एक संपादक की आत्महत्या का सबक और संदेश

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अनिल जैन

पिछले दिनों दैनिक भास्कर के समूह संपादक कल्पेश याग्निक की असामयिक मौत पर उन्हें प्रधानमंत्री से लेकर कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों, विभिन्न दलों के नेताओं, पत्रकार मित्रों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों ने श्रद्धांजलि अर्पित की। तरह-तरह से उन्हें याद करते हुए उनकी मौत को लेकर तरह-तरह के कयास भी लगाए गए। इस पूरी आपाधापी में किसी ने भी उनकी मौत का सच जानने-समझने या बताने का जरा भी प्रयास नहीं किया। इससे जाहिर हुआ कि सच को न जानने, न समझने या जानते-बूझते हुए भी उसे छिपाने को लेकर हमारी सामूहिक प्रतिबद्धता कितनी गहरी है!

बहरहाल, अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है और पुलिस भी अपनी जांच पडताल में इसी निष्कर्ष पर पहुंची है कि कल्पेश याग्निक ने आत्महत्या की है। कल्पेश के परिजन भी यही मान रहे हैं, लिहाजा अब इस पर विवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि उनकी मौत दिल का दौरा पडने से हुई या उन्होंने आत्महत्या की।

पचपन वर्षीय कल्पेश याग्निक ने 12 जुलाई की देर रात इंदौर में आगरा-बंबई मार्ग पर स्थित दैनिक भास्कर के भव्य कार्यालय भवन की दूसरी मंजिल से कूदकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कल्पेश के शरीर की कई हड्डियां टूटे होने की बात सामने आई जिससे डॉक्टरों ने संदेह जताया कि यह काफी ऊंचाई से कूदकर आत्महत्या करने का मामला लगता है। बाद में पुलिस ने घटना स्थल की जांच की तो पाया कि कल्पेश ने कार्यालय की दूसरी मंजिल की खिडकी से छलांग लगाकर आत्महत्या की है। जहां से कल्पेश ने छलांग लगाई, वहां लगे एयर कंडिशनर के कंप्रेसर पर जूतों के निशान भी मिले। भास्कर परिसर में लगे सीसीटीवी कैमरों के फुटेज से यह भी साफ हुआ कि कल्पेश कार्यालय परिसर में गिरे मिले, न कि कार्यालय के अंदर, जैसा कि घटना के बाद भास्कर प्रबंधन की ओर से बताया गया था।

प्रारंभिक खबरों में बताया गया था कि सीढियों से उतरते वक्त कल्पेश को दिल का दौरा पडा ओर सीढियों से लुढक गए, जिससे उन्हें कई जगह चोटें आईं। उन्हें तुरंत बॉम्बे हास्पिटल ले जाया गया, जहां इलाज के दौरान उन्हें दूसरी बार दिल का दौरा पडा और उनकी मौत हो गई। यह जानकारी भास्कर प्रबंधन की ओर से दी गई और 13 जुलाई को दैनिक भास्कर में इसी आशय की खबर भी छपी। हालांकि इंदौर से ही प्रकाशित अन्य अखबारों ने अपनी खबर में कल्पेश याग्निक की मौत की वजह आत्महत्या ही बताई थी, लेकिन दैनिक भास्कर कल्पेश की अंत्येष्टि होने के बाद भी अपनी खबर पर ही कायम रहा। लेकिन यह मामला इतना भर नहीं है, बल्कि इस मौत से और इससे जुडी कथाओं-उपकथाओं से संपादक नामक अधमरी हो चुकी संस्था के पतन की गाथा भी सामने आती है और कारपोरेट संस्कृति में रच-बस गए मीडिया घरानों का विद्रूप भी सामने आता है।

