NDA को 300 सीटें आ भी जाएं तो कैसे आईं ये कौन बताएगा?

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


आज के अखबारों में टेलीविजन चैनल के एक्जिट पोल के हवाले से यही खबर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वापस सरकार बना लेंगे। इंडियन एक्सप्रेस का बैनर शीर्षक है, सभी एक्जिट पोल राजग की वापसी का संकेत दे रहे हैं। अटकल खबर नहीं होती पर उसे बैनर बना दिया जाए तो हम आप क्या कर सकते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया में भी लगभग यही खबर छह कॉलम में है। दो कॉलम में संस्थान का अपना ही सही, विज्ञापन है। वरना यहां भी आठ कॉलम हो सकता था। द टेलीग्राफ में भी यह खबर सात कॉलम में है। इसमें सिर्प यह जोड़ दिया गया है कि यह बंगाल के भरोसे है। टेलीग्राफ की खबर कहती है कि उत्तर प्रदेश में सीटें कम होंगी पर इसकी भरपाई बंगाल और उड़ीशा में सीटें बढ़ने से हो जाएगी।

मेरा मानना है कि उत्तर प्रदेश में सीटें घटेंगी तो बंगाल और उड़ीशा में क्यों बढ़ेंगी? क्या आज का दिन इसपर चर्चा के लिए उपयुक्त नहीं था। टेलीवजिन चैनल अगर एक्जिट पोल के आधार पर अठकल लगा रहे हैं तो क्या आज अखबारों में इस बात पर चर्चा नहीं होनी चाहिए थी कि सीटें कम क्यों होंगी और बढ़ेंगी क्यों? अगर उत्तर प्रदेश में सीटें कम हो सकती हैं – जहां डबल इंजन की सरकार है तो बंगाल और उड़ीशा में ऐसा क्या हुआ है कि सीटें बढ़ने की उम्मीद है। उड़ीशा में अभी हाल में समुद्री तूफान आया था। उससे निपटने के इंतजाम राज्य सरकार ने किए थे। इंतजाम अच्छा था, लाभ भाजपा को क्यों मिलेगा? मुझे नहीं मालूम है पर जो अंदाजा लगा रहा है, एक्जिट पोल पर यकीन कर रहा है वह क्यों नहीं बता रहा है या इसपर सोच रहा है?

अगर आप भाजपा की जीत के कारणों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं और एक्जिट पोल के नतीजों को आंख मूंद कर मान ले रहे हैं तो क्या आप उन कारणों से आंख नहीं मूंद रहे हैं जिनकी वजह से जीत मिल सकती है। अटकलें तो इसमें भी बहुत है। लेकिन इनपर कोई चर्चा नहीं है। प्रधानमंत्री का इतवार को अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर केदारनाथ-बद्रीनाथ में रहना और ध्यान लगाना क्या कल की सीटों पर हिन्दू वोटों को आकर्षित करने की कोशिश नहीं थी। खासकर तब जब अमर उजाला की खबर है, 17 घंटे एकांतवास में रहे प्रधानमंत्री, केदारनाथ के दर्शन कर बोले, उसने मांगने योग्य नहीं देने योग्य बनाया है। यह क्या है? भगवान से आदमी मांगता ही है। देने योग्य बनाना क्या मांगना नहीं है? हो या न हो क्या यह चर्चा योग्य मुद्दा भी नहीं है।

आम समझ यही है कि चुनावी के दौरान इस चुनावी तीर्थ का मकसद वोट मांगना था। भगवान से नहीं, भगवान के भक्त मतदाताओं से। और इसीलिए चुनाव आयोग से इसकी अनुमति ली गई थी। आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में इस आशय की खबर है। खबर तो कल भी इंडियन एक्सप्रेस में थी। आज टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर से लगता है कि चुनाव आयोग को ऐसी अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। निश्चित रूप से यह हिन्दू मतदाताओं को लुभाने या बहकाने की कोशिश थी और यह चौंकाने वाली बात है कि इसके लिए अनुमति मांगी गई और मिल भी गई। पर यह इससे पहले मिले कई क्लीन चिट के मुकाबले कुछ भी नहीं है। इसपर पहले बात नहीं हुई तो अब जरूर होनी चाहिए थी पर आज के अखबारों में ऐसा कुछ नहीं है।

आज हिन्दी अखबारों के ज्यादातर शीर्षक भाजपा के विज्ञापन या व्हाट्सऐप्प प्रचार पर केंद्रित हैं। निश्चित रूप से यह अखबारों का संपादकीय दिवालियापन है। नवभारत टाइम्स इसमें सबसे आगे है। अखबार के शीर्षक में कई बातें हैं और गौर करने लायक है, “एनडीए को स्पष्ट बहुमत का अनुमान, यूपीए की सीटें भी पिछली बार से डबल होने के आसार”। इन दो सूचनाओं में एक है – एनडीए की सीटें कम होंगी और दूसरी यूपीए की दूनी हो जाएंगी। इनमें बड़ी खबर क्या है? अच्छी बात क्या है? सीटें कम होना या दूनी होना – पर अखबार किसे महत्व दे रहा है? मोदी फिर प्रधानमंत्री बनेंगे। मुख्य शीर्षक है, “आएंगे तो मोदी ही”। नवोदय टाइम्स ने भी एलान कर दिया है, “आएगा तो मोदी ही”। अमर उजाला का शीर्षक है, “एग्जिट पोल … फिर एकबार मोदी सरकार”।

दैनिक जागरण ने नया जुमला बनाया है, “ध्यान में मोदी – रुझान में मोदी” और फ्लैग शीर्षक है, “राजग की 300 से अधिक सीटों के आधार, हिल सकती हैं तृणमूल की जड़ें, उत्तर प्रदेश में हो सकता है भाजपा को नुकसान”। स्पष्ट है कि भाजपा ने कहा कि उसकी तीन सौ सीटें आएंगी और यही सभी अखबार सुना रहे हैं।

अभी मुद्दा यह है कि 300 सीटें कैसे आएंगी? और अगर आ गईं तो क्या वह सामान्य बात है। क्या उसमें आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन से लेकर ईवीएम की गड़बड़ी और पुलवामा – आतंकवाद को मुद्दा बनाने और ध्यान लगाने की फोटोग्राफी कराने की कोई भूमिका नहीं है। क्या इसपर बात नहीं होनी चाहिए। नहीं हो रही है तो क्या इसका मतलब यह नहीं लगाया जाए कि भाजपा और उसके समर्थकों ने किसी तरह फिर से बहुमत पाने का जुगाड़ कर लिया है। और यह एक्जिट पोल लोगों को इस सूचना को सुनने के लिए तैयार करने का काम कर रहा है। मुझे नहीं लगता कि एक्जिट पोल के नतीजे सही हैं पर अगर सही हैं यह लोकतंत्र के लिए बड़े खतरे का संकेत हैं। उसपर विचार होना चाहिए। अगर अभी नहीं होगा तो क्या सरकार बनने के बाद संभव है? और नहीं तो क्या यह फिर दोहराया नहीं जाएगा।

दैनिक जागरण का पहला पन्ना। खबरों के बीच में यह फोटो बताती है कि चुनाव को कैसे मजाक बना दिया गया है। क्या एग्जिट पोल के नतीजों में इस यात्रा का महत्व बताने के लिए इस फोटो का उपयोग किया गया है?