पूँजी का सिस्टम नकारे बिना जेपी के कॉरपोरेट चेलों से कैसे लड़ पाएँगे पत्रकार !

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   संघर्ष की मुनादी के लिये 72 बरस के बूढ़े का इंतज़ार, इंदिरा गांधी कला केन्द्र से प्रेस क्लब तक..

(पुण्य प्रसून बाजपेई)

‘’खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का / हुकुम शहर कोतवाल का… / हर खासो-आम को आगह किया जाता है / कि खबरदार रहें / और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से / कुंडी चढा़कर बन्द कर लें /गिरा लें खिड़कियों के परदे /और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें /क्योंकि , एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में / सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !’’

धर्मवीर भारती ने ‘मुनादी’ नाम से ये कविता नंवबर 1974 में जयप्रकाश नारायण को लेकर तब लिखी जब इंदिरा गांधी के दमन के सामने जेपी ने झुकने से इंकार कर दिया । जेपी इंदिरा गांधी के करप्शन और तानाशाही के खिलाफ सड़क से आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे । और संयोग देखिये या कहें विडंबना देखिये कि 43 बरस पहले 5 जून 1974 को जेपी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया और 5 जून 2017 को ही दिल्ली ने हालात पलटते देखे । 5 जून को ही इंदिरा गांधी की तर्ज पर मौजूदा सरकार ने निशाने पर मीडिया को लिया । सीबीआई ने मीडिया समूह एनडीटीवी के प्रमोटरों के घर-दफ्तर पर छापा मारा और 5 जून को ही संपूर्ण क्रांति दिवस के मौके पर दिल्ली में जब जेपी के अनुयायी जुटे तो उन्हे जगह और कहीं नहीं, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में मिली । यानी जिस दौर में जेपी के आंदोलन से निकले छात्र नेता ही सत्ता संभाल रहे हैं, उस वक्त भी दिल्ली में जेपी के लिये कोई इमारत कोई कार्यक्रम लायक हॉल नहीं है जहा जेपी पर कार्यक्रम हो सके । तो जेपी का कार्यक्रम उसी इमारत में हुआ जो इंदिरा गांधी के नाम पर है ।

जो सरकार या नेता अपने ईमानदार और सरोकार पंसद होने का सबूत इंदिरा के आपातकाल का जिक्र कर देते हैं, उसी सरकार , उन्हीं नेताओं ने भी खुद को इंदिरा गांधी की तर्ज पर खडा करने में कोई हिचक नहीं दिखायी। इमरजेन्सी को लोकतंत्र पर काला धब्बा मान कर जो सरकार मीडिया पर नकेल कसने निकली उसने खुद को ही जब इंदिरा के सामानातंर खडा कर लिया तो क्या ये मान लिया जाये कि मौजूदा वक्त ने सिर्फ इमरजेन्सी की सोच को परिवर्तित कर दिया है । उसकी परिभाषा बदल दी है । हालात उसी दिशा में जा रहे हैं ?

ये सवाल इसलिये क्योंकि इंदिरा ने तो इमरजेन्सी के लिये बकायदा राष्ट्रपति से दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाये थे लेकिन मौजूदा वक्त में कोई दस्तावेज नहीं है । राष्ट्रपति के कोई हस्ताक्षर नहीं है । सिर्फ संस्थानों ने कानून या संविधान के अनुसार काम करना बंद कर दिया है । सत्ता की निगाहबानी में तमाम संस्थान काम कर रहे हैं। तो इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि जेपी का नाम भी लेंगे और जेपी के संघर्ष के खिलाफ भी खड़े होंगे। इंदिरा का विरोध भी करेंगे और इंदिरा के रास्ते पर भी चलेंगे । दरअसल संघर्ष के दौर में जेपी के साथ खडे लोगों के बीच सत्ता की लकीर खिंच चुकी है । क्योंकि एक तरफ वैसे हैं जो सत्ताधारी हो चुके हैं और सत्ता के लिये चारदीवारी बनाने के लिये अपने एजेंडे के साथ हैं, तो दूसरी तरफ वैसे हैं जो सत्ता से दूर हैं और उन्हे लगता है कि सत्ता जेपी के संघर्ष का पर्याय नहीं थी बल्कि क्रांति सतत प्रक्रिया है।