पुलिस के मुताबिक कल्पेश की मौत की वजह उनकी ही एक पूर्व सहकर्मी है, जो पिछले कई वर्षों से कुछ ऑडियो और वीडियो क्लिप के सहारे उन्हें परेशान कर रही थी। इस सिलसिले में पुलिस के हाथ कुछ सबूत भी मिले हैं और कुछ गवाहों के बयानों से भी इस बात की पुष्टि हुई है। पुलिस ने अपनी जांच-पडताल के बाद कल्पेश याग्निक के आत्महत्या करने के पीछे जो कारण बताया है, वह यह है कि भास्कर के ही मुंबई स्थित एंटरटेनमेंट ब्यूरो में रिपोर्टर रही सलोनी अरोरा नामक महिला उन्हें पिछले कई वर्षों से ब्लैकमेल कर रही थी, जिससे वे काफी परेशान रहते थे। इस सिलसिले में खुद कल्पेश ने भी आत्महत्या करने से कुछ दिनों पहले छह पेज का एक पत्र अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अजय शर्मा को सौंपा था। इंदौर के पुलिस उप महानिरीक्षक हरिनारायणचारी मिश्र के मुताबिक इस पत्र में कल्पेश ने कहा था कि सलोनी नामक महिला उन्हें कई दिनों से परेशान कर रही है। उन्होंने अनुरोध किया था कि अगर यह महिला उनके खिलाफ किसी किस्म का गंभीर आरोप लगाते हुए कोई शिकायत दर्ज कराती है तो पुलिस उसकी शिकायत पर कोई भी कार्रवाई करने से पहले उनका पक्ष भी सुने। पत्र में सलोनी को प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाले जाने का जिक्र भी था।

सलोनी अरोरा मूल रूप से मध्य प्रदेश के नीमच शहर की रहने वाली है और मुंबई से पहले इंदौर में ही दैनिक भास्कर में काम करती थी। कल्पेश याग्निक की सिफारिश पर ही प्रबंधन ने उसे मुंबई स्थित अपने एंटरटेनमेंट ब्यूरो में कार्य करने के लिए भेजा था, जहां वह दैनिक भास्कर के लिए फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू करती थी। कुछ समय तक उसने वहां काम किया लेकिन उसके बाद किन्हीं कारणों से प्रबंधन ने उसे भास्कर से निकाल दिया। चूंकि वह कल्पेश याग्निक की सिफारिश पर ही मुंबई भेजी गई थी, लिहाजा उसने भास्कर में अपनी नौकरी फिर से बहाल कराने के लिए कल्पेश पर दबाव बनाना शुरू किया। बताया जाता है कि वह सिर्फ फिर से नौकरी ही हासिल करना नहीं चाहती थी बल्कि उसका कहना था कि वह रिपोर्टर की हैसियत से काम नहीं करेगी, बल्कि उसे मुंबई ब्यूरो में संपादक का पदनाम मिलना चाहिए और वह भी इस शर्त के साथ कि वह किसी को रिपोर्ट नहीं करेगी।

कल्पेश याग्निक दैनिक भास्कर में समूह संपादक जरुर थे लेकिन अपने स्तर पर किसी को संपादक के पद पर नियुक्त करने का अधिकार उनके पास नहीं था। फिर यहां तो एक ऐसी महिला से संबंधित मामला था जिसे प्रबंधन के कहने पर ही नौकरी से हटाया गया था, लिहाजा उसको फिर से बहाल करने का फैसला अपने स्तर पर लेने के बारे में तो कल्पेश सोच भी नहीं सकते थे। वैसे भी भास्कर में समूह संपादक का काम प्रबंधन के फैसलों का क्रियान्वयन करने तक ही सीमित रहता है।

सलोनी के दबाव को कुछ समय तक तो कल्पेश टालते रहे लेकिन जब उसने ज्यादा दबाव बनाना शुरू किया तो कल्पेश ने भास्कर प्रबंधन में नंबर दो की हैसियत रखने वाले निदेशक गिरीश अग्रवाल से सलोनी को फिर से नौकरी पर रखने की सिफारिश की लेकिन गिरीश ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। कल्पेश ने गिरीश के इस फैसले की जानकारी जब सलोनी को दी तो उसने धमकी भरे अंदाज में कल्पेश पर दबाव बनाना शुरू किया। बताते हैं कि एक और कोशिश के तहत कल्पेश ने गिरीश के बडे भाई यानी भास्कर समूह के प्रबंध निदेशक सुधीर अग्रवाल से सलोनी को पुन: भास्कर में लेने के लिए बात की, लेकिन सुधीर ने भी अपने छोटे भाई के फैसले का हवाला देते हुए कल्पेश की सिफारिश को खारिज कर दिया।

