चौरासी याद करने वालों के लिए क्या 2002 भूल जाना सामान्य है?

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


क्या 1984 याद करने वालों के लिए 2002 को भूल जाना सामान्य है? आज सबसे अच्छी प्रस्तुति दैनिक भास्कर की, सबसे चौंकाने वाला टाइम्स और एक्सप्रेस।

हुआ तो हुआ – 34 साल बाद ऐसे ही नहीं हो जाता है आइए आज उसे समझते हैं। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की 30 लोकसभा सीटों के लिए क्रम से 12 और 19 मई को मतदान होने हैं। 12 को दिल्ली की सात और हरियाणा की 10 सीटों के लिए मतदान है जबकि 19 को पंजाब की 13 सीटों के लिए मतदान है। इस तथ्य के आलोक में यह दिलचस्प है कि 1984 का दंगा कल प्रधानमंत्री के भाषण के केंद्र में था। और यह ऐसे ही नहीं था। आपने महसूस किया होगा कि जैसे-जैसे मतदान वाली सीटें कम हो रही हैं भाषा कड़वी होती जा रही है।

ताजा मामले में इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के प्रेसिडेंट सैम पित्रोदा ने गुरुवार (9 मई की शाम) को समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत में 1984 दंगों के बारे में पूछे जाने पर कहा, “अब क्या है ’84 का? बात तो करिए आपने क्या किया पांच साल में। उसकी बात करें। ’84 में हुआ तो हुआ।” उनसे चुनावी सभाओं में नरेन्द्र मोदी द्वारा सिख विरोधी दंगों का मुद्दा उठाए जाने के बारे में पूछा गया था। उनका जवाब इस संदर्भ में था।

शुक्रवार को शाम 6:54 पर एएनआई ने ट्वीट किया, #WATCH Sam Pitroda: इसमें उपरोक्त बातें रोमन में लिखी हुई थीं। इसके अलावा पित्रोदा ने अंग्रेजी हिन्दी में जो कहा वह रोमन में लिखा है। हिन्दी में उसका अनुवाद के साथ बाकी अंश इस प्रकार है, “आपको रोजगार के मौके बनाने के लिए वोट मिले थे। आपको 200 स्मार्ट शहर बनाने थे। आपने वो भी नहीं किया। आपने कुछ नहीं किया इसलिए आप यहां-वहां गप लगाते हैं।”

कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें सवाल नहीं है और जवाब के एक अंश पर ही बवाल है। ठीक है कि सैम पित्रोदा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था पर ऐसे सवाल का जवाब क्या हो सकता है? यही ना कि वो बहुत अफसोसनाक था। हमें बहुत बुरा लगा आदि। पर उससे स्थिति नहीं बदलेगी। हर कोई एंटायर पॉलिटिकल साइंस का ज्ञाता नहीं हो सकता है। इसलिए यह चूक है। कांग्रेस की विचारधारा नहीं है। पर भाजपा और प्रधानमंत्री ने इसे ऐसे ही पेश किया और अखबारों ने आप तक पहुंचा दिया।

टेलीग्राफ की एक खबर के अनुसार सारे दिन भाजपा पित्रोदा के इन शब्दों को भुनाती रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने होशियारपुर में भाजपा अकाली दल की एक रैली में कहा, “कांग्रेस नेता के बयान से पंजाब नाराज है। वे भाजपा अकाली दल को वोट देंगे।” इससे पहले रोहतक, हरियाणा की एक रैली में उन्होंने कहा, “हुआ तो हुआ से कांग्रेस के चरित्र औऱ मानसिकता का पता चलता है।” अमित शाह ने एक ट्वीट किया जिसका अंश था, “भारत कभी भी हत्यारी कांग्रेस को उसके पापों के लिए माफ नहीं करेगा।” पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह ने कहा कि 84 के दंगों को राजीव गांधी से जोड़ना गलत है। उन्होंने यह भी कहा कि इस पैमाने से तो गुजरात दंगों के लिए मोदी को भी लपेटा जाना चाहिए था।

