भारतीय मीडिया के बरक्‍स अमरीकी मीडिया को पवित्र मानने वाले थोड़ा ठहरें और इसे पढ़ें…

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प्रकाश के रे

वाशिंग्टन की एक अदालत ने व्हाइट हाउस को सीएनएन के संवाददाता जिम एकोस्टा का प्रेस पास वापस करने का निर्देश दिया है. इसके बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने धमकी दी है कि अगर रिपोर्टरों ने अपना व्यवहार ठीक नहीं रखा, तो वे संवाददाता सम्मेलन का बहिष्कार भी कर सकते हैं. निश्चित रूप से अमेरिकी मीडिया के लिए यह एक बड़ी जीत है. अपने चुनाव अभियान के समय से आज तक ट्रंप मीडिया के विरुद्ध लगातार बोलते रहे हैं. पिछले साल जनवरी में अमेरिकन प्रेस कोर ने उन्हें एक कड़ी चिट्ठी भी लिखी थी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिकी मीडिया ने ट्रंप प्रशासन की आलोचना और अपने अधिकारों की रक्षा करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है. अमेरिकी सरकार के बरक्स उसके तेवर की तुलना जब हम भारतीय मीडिया से करते हैं, तो निश्चित रूप से निराशा होती है. लेकिन क्या इस आधार पर हम अमेरिकी मीडिया या पश्चिम के अन्य लोकतांत्रिक देशों की मीडिया के ठीक भारतीय मीडिया की तरह रवैये को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं? क्या अपनी मीडिया से हमारी निराशा हमें इस हद तक बेचैन कर सकती है कि हम पश्चिमी मीडिया की आंख मूंद कर प्रशंसा करने लगें और उसकी करतूतों की बहुत लंबी सूची का संज्ञान न लें? बीते दिनों हमारी सार्वजनिक चर्चाओं में ऐसा ही देखने को मिला है.

इस संदर्भ में दो लेखों- ‘मीडियाविजिल’ पर पुण्य प्रसून वाजपेयी का लेख तथा ‘द वॉयर’ पर न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू का लेख – को प्रतिनिधि विचार मानते हुए इस मुद्दे की पड़ताल ज़रूरी है. दोनों ही लेखों की केंद्रीय चिंता है कि हमारा मीडिया सत्ता के सामने साष्टांग क्यों लेटा हुआ है और अमेरिकी मीडिया सीना ताने कैसे खड़ा है. इस चिंता पर विचार करते हुए दोनों लेखकों ने अमेरिकी मीडिया की ख़ूब प्रशंसा की है. तीन लेखों के इस सीरिज़ में इन दोनों लेखों की कुछ ख़ास बातों को खंगालने की कोशिश है और इस कोशिश में पश्चिमी देशों से भी कुछ उदाहरण लिये गये हैं.

ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया का सियासी फ़र्ज़ीवाड़ा

शुरुआत करते हैं बीबीसी से. कुछ दिन पहले इस सम्मानित संस्थान के अहम कार्यक्रम ‘न्यूज़नाइट’ में एंकर एमिली मैटलिस ने लगातार यह ग़लतबयानी की कि ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन वैचारिक तौर पर ब्रेक्ज़िट- यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के मसले- से जुड़े हुए हैं. इस पर पार्टी ने कड़ा एतराज़ जताया है. वेबसाइट ‘द कैनरी’ ने इस मुद्दे पर विश्लेषण में ‘न्यू स्टेट्समैन’ के एक सर्वेक्षण के हवाले से लिखा है कि जब ब्रेक्ज़़िट का जनमत संग्रह हो रहा था, तो कैसे बीबीसी समेत विभिन्न चैनलों ने लेबर पार्टी को 20 फ़ीसदी से भी कम कवरेज़ दिया था. जनमत संग्रह के प्रचार के दौरान कॉर्बिन ने यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में कई सभाओं और बैठकों में शिरकत की थी, उन्होंने लेख लिखा था, एक प्रचार बस चलवाया था, तथा उनके समर्थक संगठन ने हस्ताक्षर अभियान चलाया था. इसके बाद भी लगातार ब्रेक्ज़िट के मामले में जेरेमी कॉर्बिन को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. इस साल सितंबर में बीबीसी के एक इंटरव्यू में जेरेमी कॉर्बिन से 14 मिनट तक एंटी-सेमेटिज़्म पर बहस की गयी, जबकि ब्रेक्ज़िट पर बस छह मिनट दिये गये.