इसीलिये दूसरी तरफ खड़े जेपी के लोगों में गुस्सा है। संपूर्ण क्रांति दिवस पर जेपी को याद करने पहुंचे कुलदीप नैयर हों या वेदप्रताप वैदिक, दोनो ने माना कि मौजूदा सत्ता जेपी की लकीर को मिटा कर आगे बढ रही है। वहीं दूसरी तरफ मीडिया पर हमले को लेकर दिल्ली के प्रेस क्लब में 9 जून को जुटे पत्रकारो के बीच जब अगुवाई करने बुजुर्ग पत्रकारों की टीम सामने आई तो कई सवालों ने जन्म दे दिया। मसलन निहाल सिंह , एचके दुआ, अरुण शौरी , कुलदीप नैयर , फली नरीमन सरीखे पत्रकारों, वकीलों, जो जेपी के दौर में संघर्षशील थे, उन्होंने मौजूदा वक्त के एहसास तले 70-80 के दशक को याद कर तब के सत्ताधारियों से लेकर इमरजेन्सी और प्रेस बिल को याद कर लिया तो लगा कि जैसे सिर्फ धर्मवीर भारती की कमी है,जो मुनादी लिख दें तो देश में नारा लगने लगे कि सिंहासन खाली करो की जनता आती है !

लेकिन ना तो इंदिरा गांधी कला केन्द्र में संपूर्ण क्रांति दिवस के जरीय जेपी को याद करते हुये और ना ही प्रेस क्लब में अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल पर भागीदारी के लिये जुटे पत्रकारो को देखकर कहीं लगा कि वाकई संघर्ष का माद्दा कहीं है, क्योकि सिर्फ मौजूदगी संघर्ष जन्म नहीं देती । संघर्ष वह दृष्टि देती है जिससे 72 बरस की उम्र में जेपी ने ‘संघर्ष वाहिनी’ से लेकर तमाम युवाओ को ही सडक पर खडा कर उनके हाथ संघर्ष की मशाल थमा दी । मशाल थामने वालो ने भी माना कि कोई गलत रास्ता पकडेंगे तो जेपी रास्ता दिखाने के लिये हैं।

लेकिन मौजूदा वक्त का सब बडा सच संघर्ष ना होकर मशाल थामने की वह होड़ है जो सत्ता से सौदेबाजी करते हुये दिखे और सत्ता जब अनुकुल हो जाये तो उसकी छाँव तले अभिव्यक्ति की आजादी के नारे भी लगा लें और इंदिरा गांधी कला केन्द्र के कमान भी संभाल लें । अंतर दोनों में नहीं है । एक तरफ इंदिरा गांधी कला केन्द्र में जेपी का समारोह कराके खुश हुआ जा सकता है कि चलो कल तक जहाँ सिर्फ नेहरु से लेकर राजीव गांधी के गुण गाये जाते थे, अब उस इमारत में जेपी का भूत भी घुस चुका है। और प्रेस क्लब में पत्रकारों के जमावड़े को जेखकर खुश हुआ जा सकता है चलो सत्ता के खिलाफ संघर्ष की कोई मुनादी सुनाई तो दी ।

वाकई ये खुश होने वाला ही माहौल है, संघर्ष करने वाला नहीं, क्योकि जेपी के अनुयायी हों या मीडिया घराने संभाले मालिकान, दोनों अपने अपने दायरे में सत्ताधारी हैं, और सत्ताधारियो का टकराव तभी होता है जब किसी एक की सत्ता डोलती है या दूसरे की सत्ता पहले वाले की सत्ता के लिए खतरे की मुनादी करना लगती है।  इसका ये मतलब कतई नहीं कि सत्ता ईमानदार हो गई है या सत्ता सरोकार की भाषा सीख गई है । ये खुद में ही जेपी और खुद में ही इंदिरा को बनाये रखने का ऐसा हुनर है जिसके साये में कोई संघर्ष पनप ही नहीं सकता है ।

