बहस: पत्रकारों के लिए अपने संस्थानों की ढाल बनने का नहीं, शर्मिंदा होने का वक़्त है !

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मीडिया विजिल ने कल ‘आज तक’ से जुड़े युवा पत्रकार नितिन ठाकुर का लेख ( ‘बर्बाद’ टी.वी.पत्रकारिता में गुंजाइश तलाशते पत्रकारों का दर्द भी जानिए ! ) छापा था। नितिन ने बताया था कि कैसे तमाम सीमाओं के बावजूद कई टीवी पत्रकार अच्छा काम करते हुए मुसीबतें झेलते हैं। नितिन के मुताबिक ज़रूरी नहीं कि पत्रकार को मालिक के एजेंडे का पता ही हो। इस लेख के जवाब में युपा पत्रकार शाहनवाज़ मलिक ने एक लेख मीडिया विजिल को भेजा है। उन्होंने नितिन के लेख पर कई गंभीर सवाल उठाए हैं। हम इस उम्मीद से यह लेख छाप रहे हैं कि इस बहाने युवा पत्रकारों के बीच पत्रकारिता की स्थिति पर गंभीर बहस होगी । लिखित बहसों की स्थगित परंपरा फिर शुरू होगी, बिना किसी व्यक्तिगत कटुता के। अगर शाहनवाज़ के लेख पर कोई प्रतिवाद आएगा तो हम उसे सहर्ष छापेंगे-संपादक 

 
भारतीय पत्रकारिता उस दौर में है जहां एक मुहावरा ‘गोदी मीडिया’ लोकप्रिय हो चुका है. संपादक और रिपोर्टर अपनी वफ़ादारी साबित करने के लिए अब अमित शाह के साथ भी सेल्फी ले रहे हैं. जो सवाल सरकार और सत्ताधारी दलों से होने चाहिए, गोदी मीडिया के पत्रकार उसके लिए विपक्ष को घेरते नज़र आ रहे हैं. सच छिपा रहे हैं, नफ़रत फैला रहे हैं. जिन पत्रकारों की दिलचस्पी सेल्फी में नहीं है, वे हाशिए पर हैं और जिन्होंने छोटी-मोटी न्यूज़ वेबसाइट्स में अपने लिए कोना तलाश लिया है. मोदी सरकार के दौर में भारतीय पत्रकारिता फिलहाल इसी तरह फलफूल रही है. दो धड़े बने हुए हैं. एक गोदी मीडिया और दूसरा गोदीरहित मीडिया.

एक मज़बूत लोकतंत्र में पत्रकारों को पूरी आज़ादी के साथ काम करने का मौक़ा होना चाहिए. कोई अधिकार नहीं है कि सरकार उन्हें डराने की कोशिश करे और उनकी आवाज़ दबाने के लिए अपनी एजेंसियों से छापेमारी करवाए. किसी धार्मिक, जातीय समूह और छात्र संगठनों को भी ये हक़ नहीं है कि पत्रकारों के कामकाज में रुकावट डालें. पत्रकार जब ड्यूटी पर है तो उसकी वफ़ादारी नागरिकों के प्रति है. वह जिन ख़बरों पर रिपोर्ट करता है, नागरिक उन्हें ही पढ़कर अपने फैसले करते हैं. इस लिहाज़ से पत्रकार एक बेहद ज़रूरी और गंभीर काम में लगा होता है लेकिन क्या गोदी मीडिया को इस सुविधा का लाभ मिलना चाहिए?

जो पत्रकार अपनी ज़िम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभा रहे हैं, जो तरह-तरह के कुकर्मों और धतकर्मों में शामिल हैं, जिनका चरित्र दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी है, जिन्हें इस पेशे के संकट और चुनौती से कोई लेना-देना नहीं है, वे पत्रकारिता की दुहाई कैसे दे लेते हैं? पत्रकार के साथ मारपीट या अभद्रता हमेशा उनके काम के कारण नहीं होती. कई बार वे इसलिए भी दुत्कारे जाते हैं क्योंकि वे पत्रकारिता की आड़ में अजेंडा सेट कर रहे होते हैं. क्या वे पत्रकार कहे जाने के लायक़ हैं जिन्होंने बीते दिनों शशि थरूर की प्रेस कांफ्रेंस में गुंडागर्दी की ? जिन्होंने चारों तरफ से शशि थरूर को तब तक घेरे रखा जब तक वे अपनी कार में बैठकर वहां से निकल नहीं गए. थरूर की हलक में हाथ डालकर जवाब निकालने की कोशिश हो रही थी. क्या इसे पत्रकारिता कहा जाए ? अगर हां तो किस तरह की पत्रकारिता ? ध्यान रहे कि शशि थरूर को इनसे पीछा छुड़ाने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ा और अदालत ने रिपब्लिक टीवी को फटकारा भी.