विपक्षी नेता के रूप में कॉर्बिन की ताक़त जितनी बढ़ती जा रही है, ब्रिटिश मीडिया का रवैया उनके ख़िलाफ़ लगातार नकारात्मक होता जा रहा है. ‘बीबीसी’ ने ब्रिटिश चुनावों में रूसी दखल पर एक कार्यक्रम में क्रेमलिन की पृष्ठभूमि में कॉर्बिन को फोटोशॉप के जरिये रूसी टोपी में खड़ा कर दिया था, तो ‘द सन’ ने बड़ी रिपोर्ट छापी कि कॉर्बिन रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मदद ले रहे हैं. ब्रिटिश मीडिया की ग़लतबयानी का एक नमूना कुछ माह पहले हुए इंग्लैंड के स्थानीय निकायों के हालिया चुनावों की रिपोर्टिंग और विश्लेषण हैं. इस पर मेरा एक लेख यहां पढ़ा जा सकता है. इस साल के शुरू में कुछ अख़बारों ने एक साथ फ़र्ज़ी ख़बर चलायी थी कि कॉर्बिन शीत युद्ध के दौर में ब्रिटेन के ख़िलाफ़ जासूसी करते थे. उस बारे में विस्तार से मेरे इस लेख में पढ़ा जा सकता है. साल 2015 में ‘बीबीसी’ के पैनोरामा कार्यक्रम ने लेबर पार्टी और कॉर्बिन की टीम से झूठ बोलकर उल्टी-सीधी सूचनाएं डालकर एक डॉक्यूमेंट्री दिखा दिया था, जो साफ़ तौर पर कॉर्बिन के चुनाव अभियान को प्रभावित करने के लिए बनाया गया था.

कुछ दिन पहले ‘द कैनरी’ ने भयावह ग़रीबी पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि फिलिप आल्स्टॉन के ब्रिटिश दौरों की ‘द गार्डियन’ की रिपोर्टिंग का हिसाब किया है. इसे भी पढ़ा जाना चाहिए कि कैसे सूचनाओं को छुपाने का सिलसिला वहां भी है.

अब चलते हैं अमेरिका. जिम एकोस्टा की बात चली है, तो एक प्रकरण ऐसा भी है कि सीएनएन ने पिछले साल जनवरी में व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव सियन स्पाइसर के झूठ से भरे प्रेस कॉन्फ़्रेंस को दिखाया ही नहीं, जबकि बाद में जिम एकोस्टा उसी जगह से लाइव होकर उनके झूठ को रेखांकित कर रहे थे. इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस को बाक़ी चैनलों से सीधा प्रसारित किया था. अगर सीएनएन स्पाइसर की बकवास को दिखाना नहीं चाहता था, तो फिर जिम एकोस्टा को उन झूठों का ख़ुलासा करने की क्या ज़रूरत थी! आख़िर बात तो इस तरह भी दर्शकों से पहुंची ही. अगर हम सीएनएन की बात मान भी लें, तो 2016 में ट्रंप के अभियान का पूरा कवरेज़ क्यों हो रहा था, जिसमें लगातार झूठ बोला जा रहा था और आपत्तिजनक बातें कही जा रही थीं? अक्टूबर, 2016 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में सीएनएन के वैश्विक अध्यक्ष जेफ़ ज़कर ने कहा था कि वे व्यापक कवरेज़ इसलिए कर रहे थे कि उन्हें यह पता नहीं था कि ट्रंप कब क्या बोल दें. उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि इस कवरेज़ से उनके दर्शक बढ़े थे. इस मामले पर मीडिया क्रिटिक एरिक वेंपल ने ‘द वाशिंग्टन टाइम्स’ में विस्तार से लिखा है.

