बार पता नहीं चलता कि लेखक कहना क्या चाहता है. लेकिन यह लेख इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है कि  पॉपुलर सेंटीमेंट या अपने अंदर की कुंठा को कैसे एक तथ्य या समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है.

लेखक बर्मा के बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच धार्मिक द्वेष को समस्या की जड़ बताते हैं और कहते हैं, “इतने तनाव के बाद भी मुसलमान क़ुर्बानी ज़रूर करते हैं. सन 2012 में पहली बार इस तनाव को देखते हुए कुर्बानी नहीं की गयी थी. बौद्ध भिक्षुओं का कहना था कि उन्हें इस से बहुत परेशानी होती है. कि उनके यहां इतनी बड़ी तादात में ‘गायें’ एक दिन में मुसलमान एक दिन में कुर्बान कर देते हैं. उन्हें गाय नहीं बल्कि बकरी करनी चाहिए.”

मतलब लेखक का कहना है कि बर्मा के बौद्ध इस बात से नाराज़ हैं की रोहिंग्या मुसलमान गायों की जगह बकरों की क़ुर्बानी क्यों नहीं करते। इस बात को अगर भारत के सन्दर्भ में देखा जाय तो लेख की वैचारिक स्थिति थोड़ी साफ़ होती है. वैसे पडोसी देश नेपाल में भी बौद्ध लोगों की एक बड़ी तादाद है और वहां हिन्दू बड़े पैमाने पर जानवरों की बलि देते हैं.

बहरहाल, सिर्फ धार्मिक द्वेष को आधार बना कर लिखा गया यह लेख रोहिंग्या मुसलमानों के उस क्षेत्र में आगमन, उनका इतिहास, अंग्रेजी शासन के दौरान उनके शोषण और पलायन पर तो चुप है ही, उनकी वर्तमान स्थिति के लिए कहीं न कहीं उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराता है.

खैर, यहाँ बताना ज़रूरी है कि लगभग दस लाख से ऊपर की आबादी वाले इस अभागे समुदाय को बर्मा अपना नागरिक नहीं मानता और इनके पास कोई भी संवैधानिक अधिकार नहीं है. बांग्लादेश की सीमा से लगे बर्मा के पश्चिमी प्रान्त अराकान या रखाइन में रहने वाले ये रोहिंग्या सालों से दोयम दर्जे की ज़िन्दगी बिताने को मज़बूर हैं. बहुत सारे रोहिंग्या बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा से लगे शरणार्थी शिविरों में नारकीय ज़िन्दगी जी रहे हैं.

रोहिंग्या समुदाय का इस क्षेत्र में शुरूआती आगमन और बसावट को लेकर इतिहासकारों में कई मतभेद हैं लेकिन ज़्यादातर का मानना है कि ये लोग अरब व्यापारियों के साथ लगभग हजार साल पहले इस क्षेत्र में आये थे. हालाँकि बर्मा के कुछ इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं है, लेकिन कुछ तथ्य इसे प्रमाणित करते लगते है. माना जाता है कि रोहिंग्या शब्द की व्युत्पत्ति भी अरबी के ‘रहम’ से हुआ है, जो इनके पूर्वज अराकान के राजा की सजा से बचने के लिए कभी चिल्लाए थे.

बहरहाल, आधुनिक इतिहास के मुताबिक 1785  बौद्धों ने अराकान पर कब्जा कर लिया और रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इस क्षेत्र से बाहर निकाल दिया या फिर उनकी हत्या कर दी. इस दौरान अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था. 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया और उन्होंने सस्ते मजदूरी के लिए रोहिंग्या और बांग्ला मुसलमानों को फिर से इस क्षेत्र में बसने को प्रोत्साहित किया. मुसलमानों का फिर से इस अराकान में आने और बसने की वजह से वहां के बहुसंख्यक बौद्धों के मन में द्वेष की भावना बढ़ गई.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस क्षेत्र में जापान के बढ़ते दबदबे के चलते अंग्रेजों को अराकान छोड़ना पड़ा और उनके हटते ही मुसलमानों और बौद्धों के बीच का यह द्वेष और गहराया. परस्पर द्वेष और युद्ध के इस माहौल में ये मुसलमान एक बार फिर बंगाल यानी आज के बांग्लादेश की तरफ भागे. इस दौरान इन्हे स्थानीय बौद्धों के साथ-साथ जापानी सेनाओं का दमन भी सहना पड़ा. लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद ज़्यादातर लोग वापस लौटे और धीरे-धीरे रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए एक अलग अलग देश की मांग उठने लगी. 1982 में बर्मा के तत्कालीन सैन्य शासन ने अलगाववादी और गैरराजनीतिक, दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए इन्हें बंगाली प्रवासी घोषित कर नागरिकता देने से इनकार कर दिया. तब से ये रोहिंग्या बिना देश वाला (स्टेटलेस) लोग हैं जिनके पास कोई अधिकार नहीं है. इन्हें स्कूल, मकान, दुकान और मस्जिदों को बनाने की इजाजत ही नहीं है। यहां तक की इनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला भी नहीं मिलता.

संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

मानवता को कलंकित करती ऐसी खबरें साल दर साल आती हैं और अपने साथ अनगिनत अफवाहें भी लाती हैं. सावधान रहें।

 

. आर.अखिल