दोनो तरफ के हालात को ही परख लें । मसलन जेपी के सत्ताधारी अनुनायियों की फेहरिस्त को परखें तो आपके जहन में सवाल उठेगा कि चलो अच्छा ही किया जो जेपी के संघर्ष में इनके साथ खडे नहीं हुए। लालू यादव, रामविलास पासवान, राजनाथ सिंह , रविशंकर प्रसाद , नीतीश कुमार से लेकर नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि मौजूदा केन्द्र में दर्जनों मंत्रियों के साथ-साथ बिहार-यूपी और गुजरात में मंत्रियो की लंबी फेरहिस्त मिल जायेगी जो खुद को जेपी का अनुयायी, उनके संघर्ष में साथ खडे होने की बात कहेंगे । और दूसरी तरफ जो मीडिया समूह घरानों में खुद को तब्दील कर चुके है वह भी इंदिरा के आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने के अनकहे किस्से लेकर मीडिया मंडी में घुमते हुये नजर आ जायेंगे । बीजेपी के तौर तरीके इंदिरा के रास्ते पर नजर आ सकते है और काग्रेस का संघर्ष बीजेपी के इंदिराकरण का विरोध दिखायी दे सकता है ।

इंदिरा का राष्ट्रवाद संस्थानों के राष्ट्रीयकरण में छुपा था। मौजूदा सत्ता का राष्ट्रवाद निजीकरण में छुपा है। इंदिरा के दौर में मीडिया को रेंगने कहा गया तो वह लेट गया और मौजूदा वक्त में मीडिया को साथ खडे होने कहा जा रहा है तो वह नतमस्तक है। इंदिरा के दौर में मीडिया की साख ने मीडिया घरानो को बडा नहीं किया था। लेकिन मौजूदा दौर में पूंजी ने मीडिया को विस्तार दिया है उसकी सत्ता को स्थापित किया है। इंदिरा गांधी के सामने सत्ता के जरिये देश की राजनीति को मुठ्ठी में करने की चुनौती थी, मौजूदा वक्त में सत्ता के सामने पूंजी के जरिये देश के लोगों को अपनी राजनीति के एजेंडे तले लाने की चुनौती है । तब करप्शन का सवाल था । तानाशाही का सवाल था । अब राजनीतिक एजेंडे को देश के एजेंडे में बदलने का सवाल है। सत्ता को ही देश बनाने- मनवाने का सवाल है। तब देश में सत्ता के खिलाफ लोगों की एकजुटता ही संघर्ष की मुनादी थी । अब सत्ता के खिलाफ पूँजी की एकजुटता ही सत्ता बदलाव की मुनादी इसीलिए मनमोहन सिंह को गवर्नेंस का पाठ पढ़ाने से कॉरपोरेट घराने नहीं चूके थे । 2011-12 में देश के 21 कॉरपोरेट बाकायदा पत्र लिखकर सत्ता को चुनौती देते हैं और मौजूदा वक्त में कारपोरेट की इसी ताकत को सत्ता अपने चहेते कॉरपोरेट में समेटने के लिये प्रयासरत है।

