श्रम सम्मेलन तीसरी बार टाले जाने से मजदूर संगठन ख़फ़ा, 15 मार्च को देशव्यापी हड़ताल

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भारतीय श्रम सम्मेलन को अनिश्चितकाल के लिए टालकर सरकार श्रमिकों की समस्याओं के
समाधान से भाग रही है

26 और 27 फरवरी को 47वां भारतीय श्रम सम्मेलन का आयोजन होना था. लेकिन आखिरी वक्त पर सरकार ने इसे अनिश्चितकाल के लिए टालने का निर्णय लिया. मीडिया में आई खबरों के मुताबिक यह निर्णय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहयोगी भारतीय मजदूर संघ की वजह से लिया गया. भारतीय मजदूर संघ इस सम्मेलन का बहिष्कार करने वाला था और सरकार इस वजह से होने वाली किरकिरी से बचना चाहती थी. हालांकि, भारतीय मजदूर संघ के अलावा दूसरे संगठनों द्वारा की जा रही दो मांगों पर लोगों का खास ध्यान नहीं गया. सम्मेलन में शामिल हो रहे संगठनों की पहली मांग यह थी कि कांग्रेस से संबद्ध इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस को भी सम्मेलन में बुलाया जाए. ये संगठन ठेका मजदूरी को बढ़ावा देने वाली अधिसूचना का भी विरोध कर रहे थे. सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों को लेकर इन संगठनों ने 15 मार्च को देशव्यापी मजदूर हड़ताल का भी आह्वान किया है. भारतीय मजदूर संघ इसमें शामिल नहीं होगा.

यह सम्मेलन दो साल के अंतराल के बाद होना था. 2015 के बाद आयोजित हो रहा यह सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि देश के मजदूर कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. निश्चित समायवधि के लिए रोजगार देने के जो नियम सरकार ने बनाए हैं, उससे हर क्षेत्र में किसी खास परियोजना के लिए श्रमिकों को ठेके पर रखना बेहद आम हो जाएगा. पहले यह सुविधा सिर्फ वस्त्र तैयार करने के क्षेत्र में थी. वित्त मंत्रालय का कहना है कि इससे ईज आॅफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबार में आसानी बढ़ेगी. जबकि श्रमिक संगठनों का कहना है कि इससे श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग ठेका मजदूर बन जाएगा. कई राज्यों ने भी श्रम कानूनों में ऐसे संशोधन किए हैं जिनसे नौकरी की सुरक्षा कम हुई है. कोड आॅफ वेजेज विधेयक लोकसभा में 2017 के मध्य में पेश किया गया था. इसके तहत राष्ट्रीय स्तर पर एक न्यूनतम मजदूरी तय करने का प्रावधान है लेकिन राज्य सरकारों को न्यूनतम मजदूरी अलग से तय करने का भी अधिकार है. पहले के दो श्रमिक सम्मेलनों द्वारा मजदूरी तय करने के जो फाॅर्मूला सुझाया गया था, उस पर भी इस विधेयक में कुछ नहीं कहा गया. कारोबारी वर्ग के कुछ लोगों ने भी विधेयक का विरोध किया है. मजदूरों के विरोध के बावजूद कैबिनेट ने इसे मंजूरी दे दी है.  भारतीय मजदूर संघ समेत तकरीबन हर श्रमिक संगठन ने 2018-19 के आम बजट की आलोचना यह कहते हुए की है कि इसमें श्रमिकों के लिए कुछ नहीं किया गया और काॅरपोरेट घरानों की कर चोरी रोकने का कोई उपाय नहीं किया गया. साथ ही रोजगारों के सृजन और कामकाजी परिस्थितियां सुधारने का उपाय नहीं होने की वजह से भी इन संगठनों ने बजट की आलोचना की है.

नरेंद्र मोदी सरकार की श्रम नीतियों की सार्वजनिक आलोचना करके भारतीय मजदूर संघ ने सभी को हैरान कर दिया. लेकिन यह अहम मसलों पर दूसरे श्रमिक संगठनों के साथ मिलकर विरोध प्रदर्शन को भी तैयार नहीं है. केंद्र सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों को लेकर दूसरे संगठनों द्वारा सितंबर, 2015 और नवंबर, 2017 में आयोजित राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन में भारतीय मजदूर संघ नहीं शामिल हुआ. 15 मार्च के विरोध में भी यह शामिल नहीं हो रहा. एक वेबसाइट के मुताबिक भारतीय मजदूर संघ सिर्फ मजदूरों के कल्याण के लिए समर्पित है और राजनीति करने में इसकी कोई दिलचस्पी नहीं है. अभी यह देखा जाना बाकी है कि कैसे अराजनीतिक तौर पर यह संगठन इस काम को अंजाम देता है. सरकार ने इंटक के अंदर नेतृत्व के विवाद को वजह बताते हुए खुद को बैठकों से अलग रखा है और सम्मेलन टाल दिया है. इंटक का मामला अभी दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहा है. सरकार ने इस मामले में बाकी संगठनों द्वारा लिखे गए पत्र को भी दरकिनार कर दिया है.

पहला श्रम सम्मेलन 1942 में हुआ था. उस वक्त इसका मकसद यह था कि श्रमिकों और नियोक्ताओं को साथ लिया जाए ताकि द्वितीय विश्व युद्ध में संयुक्त कोशिशों को बल मिले. कई मजदूर नेता इस सम्मेलन को सिर्फ रस्म अदायगी मानते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक महत्वपूर्ण त्रिपक्षीय मंच है. इसमें श्रमिकों और नियोक्ताओं के अलावा केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की भी हिस्सेदारी रहती है. आम तौर पर सम्मेलन का उद्घाटन प्रधानमंत्री करते आए हैं. इस मंच का इस्तेमाल श्रमिक और नियोक्ता जरूरी मसलों पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने के लिए करते हैं. स्थगित सम्मेलन के एजेंडे में रोजगार सृजन, श्रम कानून संशोधन और श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसे विषय शामिल थे. ठेका मजदूरी और सरकारी कंपनियों के विनिवेश जैसे स्थायी मुद्दों पर भी बातचीत होनी थी. यह संभव है कि सरकार ने भारतीय मजदूर संघ के बहिष्कार का इस्तेमाल करके खुद को उस किरकिरी से बचा लिया जो बाकी संगठनों के बहिष्कार के बाद होती. यह भी संभव है कि संसद से श्रम कानूनों को पारित कराने से पहले सरकार सवालों से बचना चाहती हो और इसलिए उसने सम्मेलन टाल दिया. वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि सरकार की नजर में श्रमिक संगठनों और उसके नेतृत्व के लिए कोई सम्मान नहीं है.

भारतीय श्रमिक संगठन सदस्यता के मामले में संकट झेल रहे हैं. इसकी वजह रोजगार विहीन विकास, रोजगार सृजन में भारी कमी और अनौपचारिक क्षेत्रों में बढ़ता रोजगार है. सरकार न तो संसद के अंदर और न ही बाहर मजदूरों के मसलों पर बातचीत करना चाहती है. ऐसे में श्रमिक संगठनों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह लोगों के बीच जाएं और संयुक्त तौर पर सरकार से अपनी बात मनवाने की कोशिश करें.


इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली का सम्पादकीय,  Vol. 53, Issue No. 9, 03 Mar, 2018