बास मारता दूरदर्शन टॉयलेट और एक पॉजिटिव स्टोरी की तलाश…

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दूरदर्शन केंद्र के समाचार सम्पादक और मुख्यमंत्री के सलाह्कार रमेश भट्ट


मीडियाविजिल प्रतिनिधि / उत्तराखंड 

दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे पब्लिक ब्रॉडकास्टर्स की असल में एक लोकतंत्र में क्या भूमिका होनी चाहिए यह मीडिया एकेडमिक्स में हमेशा एक बहस का विषय रहा है। सिद्धांतों में चाहे पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग की परिकल्पना कैसी भी होती हो लेकिन व्यवहार में खासकर भारत में ये दोनों पब्लिक ब्रॉडकास्टर्स सरकारों के भौंपू के अलावा और कुछ नहीं हो पाते। लेकिन क्या देश के आम आदमी की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टैक्स से चलने वाले इन पब्लिक ब्रॉडकास्टर्स में जो कुछ हो रहा है, या ये जिस तरह महज सरकार के भौंपू की तरह काम करते रहे हैं, इस पर प्रश्न उठाना लाजमी नहीं होगा? क्योंकि असल में पब्लिक ब्रॉडकास्टर्स की जवाबदेही लोकतंत्र के प्रति होनी चाहिए ना कि सरकारों के प्रति। मगर सरकारी नीतियों के प्रसार के इतर (जो कि स्वाभाविक ही एक पब्लिक ब्रॉडकास्टर का काम होना चाहिए) जिस तरह, ये ब्रॉडकास्टर्स सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की असफ़लताओं को ढांपने के अभियान में जुटे हुए हैं यह ‘टैक्स-पेअर’ जनता को गुमराह करना और उनके साथ धोखा है।

