9/11: सत्रह साल पहले की एक घटना जो आने वाले दशकों की थीम बन गई!

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Kent Kobersteen, former Director of Photography of National Geographic
"The pictures are by Robert Clark, and were shot from the window of his studio in Brooklyn. Others shot the second plane hitting the tower, but I think there are elements in Clark's photographs that make them special. To me the wider shots not only give context to the tragedy, but also portray the normalcy of the day in every respect except at the Towers. I generally prefer tighter shots, but in this case I think the overall context of Manhattan makes a stronger image. And, the fact that Clark shot the pictures from his studio indicates how the events of 9/11 literally hit home. I find these images very compellingÑin fact, whenever I see them they force me to study them in great detail."


उज्‍ज्‍वल भट्टाचार्य

एक तस्वीर की तरह 17 साल पहले 11 सितंबर का दिन मेरे सामने उभरता है. मैं जर्मन रेडियो डॉएचे वेले के हिंदी विभाग में पत्रकार था. और साथ ही रेडियो में ट्रेड युनियन का उपाध्यक्ष. दोपहर को युनियन कार्यकारिणी की बैठक के बाद जब विभाग में वापस लौटा, तो हिंदी कार्यक्रम के प्रभारी राम यादव मेरी राह देख रहे थे. पता चला कि अभी-अभी न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के एक टावर से एक जेट विमान टकराया है, मामला आतंकवाद का हो सकता है. कोई डेढ़ घंटे बाद प्रसारण था, हमने तय किया कि समाचारों के अलावा हम पहली रिपोर्ट इसी विषय पर देंगे. फिलहाल बाकी कार्यक्रम योजना के मुताबिक होगा.

हमारी बातचीत चल रही थी, सामने टीवी के पर्दे पर जलते टावर की तस्वीर थी, अचानक और एक हवाई जहाज़ तेज़ी से आते हुए दूसरे टावर से टकराया. यादव जी के गले से आवाज़ निकली, ओह्ह्ह्…..चंद लमहों की खामोशी, उसके बाद मैंने कहा, कार्यक्रम पूरा बदलना है, और प्रसारण के बारे में पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता है. हमें लाइव स्टूडियो में सबकुछ तय करना पड़ेगा.

खड़े-खड़े हमने संपादकीय बैठक निपटाया. मुझे कार्यक्रम प्रस्तुत करने की ज़िम्मेदांरी दी गई. आतंकवादी हमलों के बारे में काफ़ी सामग्री हमारे पास थी, लेकिन मेरा कहना था कि इस बार कुछ भी काम नहीं आने वाला है, यह आतंकवादी हिंसा का एक नया स्तर है, मापदंड बिल्कुल बदल चुका है. एक तकनीकी समस्या यह भी थी कि 45 मिनट तक सिर्फ़ मेरी आवाज़ में कार्यक्रम बेहद ऊबाऊ होगा. हमने वाशिंगटन में अपने संवाददाता से फोन मिलाने की कोशिश की. पता चला कि फोन सेवा जैम हो चुकी है. विभाग के सारे साथी अमेरिका में पत्रकारों और परिचितों को फोन करने की कोशिश में जुट गए. हमें घटनास्थल से निजी अनुभव की ज़रूरत थी, लेकिन कहीं कोई मिल नहीं रहा था.

मुझे स्टूडियो के लिए तैयारी करनी थी. समाचार एजेंसियों की ओर से लगातार रिपोर्टें आ रही थीं, उन्हें परखने की शायद ही गुंजाइश थी. मैंने उन्हें इकट्ठा करना शुरू किया. एक साथी समाचार बुलेटिन तैयार कर रहे थे, बाकी सभी फोन करने में व्यस्त थे. मैंने सोचा, फिलहाल शांत रहना है, देखा जाएगा स्टूडियो में क्या किया जा सकता है.

इतने में साथी महेश झा के टेबुल से आवाज़ आई, वॉयस ऑफ़ अमेरिका के साथी सुभाष वोहरा लाईन पर हैं, तुरंत स्टूडियो में पहुंचिए, मैं कनेक्ट करता हूं. दौड़ते हुए तीन कमरे के बाद स्टूडियो में पहुंचा, किसी दूसरे विभाग के साथी काम कर रहे थे, उनको लगभग धकेलकर बाहर किया, महेश ने स्टूडियो में फोन लाईन कनेक्ट किया. सुभाष से बात शुरू हुई. पता चला कि वे रेडियो भवन की सीढ़ी पर हैं, भवन खाली कराया जा रहा है. कोई नई महत्वपूर्ण सूचना वे नहीं दे पाए. लेकिन वहां कैसा माहौल है, इसकी एक जीती-जागती तस्वीर उभरी. लगभग चार मिनट की बातचीत के बाद साथी वोहरा ने क्षमा मांगते हुए कहा कि सुरक्षा कर्मी उन्हें बाहर निकलने के लिए मजबूर कर रहे हैं. हम दोनों की आवाज़ कांप रही थी, जैसे-तैसे बातचीत ख़त्म हुई.

पांच मिनट का समाचार, चार मिनट की बातचीत, 32-33 मिनट का समय मुझे भरना था लगातार आती खबरों से. उनके विश्लेषण की कोशिश करनी थी. इस बीच पेंटागोन पर हमला हो चुका था. एक विमान यात्रियों सहित गिराया जा चुका था. और हमले हो सकते थे. दिमाग के अंदर सन्नाटा छाया हुआ था. स्टूडियो के अंदर मैं, बाहर तकनीशियन और विभाग के सारे साथी. क्या मैंने कहा था, बिल्कुल याद नहीं है. बाहर निकला तो विभाग के अध्यक्ष फ्रीडमान्न श्र्लेंडर ने कहा, कार्यक्रम ठीक हो गया. अब अगले दिनों और महीनों में भी यही मेन थीम है. एक फीकी मुस्कान के साथ मैंने कहा – अगले सालों में भी.


लेखक जर्मन रेडियो डॉएचे वेले में वरिष्‍ठ संपादक रहे हैं, यह टिप्‍पणी उनकी फेसबुक पोस्‍ट से साभार


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