जनसंपर्क विभाग से पीडि़त मध्‍यप्रदेश के पत्रकारों ने दिया 11 अप्रैल को भोपाल चलो का नारा

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मध्य्प्रदेश के पत्रकारों ने सरकार से पत्रकारिता को आज़ाद करवाने के नाम पर भोपाल चलो का नारा दिया है। इसके लिए एक विशाल शांति रैली निकाली जा रही है। पत्रकारों से आह्वान करने वाले संगठनों की ओर से यह संदेश प्रसारित किया गया है:

”अगर मध्यप्रदेश में पत्रकारिकता को आज़ाद करवाना हैं तो भोपाल आना हैं। पत्रकार दोस्तों, आज तक मीडिया ने समाज की हर आवाज़ को लोगो तक पहुंचाया है, सुनाया है, दिखाया है लेकिन आज उसी मीडिया को आज़ादी दिलवाने के लिए और पत्रकारों को सरकार की कैद से रिहा करवाने के लिए समाज के सभी संगठनो की ज़रूरत है। सभी राजनैतिक पार्टी से जुड़े हुए युवा पद अधिकारियों से हम पत्रकारों की अपील हैं कि पत्रकारिता को आज़ादी दिलवाने के लिए विशाल शांति रैली में दिनांक 11/04/2017 को अपने अपने बैनर तले सुबह 11 बजे पत्रकारों के हुजूम में शामिल हो और मध्यप्रदेश के सात लाख मीडिया परिवार को सरकार की कैद से आज़ाद करवाने में मदद करे। साथ ही सभी मध्यप्रदेश के जिले व तहसील के पत्रकार साथियो से दिली अनुरोध है कि 11 तारीख की सुबह राजधानी भोपाल पहुँचकर अपने पत्रकार साथियो का साथ दें और उनकी हौसला अफ़ज़ाई करें। मध्‍यप्रदेश के हर पत्रकार का हमे रहेगा इंतज़ार। हम सब मिलकर पत्रकारों के हक़ की आवाज़ को  बुलन्द करेंगे और 50 साल से सरकार की कैद में दम तोड़ती पत्रकारिकता को आज़ादी दिलवाएंगे। 11तारीख़ भूल न जाना, भोपाल आना, भोपाल आना!”

इस संदर्भ में पत्रकार गंगा पाठक ने एक संदेश लिखा है जो उन तमाम पत्रकार साथियों के नाम है जो मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग की कार्यशैली और स्वेच्छाचारिता से क्षुब्ध हैं।

”जनसंपर्क विभाग हैं कहां साहब! अब तो जनसंपर्क के नाम पर कथित महत्वपूर्ण लोगों की चापलूसी करने वाला एक गिरोह चल रहा है। इस गिरोह के मन में जो आता है, वही किया जाता है। जहां तक पत्रकारों की बात है तो मध्यप्रदेश में जनसंपर्क विभाग ने पत्रकारों को जाने कब का हाशिये में रख दिया है। पत्रकारों की परिभाषा बदल दी गई है, वरिष्ठता के मापदण्ड विसर्जित कर दिये गये हैं, अधिमान्यता की बोली लगाई जा रही है। इस सबके बावजूद सब खामोश हैं। सरकार खामोश है, सूचना मंत्री और उनका मंत्रालय खामोश है, पत्रकारों के कथित संगठन खामोश हैं। इन लोगों की खामोशी तो एक हद तक बर्दाश्त की जा सकती है लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना यह कि मध्यप्रदेश का पत्रकार खामोश है, कलम की धार खामोश है, श्रमजीवी खामोश है। इस खामोशी को तोडऩा होगा, कलम की धार बिचौलियों के आगे कमजोर पड़ गई है, इस मिथक को तोडऩा होगा।