मगर रिपब्लिक टीवी का ये गुण टीवी के पत्रकारों में मिलना बेहद सामान्य है. टीवी के पत्रकार बेडरूम में घुसकर बाइट लेने के लिए कुख्यात हैं. पिछले साल हाईवे पर बुलंदरशहर गैंगरेप के बाद हिन्दुस्तान टाईम्स की रिपोर्टर अनन्या भारद्वाज ने लिखा कि पीड़ित परिवार हाथ जोड़कर कह रहा है कि कृपया मीडिया उन्हें अकेला छोड़ दे. क्या पत्रकारों को यह ख़बर पढ़कर शर्म नहीं आनी चाहिए थी ?

2015 में एक टेरर केस की रिपोर्टिंग के दौरान जब मैं दिल्ली में आरोपी के घर गया तो पत्रकार सुनते ही आरोपी के घरवाले भड़क गए. परिवार कहने लगा कि किसी टीवी पत्रकार ने झूठ बोलकर उनके बेटे की फोटो हासिल कर ली है और अब टीवी पर उसकी फोटो के साथ आतंकी लिखा हुआ आ रहा है. बाद में दिल्ली पुलिस ने पूछताछ के बाद आरोपी को छोड़ दिया था. जिसने भी ये किया, क्या पत्रकार कहे जाने के लायक़ है ? क्या हम इसलिए अख़बार ख़रीदते हैं या केबल का बिल चुकाते हैं कि ख़बरों के नाम पर उनके साथ धोखाधड़ी की जाए ? वादा सच दिखाने का था और बदले में झूठ परोसा जाए. फर्ज़ी ख़बरों का कारोबार धड़ल्ले से किया जाए. समाज में अराजकता और सांप्रदायिकता फैलाने का धंधा किया जाए.

बार-बार यह तर्क देना कि मीडिया अच्छा काम भी तो कर रहा है मगर यह दो चार काम गिनाकर ख़ुद का बचाव करने का एक भौंडा तर्क है. हिंदी पट्टी की पत्रकारिता का जब ईमानदारी से मूल्यांकन होगा तो स्थिति डूब मरने वाली होगी.

जब बड़े-बड़े पत्रकार अमित शाह के सामने दरबान की तरह हाथ जोड़कर खड़े नज़र आ रहे हैं, खुलेआम सेल्फी ले रहे हैं, पत्रकारों पर सत्ताधारी दल का प्रवक्ता होने का आरोप लग रहा है, तब आज तक के युवा टीवी पत्रकार नितिन ठाकुर ने लिखा, ‘नेताओं और प्रभावशाली लोगों द्वारा मीडिया को निगेटिव संस्था के तौर पर स्थापित कर देने के बाद अब इस काम से मोहभंग हो रहा है.’ मतलब भारतीय पत्रकारिता उस दौर में पहुंच चुकी है जहां नेता और प्रभावशाली हस्तियां मीडिया को एक नेगेटिव संस्था के रूप में सफलतापूर्वक स्थापित कर लेती हैं. फिर तो यह लगभग गुंडाराज है.

नितिन ठाकुर आगे लिखते हैं, ‘ये बात आपको समझनी होगी कि प्रबंधन का इरादा और वहां काम करनेवाले लोगों की नीयत में अधिकांश बार फर्क ही होता है…ज़रूरी नहीं कि प्रबंधन के दूसरे एजेंडे भी वहां काम करने वाले को मालूम ही हों और उनमें वो सक्रिय भी हों. ना ही ये ज़रूरी है कि प्रबंधन को हर बात अपने वहां काम करने वालों से साझा ही करनी पड़े.’

मैं समझता हूँ कि यह तर्क नहीं धूर्तता है। जिस पत्रकार का काम समाज को जागरूक करना होता है, वह अपने मालिक के अजेंडा से ही अनजान होने की बात कर रहा है. अपने बचाव में ऐसी बयानबाज़ी वही कर सकता है जिसे अपने संस्थान की एडिटोरियल लाइन की समझ नहीं या फिर वह शातिर इंसान है. बेहतर है कि जिसे अपने संस्थान का अजेंडा नहीं पता, उसे स्टेनोग्राफर कहा जाए, वह पत्रकार कहलाने के लायक़ नहीं है.

जो गोदीरहित मीडिया है, वहां दबाव इस कदर है कि पीएम के करीबी माने जाने वाले उद्योगपति गौतम अडानी पर स्टोरी छापने के बाद परंजॉय गुहा ठाकुरता जैसे पेशेवर संपादक को इस्तीफ़ा देना पड़ता है और इकोनॉमिक एंड पॉलेटिकल वीकली जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका की साख़ एक झटके में मिट्टी में मिल जाती है. मुख्यधारा के मीडिया मालिकान और संपादकों ने ठाकुरता के साथ खड़े होना या इसके विरोध में दो शब्द कहना ख़तरे से खाली नहीं समझा. फिर काहे का मीडिया और कैसा पत्रकार.

मौजूदा दौर में पत्रकार वही है जिसके मुंह में ज़ुबान है और जिसने अपना ज़मीर बचा रखा हो !

.शाहवनवाज़ मलिक


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