राष्ट्रीय स्तर पर दूरदर्शन के इस अभियान की झलक उत्तराखंड दूरदर्शन में भी दिखाई दे रही है। पिछले दिनों देहरादून में, प्रबंधन ने प्रदेशभर में फैले दूरदर्शन के स्टिंगर्स की एक कार्यशाला आयोजित की। कार्यशाला का मकसद था, ”स्ट्रिंगर्स को सरकार की योजनाओं से आए बदलाव पर ग्राउंड रिपोर्ट के अलावा सकारात्मक और स्वच्छता संबंधी ख़बरों की कवरेज़ करने, कैमरा हैंडलिंग और सोशल मीडिया के बारे में विस्तार से जानकारी दिया जाना।” इस कार्यशाला को मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के मीडिया सलाहकार रमेश भट्ट समेत कुछ अन्य वक्ताओं ने एड्रेस किया।
बताया जा रहा है कि इस मीटिंग का मक़सद 2019 में होने वाले आगामी चुनावों में दूरदर्शन की रिपोर्टस् के ज़रिए मौजूदा सरकार का प्रोपेगेंडा करना था, जिसका लाभ मौजूदा सरकार को चुनावों में मिल सके। स्ट्रिंगरों को सरकारी नीतियों पर आधारित ‘पॉज़िटिव ख़बरों’ को जुटाने का टास्क देने के लिए यह कार्यशाला आयोजित की गई थी। मसलन, स्वच्छ भारत अभियान ने कैसे पूरे उत्तराखंड को स्वच्छ कर दिया है.. वगैहरा-वगैहरा..!
व्यंग्य और प्रहसन की कोपलें भी शायद इन्हीं सायास कवायदों में फूटतीं हैं, जिनके फूलों की शक्ल त्रासदी की होती है।
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जिस दूरदर्शन भवन में ‘पॉजिटिव ख़बरों’ की कवरेज़ की यह कार्यशाला आयोजित की जा रही थी, और वक़्ताओं के मुखार्विंद से स्टिंगर्स को बताया जा रहा था कि उन्हें कैसे ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की पॉज़िटिव ख़बरों की खुश्बू से उत्तराखंड की फ़िजाओं को सराबोर कर देना है, ठीक वहीं इसी भवन की टॉयलेट से चली आ रही महक के एक झोंके ने, किसी स्ट्रिंगर को अपनी ओर खींचा (या संभवत: बोझिल प्रवचनों के बीच किसी कुर्सी में उकड़ू बैठे-बैठे उसके खुद के वज़न ने मूत्राशय पर दबाव बढ़ाकर उसकी लघुशंका को बढ़ा दिया हो और उसने शंका निदान के लिए टॉयलेट की राह पकड़ी हो.)।
टॉयलेट को जोड़ते कॉरिडोर में, कार्याशाला प्रदत्त विचारों की उधेड़बुन में अभी वह सोच ही रहा था कि किस एंगल से अपने शहर के दागदार-महकते सार्वजनिक शौचालयों, तितर-बितर पड़े कचरे ढेर, कचरागाहों और गंधाती नालियों के विजुअल्स उतारे जाएं कि उसमें ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की पॉजिटिविटी की महक शुमार हो जाए, उसने टॉयलेट के दरवाज़े से भीतर प्रवेश किया, तेज़ गंधाती बदबू सीधे फेफड़ों में दाख़िल हुई और जी मचलाती उल्टी बस बाहर आते आते रह गई। टॉयलेट के नज़ारे ने उसे उल्टी करने से भी रोक दिया।
भीतर चल रहे प्रवचनों का सत्व उसे समझ आ गया। सफेद टॉयलेट शीट, सफेद वॉशबेसिन, फर्श और दीवारों पर लगी सफेद टाइल्स,  इन सब से जमे गहरे दाग़ों का मटमैला रंग उसे अचानक छूटकर एक जगह सिमटता नज़र आने लगा। यह रंग एक वृक्ष का आकार ले रहा था। शायद यह बोधिवृक्ष था और टॉयलेट रूम में समाये दूसरे झक्क सफ़ेद रंग आंखों को चुधियाते हुए इसे घेरे हुए थे। यह बोधि क्षण था, ज्ञान का क्षण। सारे द्वंद्व निराकार हो गए। दाग़ सिमट चुके थे और जो सफ़ेद था वही स्वच्छ था। यही था ‘स्वच्छ भारत अभियान’। उसे सूत्र मिल चुका था। उसे कैमरे के सारे एंगल समझ आ गए और मारक स्क्रिप्ट उसके ज़ेहन में कौंधने लगी।
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उत्तराखंड अभी आपदा से जूझ रहा है। लोग परेशान हैं। पानी, बिजली, सड़कों के बूरे हाल हैं। शासन-प्रशासन एकदम नाकारा साबित हुआ है। लेकिन दूरदर्शन के स्ट्रिंगरों के पास टास्क है कि वो सरकार की नीतियों और अभियानों पर ‘सकारात्मक ख़बरें’ दिखाएं। स्ट्रिंगर हैं, रोजी का सवाल है तो झक़ मारकर संपादक और तंत्र के आदेशों पर बिखरते पहाड़ों में खुशहाली की ख़बरें तलाश रहे हैं।
कहीं कोई कथित ‘सकारात्मक’ स्टोरी मिल भी जाती है और उसकी ग़हरी पड़ताल करते हैं तो और गहरे अंधकार की ख़बर उससे झांकने लगती है, लेकिन क्योंकि स्टोरी ‘सकारात्मक’ चाहिए तो फिर कहानी अधूरी ही कहनी होती है ताकि अंधेरा ढ़का रहे। ‘दूरदर्शन टॉयलेट में हुई बोधि की प्राप्ति’ यहीं काम आती है।
लेकिन संकट यहीं ख़त्म नहीं होता।  ख़ाक छान-छान कर जुटाई ख़बरों से ही स्ट्रिंगरर्स की रोजी निकलनी है, लेकिन समाचार संपादक के हाथ में उस्तरा है। (कृपया ग़लत न पढ़ें, समाचार संपादक ही लिखा गया है बंदर नहीं।) ख़बरों की छटनी का उस्तरा। उसे ‘सरकार’ का पैसा बचाना है, चाहे इसके लिए स्ट्रिंगर्स की मेहनत की बलि देनी पड़े। अधिकतर ख़बरों को चलाने से वह इनकार कर देता है। स्ट्रिंगर हैं, स्टोरी नहीं चलेगी तो भुगतान भी नहीं होगा। ‘टॉयलेट में हुई बोधि की प्राप्ति’ भी यहां काम नहीं आती।
समाचार संपादक चतुर-प्रवीण हैं। कभी उन्हें स्ट्रींगर की ख़बर यदि किसी मजबूरी में लगानी भी पड़े तो बड़ी ही चतुराई से भेजी गई बाईट गायब कर देते हैं और स्ट्रींगर को मेल से सूचित कर दिया जाता है कि, न्यूज में आईडी नहीं होने के कारण ‘भुगतान प्रभावित होगा’। उन्हें यह पक्का बोध है कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। उनकी ऊपर तक पकड़ है।
पन्द्रह मिनट के बुलेटिन में उनकी कोशिश रहती है कि सूचना विभाग से आई बैठकों की ख़बरें ही चलाई जाएँ। सूचना विभाग से जो फोटो मेल में आती हैं उन्हें ही फिल्मोरा तकनीक से चला दिया जाता है। हर कोई स्ट्रिंगर समाचारों को ध्यान से देखता है कि शायद आज कोई ख़बर चल जाए तो मेहनत का मेहनताना मिले। लेकिन यह क्षण दुर्लभ है। कई बार सरकारी ख़बरों के कम होने पर कार्यक्रम को सिर्फ 12—13 मिनट में ही ख़त्म कर दिया जाता है कि कहीं स्ट्रिंगर्स की ख़बरें चलाकर उन्हें भुगतान ना करना पड़े।
उत्तराखंड दूरदर्शन के स्ट्रिंगर्स के हाल कुछ यूं हैं कि उन्हें किसी भी तरह सरकारी नीतियों पर सकारात्मक ख़बरें ढूंढ कर लानी हैं जबकि वे खुद सरकारी नीतियों के चलते एक नकारात्मक ख़बर हैं। जिसे कवर करने कोई मीडिया नहीं आने वाला। इसलिए आप यह कहानी मीडिया विज़िल में पढ़ रहे हैं।

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