तो लडाई है किसके खिलाफ़ ? लड़ा किससे जाये ? किसके साथ खड़ा हुआ जाये ? इस सवाल को पूँजी की सत्ता ने इस कदर लील लिया है कि कोई संपादक भी किसी को सत्ताधारी का दलाल नजर आ सकता है और कोई सत्ताधारी कारपोरेट का दलाल नजर आ सकता है। लोकतंत्र की परिभाषा वोटतंत्र में इस तरह जा सिमटी है कि जीतने वाले को ये गुमान होता है कि चुनावी जीत सिर्फ राजनीतिक दल की जीत नहीं बल्कि देश जीतना हो चुका है, और उसकी मनमर्जी से ही अब लोकतंत्र का हर पहिया घूमना चाहिये। उधर लोकतंत्र के हर पहिये को लगने लगा है कि राजनीतिक सत्ता से आगे फिर वही वोटतंत्र है जिसपर राजनीतिक सत्ता खड़ी है तो वह करे क्या। ये ठीक वैसे ही है जैसे एक वक्त राडिया टेप सिस्टम था । एक वक्त संस्थानों को खत्म करना सिस्टम है । एक वक्त बाजार से सबकुछ खरीदने की ताकत विकास था । एक वक्त खाने-जीने को तय करना विकास है । एक वक्त मरते किसानों के बदले सेंसेक्स को बताना ही विकास था । एक वक्त किसान-मजदूरो में ही विकास खोजना है। सिर्फ राजनीतिक सत्ता ने ही नहीं हर तरह की सत्ता ने मौजूदा दौर में सच है क्या ?..  ठीक है क्या ?  संविधान के मायने क्या है ? कानून का मतलब होना क्या चाहिये ? आजादी शब्द का मतलब हो क्या ? …को लेकर  भ्रम पैदा किया और उस भ्रम को ही सच बताने का काम सियासत करने लगी। इसी के सामानांतर अगर मीडिया की सत्ता को समझें तो राजनीतिक सत्ता या कहे राजनीतिक पूँजी का सिस्टम उसकी जरुरत बना दी गई ।

प्रेस क्लब में अरुण शौरी, इंदिरा-राजीव गांधी के दौर को याद कर बताते हैं कि कैसे अखबारो ने तब सत्ता का बॉइकॉट किया। प्रेस बिल के दौर में जिस नेता-मंत्री ने कहा कि वह प्रेस बिल के साथ हैं, उसकी प्रेस कान्फ्रेस से पत्रकारों ने उठकर जाने का रास्ता अपनाया । लेकिन प्रेस क्लब में जुटे मीडिया कर्मीयो में जब टीवी पत्रकारों के हुजूम को देखा तो ये सवाल जहन में आया कि क्या बिना नेता-मंत्री के टीवी न्यूज चल सकती है ? क्या नेताओं-मंत्रियों का बॉइकॉट कर चैनल चलाये जा सकते हैं ? क्या सिर्फ मुद्दों के आसरे , खुद को जनता की जरुरतो से जोडकर खबरो को परोसा जा सकता है ? जी हो सकता है । लेकिन पहली लड़ाई संस्थानों को बचाने की लड़नी होगी । फिर चुनावी राजनीति को ही लोकतंत्र मानने से बचना होगा । पूँजी पर टिके सिस्टम को नकारने का हुनर सिखना होगा । जब सरकार से लेकर नेताओं के स्पाँसर मौजूद हैं तो प्रचार के भोंपू के तौर पर टीवी न्यूज चैनलों के आसरे कौन सी लडाई कौन लडेगा ? जेपी की याद तारीखो में सिमटाकर इंदिरा कला केन्द्र अमर है तो दूसरी तरफ प्रेस क्लब में इंदिरा की इमरजेन्सी को याद कर संघर्ष का रईस मिजाज भी जीवित है !

मनाइये सिर्फ इतना कि जब मुनादी हो तब धर्मवीर भारती की कविता ‘ मुनादी ‘ के शब्द याद रहें…...बेताब मत हो / तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है / बादश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से / तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए / बाश्शा के खास हुक्म से / उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा / दर्शन करो ! /वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी / बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी / ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा /नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा / और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा / लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में / और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो / ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से / बहा, वह पुँछ जाए ! / बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !



पुण्य प्रसून बाजपेई

(लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं)