लखनऊ के पत्रकार नेताओं को बस मुफ़्त बिरयानी से मतलब !

Mediavigil Desk
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Upwju मे अंधेरगर्दी

मुतवल्ली बन कर फ्री की बिरयानी खाने वाले नमाज ही नही पढते !

श्रमजीवी पत्रकार यूनियन आखिर है क्या ? इसको समझो-जानो इसके बाद इसकी लोकल इकाइ से जुड़ो। upwju के प्रदेश अध्यक्ष हसीब सिद्दीकी ने किसी से ये नसीहत की।और बस सिद्दीकी साहब की इस सलाह पर वो शख्स upwjuको जानने समझने मे जुट गया।उस सख्स को इससे पहले तो बस ये पता था कि रोज दस्तरखान की मुफ्त मे बिरयानी खाने का मतलब है upwju। इतनी सी जानकारी को मैने आगे बढ़ाते हुए बताया – upwju का मतलब ऐसी elected body जिसमे चुनाव के अजब-गजब करिश्मे है। मसलन जो जीत गया वो फिर कभी हार नही सकता।अपनी कुर्सी के साथ वो अजेय हो जाता है और उसका ओहदा अमर। ( इसके ओहदेदार बीस बीस-तीस तीस साल से अपनी-अपनी कुर्सियो से चिपके हुए है।) upwju मे इस परम्परा को चलाने की भी बखूबी कोशिश की जाती है कि इसके वोटर आदिकाल (मतलब पुराने से पुराने) के हो। आम चुनाव मे जनरल body को सूचित ही नही किया जाता है। अपना गोल ही चुनाव लड़ता भी है और चुनाव का वोटर भी सिर्फ वही होता है। इस तरह की अनियमितताओ की इतनी लम्बी और इतनी मजाहिया फेरिस्त है कि लिखता चलुँ तो पूरी novel हो जाये। अगर चंद बातो के साथ upwju की चर्चा खत्म करनी है तो इसकी जायज, अच्छी और सराहनीय गतिविधियों का जिक्र करें। मसलन एक मई को मजदूर दिवस का आयोजन। दूसरा- किसी वरिष्ठ पत्रकार या यूनियन लीडर के देहांत पर शोक सभा।
खैर हसीब सिद्दीकी साहब की नसीहत लेकर वो शख्स जब मेरे पास आया तो मैने अपने नजरिये से upwju का मतलब समझाया- किसी ट्रेड यूनियन का सबसे खास, सबसे जरूरी और सबसे अहम मकसद ये हे कि श्रमजीवी मजदूर, कर्मचारी या पत्रकार इत्यादि का हक ना छीना जाये।उनके काम ( नौकरी) और वेतन और सुरक्षा का हनन न हो।उद्योगपतियो, पूँजीपतियो, मालिक, मैनेजमैन्ट और सरकार इत्यादि द्वारा कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ लड़ने और कर्मचारियों को उनका हक दिलवाने के लिये ट्रेड यूनियनो का जन्म होता था।
मै बताता चलुँ की मै 20-22 सालो से लखनऊ के तकरीबन 9 जाने-पहचाने मीङिया समूहों के सम्पादकीय विभाग में लोकल रिपोर्ट से लोकल इन्चार्ज, ब्यूरो रिपोर्ट, ब्यूरो चीफ, न्यूज एडीटर से लेकर एडीटर के पदो पर रहा। इस दौरान तमाम अखबारो-न्यूज चैनलो मे पत्रकारों के शोषण, वेतन न मिलने के दर्दनाक वाकियो को बहुत करीब से देखा, महसूस किया। अपने कैरियर के शुरुआती दो-चार सालों के दरमियान ही 1998 यानी 19 साल पहले स्वतंत्र भारत अखबार के कर्मचारी आन्दोलन मे मै खुद शरीक था। इतने तजुरबो के आधार पर दावे के साथ कह रहा हूँ कि ifwj ने किसी भी पत्रकार के शोषण के खिलाफ कोई लड़ाई नही लड़ी।जबकि किसी भी ट्रेड यूनियन के अस्तित्व का मकसद ही उस क्षेत्र के कर्मचारियों के हक की लड़ाई लड़ना ही है। आजकल न जाने कैसे-कैसे लोग अखबार-चैनल शुरु करते है। उसमे पत्रकारों की भर्तियाँ होती है। दो-चार महीने वेतन मिलने के बाद वेतन मिलना बंद हो जाता है। आज-कल, आज-कल …और तारीख पर तारीख… के इन्तजार में लम्बा वेतन बकाया हो जाता है।फिर मालिक या मैनेजमेंट भुक्तभोगी पत्रकारों से कहता है कि अखबार/चैनल के नाम पर वसूली करो-ब्लैकमेलिँग करो और अपनी तनख्वाह निकोलो।
लखनऊ में ये हाल्त बरसो से चल रहे है। श्रीटाइम्स और अन्य कई संस्थर्मानो से जुड़े पीड़ित पत्रकार अक्सर भुक्तताभोगी पत्रकार मुझे बताता है/ पूछते है – इतने महीने से वेतन नही मिला…… इतने महीने से बकाया वेतन देने का झूठा वादा किया जा रहा है। डीएम आफिस मे कहाँ किससे शिकायत करे। क्या वेतन की माँग को लेकर कोर्ट जा सकते है? क्या प्रेस काउन्सिल हमारी कुछ मदद करेगी ? आर एन आई / डीएवीपी में शिकायत करने से कुछ हासिल होगा। लेबर कोर्ट मे वेतन न मिलने की शिकायत लेकर गये थे। वहाँ से नोटिस भी भेजा गया, फिर भी अभी तक बकाया तन्खवाह नही मिली।
आज की पत्रकारिता के जंगलो मे भटकते सैकड़ों युवा पत्रकारों मे से किसी की भी कभी भी upwju ने क्या कोई मदद की ? ऐसे हालात मे ये पत्रकार कहाँ जाये, क्या करे। अपने कैरियर के 4-6 वर्षों मे ही ये पत्रकार निराश हो जाते है। भटक रहे हैं। कहा जाये ? इनके पास तो मलाईदार upwju का आफिस/कुर्सी/ ओहदा भी नही है। जिसकी मुजाविरी करे। नमाज पढ़े नही और मुतावल्ली बन कर खैरात बटोरे।हर रोज फ्री की बिरयानी सूते।
खैर जिस शख्स को हसीब सिद्दीकी साहब ने upwju के बारे मे जानने समझने की नसीहत दी थो उस शख्स को मैने भी एक सलाह दे डाली।कहा लखनऊ के शोषित- पीड़ित और बकाया वेतन वाले पत्रकारों को upwju के हसीब सिद्दीकी साहब के पास ले जाया करो। और बताओ की upwju के बारे मे इतना जान गया हू कि जो आप भूल रहे वो भी आपको समझा दूँ। आप जिस कुर्सी पर बैठे है, जिस ओहदे पर काबिज है उसकी पहली और आखिरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी ये है कि कि मालिक, सरकार या मैनेजमेन्ट किसी श्रमजीवी पत्रकार का हक न मारे, शोषण न करे, वेतन न रोके। हसीब साहब आपके लिये सलाह है कि किसी ट्रेड यूनियन वर्कर की तरह अब काम भी करिये। बाहर निकलये। वेतन ना देने वाले मालिकों/मैनेजमेंट से मिलिंये, उनपर दबाव बनाइये।मौजूदा हालात के मारे मीडिया कर्मचारियों को लेकर लेबर कोर्ट जाईये। बकाया वेतन के लिये दर दर भटक रहे सैकड़ों पत्रकारों की कानूनी लड़ाई लड़िये।उन्हे उनका हक दिलवाने के लिये सड़कों पर उतरिये। ये सब जरुरी इसलिये है कि बिरयानी खाने वाले कुर्सी पर बैठे रहेंगे तो बिरयानी हजम कोसे होगी। क्रमश:

.नावेद शिकोह

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