अक्टूबर में तुर्की में सऊदी पत्रकार जमाल ख़शोगी की हत्या के बाद अमेरिकी में यह बहस छिड़ी है कि क्या सऊदी शासन, ख़ासकर शाहज़दा मोहम्मद बिन सलमान, से पैसे लेकर लॉबिंग करना या लेख लिखना ठीक है. ख़शोगी जिस अख़बार में कॉलम लिखते थे, उसी ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ के संपादकीय पन्ने के संपादक फ़्रेड हिएट ने एक तीखा लेख लिखा जिसमें पूछा गया था- ‘आप एक हत्यारे के लिए क्यों काम करते हैं?’ यह एक बिल्कुल ज़रूरी सवाल है. लेकिन ‘द इंटरसेप्ट’ के ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने एक लेख में विस्तार से यह बताया कि कैसे ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ में लिखनेवाले अनेक लेखक सऊदी अरब से पैसा पाते हैं और बदले में लॉबिंग करते हैं. इस लेख में ग्रीनवाल्ड ने ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में जिम रूटनबर्ग के लेख का भी उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने बताया था कि कैसे अमेरिकी मीडिया और धनकुबेरों ने शहज़ादा मोहम्मद की बार-बार प्रशंसा कर उनकी ताक़त बढ़ायी. ग्रीनवाल्ड ने रूटनबर्ग को यह भी याद दिलाया है कि सऊदी शहज़ादे का माहौल बनाने में उन एलिटों के साथ सबसे ज़्यादा योगदान ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ के सेलिब्रिटी कॉलमनिस्ट थॉमस फ़्रीडमैन का रहा है. ‘द इंटरसेप्ट’ का यह लेख अमेरिकी मीडिया के दो सबसे सम्मानित संस्थानों की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है. ग्रीनवाल्ड वही पत्रकार हैं जिनके ज़रिये एडवर्ड स्नोडेन ने अमेरिकी सर्विलांस के वैश्विक षड्यंत्र का ख़ुलासा किया था, जिस बाबत तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा लगातार झूठ बोलते रहे थे.

ओबामा के झूठ की बात आयी है, तो इस बहाने अमेरिकी मीडिया के चरित्र का एक और उदाहरण दिया जा सकता है. पिछले साल दिसंबर में ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने डोनाल्ड ट्रंप और बराक ओबामा के झूठों की तुलना करते हुए एक लेख छापा था जिसमें बताया गया था कि ओबामा के आठ सालों के बरक्स ट्रंप ने 11 महीने में ही छह गुना झूठ बोल दिया है. जेम्स बोवार्ड ने ‘द हिल’ में इस लेख पर टिप्पणी करते हुए बताया था कि कैसे ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने ओबामा के भयानक झूठों और फ़र्ज़ीवाड़ों को भुला दिया. उन्होंने एक उदाहरण स्नोडेन मामले में जासूसी या सर्विलांस ने ओबामा के इनकार का था. दूसरा उदाहरण इससे भी ज़्यादा डरावना है. साल 2009 में ओबामा ने मैक्सिको दौरे में ग़लतबयानी की थी कि वहां पकड़े गये अवैध हथियारों का 90 फ़ीसदी अमेरिका से आता है. इसके तुरंत बाद ओबामा प्रशासन की सहमति से अमेरिका से हथियारों की बड़ी खेप मेक्सिको के अपराधी गिरोहों में बांटे गये थे. माना जाता है कि उस साल इन हथियारों से मेक्सिको में कम-से-कम 150 लोग मारे गये थे. उस लेख में ओबामाकेयर के मामले में फ़र्ज़ीवाड़ा की बात भी भुला दी गयी थी. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ के उस लेख में डेविड लियोनहार्ड, इयान प्रसाद फिलब्रिक और स्टुअर्ट थॉम्प्सन ने ट्रंप को ज़्यादा झूठा साबित करने के चक्कर में इराक़ हमले के मामले में झूठ की बात स्वीकार करने के बाद भी अख़बार ने राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर नरमी दिखायी है, जबकि यह बात साबित हो चुकी है कि बुश और उनके प्रशासन के शीर्ष लोगों ने इराक़ पर 935 झूठ बोला था. अख़बार बुश की यंत्रणा नीति को भी भूल गया है. इसमें अफ़ग़ानिस्तान और लीबिया पर ओबामा के झूठ को भी दरकिनार कर दिया गया है. अपने लेख में बोवार्ड ने दो अहम बातें कही हैं. हर झूठ को एक बराबर कर नहीं देखा जाना चाहिए तथा यह बुश और ओबामा की करतूतों का ही नतीज़ा था जिसकी वज़ह से ओबामा शासन के आख़िरी दिनों में संघीय सरकार पर सिर्फ़ 20 फ़ीसदी अमेरिकियों का ही भरोसा रह गया था.


(जारी)

 


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