कल्पेश ने सलोनी को सुधीर के फैसले भी अवगत करा दिया और कहा कि अब उनके हाथ में कुछ नहीं है और वे कुछ नहीं कर सकते। बस, यहीं से सलोनी ने कल्पेश पर बडी रकम देने का दबाव बनाना और ऐसा न करने पर बदनाम करने की धमकी देना शुरु कर दिया। पुलिस के मुताबिक सलोनी की ओर से पहले 25 लाख, फिर एक करोड और फिर पांच करोड रुपए तक की मांग की गई। अपनी मांग पूरी नहीं किए जाने पर वह फोन पर कल्पेश को दुष्कर्म के मामले में फंसाने तथा उनके परिवार को बर्बाद करने की धमकी देती थी। जब कभी कल्पेश उसका कॉल अटेंड नहीं करते थे तो वह ऑडियो क्लिप वाट्सएप के जरिये कल्पेश को भेजकर सेक्स स्कैंडल की वीडियो क्लिप को यूट्यूब पर अपलोड करने की धमकियां देती थी।

इस सिलसिले में कल्पेश याग्निक और सलोनी अरोरा की बातचीत का एक ऑडियो भी पब्लिक डोमेन में आ चुका है, जिसमें पैसे के संबंध में साफ तौर पर तो कोई बात नही हो रही है लेकिन कल्पेश बेहद सुरक्षात्मक अंदाज में तरह-तरह के तर्क देकर गिडगिडाने की हद तक महिला को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि इस ऑडियो से यह जरा भी स्पष्ट नहीं होता कि कल्पेश और उस महिला के बीच कोई रिलेशनशिप रही है या नहीं। पूरा ऑडियो सुनने पर स्पष्ट रूप से लगता है कि ऑडियो को संपादित कर उसमें से महिला के बोले हुए संवाद हटा दिए गए हैं। संपादित ऑडियो में महिला खुद कुछ नहीं बोल रही है, वह बीच-बीच में महज हां-हुं ही कर रही है। कल्पेश कह रहे हैं- ”मैं चाहता हूं कि उसका भविष्य अच्छा रहे (वे किसके भविष्य की बात कर रहे हैं, यह स्पष्ट नहीं है)। मुझे आपकी सब परेशानियां समझ में आ रही हैं। मैंने आपसे कहा भी था कि मुझे कुछ समय दो। अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूं। उन्होंने तो साफ मना कर दिया है, इसलिए वो किस्सा अब खत्म हो गया। अब मैं संकट में हूं, आप संकट में हैं। हम अब कोई पुरानी बातें न करें, क्योंकि उससे टेंशन होता है और अजीब-अजीब सी चीजें खडी होती हैं। मैं इस समय पागलपन के दौर से गुजर रहा हूं, बुरी तरह टूटा हुआ हूं, मेरा सब कुछ खत्म हो गया है। इतना सब कहने के बाद कल्पेश ठेठ दार्शनिक अंदाज में कह रहे हैं कि दुनिया को कुछ नहीं होगा, किसी को कोई फर्क नहीं पडेगा। सिर्फ मैं बर्बाद हो जाऊंगा, आप अभी जिस कंडीशन में हैं वो रहेगी, उससे किसी को कोई फायदा नहीं होगा। इसलिए हम आरोप-प्रत्यारोप से बाहर निकले और इस घिनौने संकट को खत्म करें। आपके सारे प्वाइंट अपनी जगह सही हैं, इसलिए आप पुरानी बातें छोडकर मुझे बताओ कि मैं क्या कर सकता हूं। मुझ से जो भी संभव होगा, वह मैं करुंगा।’’