जनसंपर्क विभाग बुरी तरह बीमार है, उसकी सोच फालिज का शिकार है, उसकी कार्यशैली में चापलूसी और दलाली की गंध आती है, उसकी नीतियों में पत्रकारों को छोड़कर सब कुछ नजर आता है। ये मध्यप्रदेश है हुजूर, जहां पत्रकारों को छोड़कर चाहे जिसको अधिमान्यता की रेवड़ी दी जाती है, जहां आधे से ज्यादा अधिमान्यताएं उन चेहरों पर चिपकाई गई हैं, जो या तो अवांछित गतिविधियों में संलिप्त है, या फिर जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक सरोकार नहीं रहा। ये खेल लगातार जारी है। ईमानदारी से काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकार न तो अच्छा पारिश्रमिक प्राप्त कर पाते हैं और न अधिमान्यता! दूसरी ओर चापलूसी और दलाली की भरपूर कीमत वसूलने वाले अधिमान्यता का तमगा मुफ्त में पा जाते हैं। इसी वजह से अखबार के संचालकों को अपनी जेब में रखने की दम्भोक्ति का उद््घोष करने वाले जनसंपर्क विभाग को पत्रकारिता में पत्रकार छोड़ सब दिखता है।

जब अधिमान्यता के लिये यह गोरखधंधा चल रहा हो तो अधिमान्यता देने के लिये गठित समितियों के गठन और उसके वजूद पर सवाल उठाना बेमानी है। अधिमान्यता ही जब एप्रोच और चापलूसी की कसौटी पर परख कर दी जा रही है तो इन कमेटियों में स्थान देने की नीति इससे परे नहीं हो सकती। सब कुछ हो रहा है, बेखटके हो रहा है। ऐसा नहीं है कि सही मायनों में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार अधिमान्य पत्रकारों की सूची में नहीं हैं, ऐसा नहीं कि मध्यप्रदेश में तमाम पत्रकार जनसंपर्क विभाग की आरती गा रहे हैं और ऐसा भी नहीं है कि मध्यप्रदेश की पत्रकारिता की धार के आगे जनसंपर्क विभाग का कोई अस्तित्व है।

दरअसल मध्यप्रदेश के पत्रकारों ने मध्यप्रदेश जनसंपर्क की अधिमान्यता की मान्यता को ही नकार दिया है। साफ लफ्जों में मध्यप्रदेश में अधिमान्यता की मान्यता पत्रकारों ने निरस्त कर दी है। अब पत्रकारों से ज्यादा चिन्ता सूचना मंत्रालय और मध्यप्रदेश सरकार को होना चाहिये कि वे सरकारी अधिमान्यता को पुन: मान्यता किस तरह दिलवायें, अधिमान्यता का सम्मान उठाने के लिये कौन से कदम उठाये जाएं।  हम पत्रकारों को चाहिये कि जनसंपर्क में चल रहे तथाकथित गुटों को बेनकाब कर दें, हम पत्रकारों को चाहिये कि अंदर से काले चेहरों पर डली सफेद नकाबों को नोंच लिया जाये। और पत्रकारों को चाहिये कि पत्रकारों के नाम पर हर साल खर्च होने वाली भारी भरकम राशि को डकारने वाले इस विभाग से हमेशा-हमेशा के लिये खदेड़ दिये जाएं।

अब यही होगा। हम सबको मिलकर यही करना चाहिये। जिसके पास जो अधिकृत जानकारी हो, उसे वह सार्वजनिक करे, घोटाले सप्रमाण सामने लाये जायें, अपने पत्रकार संगठनों को उन पर ज्ञापन सौंपने को कहा जाये और जब तक ‘दे दनादन’ वाली कार्रवाई न हो, कोई खामोश न बैठे। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो हम भी ‘कथित पत्रकारों’ की सूची में शामिल माने जायेंगे और सरकार पत्रकारों पर होने वाले भारी भरकम खर्च की बदौलत हमें भी ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ वाली कहावत में शामिल कर लेगी।”

– गंगा पाठक

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