आप मानेंगे कि 1984 और 2002 के दंगों में कोई खास फर्क नहीं था। अगर 1984 के लिए राजीव गांधी के सत्ता में होने और उनके मशहूर बयान को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो 2002 में जो सत्ता में था और मौक पर चुप रहने के लिए जाना जाता है वह कैसे मुक्त हो सकता है। पर अखबारों में 1984 ही है 2002 नहीं। यही राजनीति है। क्यों है – आपको समझना है। यहां यह भी दिलचस्प है कि कल एनडीटीवी पर एक इंटरव्यू में नितिन गडकरी ने चुनाव प्रचार के गिरते स्तर के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। उनसे यह नहीं पूछा गया कि कांग्रेस और भाजपा तो पहले से चुनाव लड़ते रहे हैं। स्तर तो इस बार खराब हुआ है। यही आजकल की पत्रकारिता है जो आज की राजनीति के लिए जरूरी है। आइए देखें आज के अखबारों ने इसे कैसे छापा है। सभी अखबारों को देखकर कहा जा सकता है कि सबसे अच्छी प्रस्तुति दैनिक भास्कर की, सबसे चौंकाने वाला इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया है।

वैसे तो यह संपादकीय स्वतंत्रता और विवेक का मामला है पर प्रधानमंत्री कह रहे हैं इसलिए छाप देना अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाना और निष्पक्ष नहीं होना भी है। पर वह अलग मुद्दा है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इस मामले में राहुल गांधी बयान को ही पहले पन्ने से पहले अधपन्ने पर छापा है कि उन्होंने सैम पित्रोदा के बयान की निन्दा की। जब प्रधानमंत्री ने कहा है कि “हुआ तो हुआ” से कांग्रेस का चरित्र है और मानसिकता का पता चलता है तो राहुल गांधी का पित्रोदा को माफी मांगने के लिए कहना भी इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। अखबारों का काम है कि सारी बातों को सही संदर्भ में पेश किया जाए पर इसके लिए निष्पक्षता के साथ योग्यता भी जरूरी है।

इसीलिए, टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने की खबर का शीर्षक अगर, “प्रधानमंत्री ने पित्रोदा की टिप्पणी की निन्दा की, 84 के दंगों को भयानक नरसंहार कहा”। तो इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है, “प्रधानमंत्री ने कहा, 1984 के दंगों पर पित्रोदा की हुआ तो हुआ टिप्पणी कांग्रेस की मानसिकता बताती है”। इसके मुकाबले द टेलीग्राफ की खबर का शीर्षक है, “पप्पी के प्रशंसक से अलग, गलती सुधारने की हिम्मत है”। अखबार ने लिखा है, पित्रोदा के बयान पर राहुल गांधी का हस्तक्षेप और स्पष्ट संदेश नेतृत्व की ऐसी गुणवत्ता दर्शाता है जैसी अभी तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नहीं दिखाई है। और चुनाव के समय में एक असामान्य स्थिति पैदा कर दी जो विद्वेष और निन्दात्मक भाषा से भरा हुआ है।

अखबार ने इस मौके पर याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछा गया था कि क्या उन्हें गुजरात दंगों पर अफसोस है तो छह साल पहले उन्होंने पप्पी से समानता वाली बात कही थी। (आपको याद होगा, उन्होंने कहा था कि कुत्ते का बच्चा भी मरता है तो अफसोस होता है)। अखबार ने यह भी लिखा है कि राहुल गांधी की आज की प्रतिक्रिया और इससे पहले सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया गुजरात दंगों पर मोदी की प्रतिक्रिया के बिल्कुल उलट है। आप अपने अखबार को देखिए इसी बात को कैसे पेश किया जा रहा है और क्या 1984 याद करने वालों का 2002 भूल जाना सामान्य है?