पूरा ऑडियो सुनकर यही लगता है कि कल्पेश किसी ऐसे किस्से के सार्वजनिक हो जाने की आशंका से बुरी तरह परेशान हैं, जो उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है। उन्हें लग रहा है कि अगर वह किस्सा बाहर आ गया तो उनकी छवि और सोशल लाइफ पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी। बहरहाल, इंदौर की एमआईजी थाना पुलिस ने सलोनी अरोरा के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने वाली धारा सहित विभिन्न धाराओं मे केस दर्ज किया है। पुलिस ने उसके मुंबई स्थित निवास पर छापा भी डाला, लेकिन वह फरार बताई जा रही है। उसके निवास पर ताला तोडकर मारे गए छापे के दौरान पुलिस को उसका पासपोर्ट मिला है जो जब्त कर लिया गया है तथा उसके खिलाफ लुकआउट सर्कुलर जारी किया गया है। पुलिस को शक है कि ब्लैकमेलिंग के मामले में सलोनी के साथ कुछ और भी लोग हो सकते हैं। इस सिलसिले में एक फिल्म वितरक का नाम भी लिया जा रहा है जो मूल रुप से इंदौर का ही रहने वाला है और फिलहाल मुंबई में रहता है।

बताया जाता है कि कल्पेश को मिलने वाली धमकियों और फोन पर उनके और सलोनी के बीच होने वाली बातचीत की जानकारी कल्पेश के परिवारजनों को भी थी, जिसकी वजह से कल्पेश के पारिवारिक जीवन में भी तनाव पैदा हो गया था। ऐसे हालात में भास्कर प्रबंधन के रूखे व्यवहार ने भी उनकी मानसिक परेशानियों में इजाफा ही किया। बताया जाता है कि कल्पेश आत्महत्या करने के करीब दो सप्ताह पहले से अपने संस्थान के सर्वेसर्वा सुधीर अग्रवाल से मिलने का समय मांग रहे थे, जो उन्हें नहीं मिल रहा था। चर्चा यह भी है कि भास्कर प्रबंधन ने कल्पेश को किनारे कर उनके स्थान पर दिल्ली के एक हिंदी अखबार के संपादक को अपने यहां लाने का फैसला कर लिया था, जिसकी भनक कल्पेश को भी लग चुकी थी। प्रबंधन ने भास्कर समूह के सभी संपादकों की एक बैठक भी 13 जुलाई को भोपाल में आयोजित की थी, जिसमें कल्पेश याग्निक नहीं बुलाए गए थे। बताते हैं कि इस बैठक में ही प्रबंधन अपने किसी ऐसे महत्वपूर्ण फैसले का ऐलान करने वाला था जो कि कल्पेश के लिए अप्रिय होता। बहरहाल ऐसा कुछ नहीं हो सका, क्योंकि कल्पेश ने 12 जुलाई को ही अपनी जान देने का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला ले लिया और उस पर पर तत्काल अमल भी कर डाला।

कोई व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता। हर व्यक्ति में कमियां और खूबियां होती हैं। कल्पेश भी अपवाद नहीं थे। वे लिखते भले ही कम हो लेकिन पढते खूब थे। स्वभाव से अंतर्मुखी और महत्वाकांक्षा से परिपूर्ण कल्पेश छात्र नेता रहे। अच्छे वक्ता रहे। छात्र राजनीति में रहते हुए ही वे मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को अपना हीरो मानते हुए युवक कांग्रेस में भी सक्रिय रहे। फिर अचानक इंदौर से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार के लिए बतौर स्ट्रिंगर शौकिया पत्रकारिता करने लगे और फिर धीरे-धीरे पूरी तरह पत्रकारिता में ही रम गए। कुछ साल अंग्रेजी अखबार में काम करने के बाद दैनिक भास्कर में आए और फिर उसी के होकर रह गए।

भास्कर प्रबंधन की यह बडी स्पष्ट सोच रही है कि उनका अखबार उनके लिए अखबार नहीं, बल्कि एक उपभोक्ता उत्पाद है और उनका मुख्य लक्ष्य है ज्यादा से ज्यादा विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करना तथा ज्यादा से ज्यादा अखबार बेचना। इसी सोच के तहत वह अपने संपादकों से भास्कर के कलेवर में बाजार के आशिक उच्च और मध्यवर्गीय समाज की रुचियों और जरुरतों के अनुरुप समय-समय पर बदलाव करवाता रहा। प्रबंधन का यह सोच कल्पेश को खूब भाया। इसी सोच को केंद्र में रखकर भास्कर में उन्होंने कई नए प्रयोग किए, जो भले ही पत्रकारिता के मान्य और स्थापित मूल्यों के अनुरुप न रहे हों, मगर वे लोकप्रिय हुए और भास्कर की पहचान भी बने। इस सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश के अंग्रेजी अखबारों का फूहड अनुसरण करने में भी संकोच नहीं किया। बाद में दूसरे अखबारों ने भी बाजार में टिके रहने के लिए भास्कर की नकल की, जिसे भास्कर प्रबंधन और कल्पेश ने अपनी बडी कामयाबी माना। इसी सबके चलते कल्पेश लंबे समय तक प्रबंधन की आंखों के तारे बने रहे। जैसे-जैसे कल्पेश आगे बढते गए, विचार और व्यवहार के स्तर पर उनमें बदलाव आता गया। देश और दुनिया को, अपने सामाजिक परिवेश को और यहां तक कि अपने सहकर्मियों और मातहतों को भी वे अखबार मालिकों की नजर से ही देखने लगे। एक ही खूंटे यानी भास्कर से बंधे रहने और प्रबंधन का प्रिय पात्र बने रहने के फेर में वे यह सब देखते और करते तो रहे, लेकिन भास्कर के बाहर की दुनिया से बेखबर और भास्कर प्रबंधन की ओर से बेफिक्र रहते हुए। उनकी सारी हिकमत अमली भास्कर की चौहद्दी तक ही महदूद रही। उनके आत्महत्या जैसा कदम उठाने के पीछे और जो भी कारण रहे हो, लेकिन उनकी यह बेखबरी और बेफिक्री भी एक कारण रही।

कल्पेश याग्निक की असामयिक और त्रासद मौत ने इस नंगी सच्चाई को भी एक बार फिर शिद्दत से रेखांकित किया है कि कारपोरेट संस्कृति को पूरी तरह आत्मसात कर चुके मीडिया घरानों में जन सरोकारों और मानवीय संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होती। वहां होती है तो सिर्फ हर कीमत पर अपने विस्तार और बेतहाशा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति। इसके लिए मीडिया मालिक किसी भी हद तक गिरने के लिए तत्पर रहते हैं और संपादक-प्रबंधक से लेकर अदने संवाददाता तक अपने तमाम मुलाजिमों से भी इसी तरह तत्पर रहने की अपेक्षा करते हैं। हालांकि इन कसौटियों पर खरे उतरने वाले संपादकों के प्रति भी प्रबंधन कोई मुरव्वत नहीं पालता और एक वक्त ऐसा आता है जब वह उनको बेरहमी से किनारे कर देता है। कल्पेश दो दशक तक पूरे समर्पण भाव से भास्कर में रहने और उसे अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बावजूद अपने प्रबंधन की इसी मतलब-परस्ती के शिकार होते-होते इस दुनिया से रुखसत हो गए।

जो भी हो, हमारे समाज में मौजूदा दौर में कामयाबी के जो भी प्रचलित पैमाने हैं, उन पैमानों पर कल्पेश याग्निक अपनी पीढी के पत्रकारों और संपादकों के बीच सबसे ज्यादा कामयाब पत्रकार-संपादक थे। कामयाबी के अर्श पर बहुत देर तक रहने के बाद लोग नीचे उतरने की कल्पना मात्र से ही डरने लगते हैं। तमाम जतन करने के बाद भी जब उनका उस तथाकथित ऊंचाई पर बने रहना मुश्किल या नामुमकिन हो जाता है तो वे या तो अवसाद, रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हें या फिर कल्पेश याग्निक की तरह एक झटके में अपनी जिंदगी से नाता तोड लेते हैं।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं 


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