आइए बताऊं कि मैं दैनिक भास्कर की आज की प्रस्तुति को सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा है। अखबार ने इस खबर को लीड बनाया है। फ्लैग शीर्षक है, “दिल्ली हरियाणा में मतदान से पहले 1984 के दंगों का मुद्दा उछला”। मुख्य शीर्षक है, “मोदी बोले – 1984 में सैकड़ों सिख मारे गए और कांग्रेसी कहते हैं हुआ तो हुआ”। उपशीर्षक है, “कांग्रेस ने कहा – 2002 के गुजरात दंगा पीड़ितों को भी न्याय मिले”। इसके साथ कांग्रेस ने यह भी कहा है कि पित्रोदा का बयान पार्टी की राय नहीं है और नेता एहतियात बरतें। इसपर पित्रादा ने ट्वीट कर सफाई दी। क्या आपके अखबार में यह सब है? भास्कर ने आज एक और महत्वपूर्ण खबर को पहले पन्ने पर रखा है, “टाइम पत्रिका के कवर पर चौथी बार मोदी; डिवाइडर इन चीफ और रीफॉर्मर बताया”। किसी और अखबार में मुझे यह खबर इतनी प्रमुखता से नहीं दिखी। आप समझ सकते हैं क्यों?

आज के अखबारों में भाजपा के अमूमन दो विज्ञापन हैं। एक आठ कॉलम में और दूसरा आधे पन्ने का। भिन्न अखबारों में अलग-अलग विज्ञापन पहले पन्ने पर हैं। दैनिक भास्कर में भी दोनों है। इसके बावजूद खबरें ऐसी हैं। दूसरी ओर, आधे पन्ने के विज्ञापन के कारण अगर खबर अंदर हो तो मैंने नहीं देखा। मैं उन्ही खबरों और अखबारों की बात कर रहा हूं जिसमें यह खबर पहले पन्ने पर है। दैनिक हिन्दुस्तान में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। नवभारत टाइम्स में यह खबर लीड है, “हुआ तो हुआ पर हंगामा हुआ”। दैनिक जागरण में यह खबर दूसरे पहले पन्ने पर है। शीर्षक है, “सिख दंगों पर बयान के लिए सैम पित्रोदा ने माफी मांगी”।

अमर उजाला में यह चार कॉलम की लीड है। दो लाइन का शीर्षक है, “1984 हुआ तो हुआ : कांग्रेस घिरी तो पित्रोदा ने मांगी माफी, राहुल भी खफा”। उपशीर्षक है, “सिख दंगों पर बयान के बाद सियासत तेज, दूसरों के साथ अपनों से ही घिरे कांग्रेस नेता”। इसके साथ तीन कॉलम में तीन सिंगल कॉलम की फोटो के साथ तीन सिंगल कॉलम की खबरें हैं। पहली, “पीएम मोदी ने घेरा, पित्रोदा का बयान कांग्रेस का अहंकार’; दूसरी, “चौतरफा नाराजगी बाद में पलटे बोले – जो हुआ बुरा हुआ” और तीसरी, “राहुल की सफाई भयावह त्रासदी … वह दोबारा न हो। इससे आप समझ सकते हैं खबर और उसमें बेल बूटे लगाकर सजाना क्या होता है। राजस्थान पत्रिका ने सात कॉलम में लीड खबर बनाई है, “छठे चरण से पहले विवादों की सियासत गर्म”। इसमें पित्रोदा के बयान हुआ तो हुआ पर जंग और टाइम की कवर स्टोरी के साथ दिल्ली में अश्लील पर्चे का विवाद भी शामिल है।

नवोदय टाइम्स में आज आधे पन्ने पर भाजपा का विज्ञापन है और यह खबर सिंगल कॉलम में है। शीर्षक है, 1984 के दंगों के बयान पर पित्रोदा ने माफी मांगी। पहले पन्ने पर बताया गया है कि यह खबर अंदर विस्तार से है। वहां माफी मांगने वाली खबर के साथ, एक खबर भड़के सिख और किया प्रदर्शन भी है। इसके साथ एक फोटो है जिसका कैप्शन है, राहुल गांधी के आवास पर प्रदर्शन करते सिख। सवाल ये है कि सिख क्या भाजपा में नहीं हैं या सिख दंगों में भाग लेने वाले सारे हिन्दू कांग्रेसी ही थे उनमें कोई भाजपाई या संघी नहीं था?

दैनिक भास्कर के पहले पन्ने का ऊपरी हिस्सा (विज्ञापन छोड़कर) नीचे वाला विज्ञापन भाजपा का नहीं है। भाजपा वाला अंदर के पन्ने पर है।


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