प्रज्ञा ठाकुर को पहले ज़मानत, फिर टिकट, क्‍या मोदी की संघ-विरोधी रणनीति का औज़ार है?

Mediavigil Desk
काॅलम Published On :


भाजपा ने ज़मानत पर बाहर आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को अपने में शामिल किया और भोपाल से टिकट दे दिया। क्‍या आपको आरएसएस यानी राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का कोई बयान या प्रतिक्रिया देखने को मिली इस अहम घटना पर?

प्रज्ञा ने इस चुनाव को धर्मयुद्ध करार दिया है और लगातार बयानबाज़ी कर रही हैं। भाजपा ने गुरुवार को प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में प्रज्ञा की उम्‍मीदवारी पर विपक्ष द्वारा उठाए जा रहे सवालों को भी दरकिनार कर दिया और खुलकर प्रज्ञा का बचाव किया। संघ अब तक चुप है। क्‍यों? इस रहस्‍यमय चुप्‍पी को कैसे समझा जाए? कोई मीडिया संस्‍थान आखिर संघ से इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं मांग रहा? कोई सवाल क्‍यों नहीं पूछ रहा?

इस परिघटना को समझने के लिए हमें प्रज्ञा ठाकुर के इतिहास के उस अध्‍याय को खंगालना होगा जिसे दो दिन से चिल्‍ला रहा मीडिया कभी नहीं बताने वाला। साथ ही थोड़ा संघ की जातिगत संरचना को भी समझना होगा।

संघ हिंदू धर्म के आवरण में अनिवार्यत: ब्राह्मणवादी संस्‍था है लेकिन इसे चलाने वाले ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता एकरूप नहीं है। जो ब्राह्मण अपने को यहूदियों के सबसे करीब मानते हैं और नस्‍ली रूप से शुद्धतम, वे चितपावन कहलाते हैं। संघ की स्‍थापना वैसे तो देशस्थ ब्राह्मण केशव बलिराम हेडगेवार ने की लेकिन कालांतर में इसके भीतर चितपावन ब्राह्मणों का कब्‍ज़ा हो गया। आश्‍चर्यजनक बात यह है कि सरसंघचालक कभी भी चितपावन ब्राह्मण नहीं रहा। हेडगेवार देशस्‍थ ब्राह्मण रहे, गोलवलकर और देवरस करहाड़े ब्राह्मण, रज्‍जू भैया ठाकुर थे और इकलौते गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक थे। केएस सुदर्शन संकेती ब्राह्मण थे जबकि मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत दैवण्‍य ब्राह्मण हैं। संघ के भीतर यह तथ्‍य चितपावन ब्राह्मणों के लिए हमेशा से अप्रिय रहा है। इसके कई विचारक बेशक चितपावन रहे हैं, नाथूराम गोडसे खुद चितपावन था लेकिन संघ का नेतृत्‍व कभी इनके हाथ में नहीं रहा।

संघ के समानांतर एक संस्‍था है अभिनव भारत जिसे चितपावन जयंत अठावले चलाते थे। यह पूरी तरह चितपावनों के हाथ में है। टाइम्‍स ऑफ इंडिया में 7 फरवरी, 2014 की एक ख़बर देखें जिसमें बताया गया है कि एनआइए की जांच में यह बात सामने आई थी कि मोहन भागवत के ऊपर जानलेवा हमला करने की एक योजना बनाई गई थी। साध्‍वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे से हुई पूछताछ में यह उद्घाटन हुआ कि कुछ अतिवादी दक्षिणपंथी समूह मोहन भागवत से संतुष्‍ट नहीं थे और उन्‍होंने उनके समेत इंद्रेश कुमार की हत्‍या की योजना पुणे में बनाई थी। ये तीनों अभिनव भारत से ताल्‍लुक रखते हैं। यह आधिकारिक रिकॉर्ड का हिस्‍सा है क्‍योंकि महाराष्‍ट्र के तत्‍कालीन गृहमंत्री आरआर पाटील ने खुद अप्रैल 2010 में विधानसभा में इस बाबत एक बयान दिया था।

कुछ लोग इसे भगवा गिरोहों की नूराकुश्‍ती मान सकते हैं, लेकिन असल में यह चितपावन ब्राह्मणों और गैर-चितपावन ब्राह्मणों के बीच के संघर्ष का परिणाम है जो संघ के भीतर और बाहर बहुत तीखा है। यह ऊपर से भले नहीं दिखता, लेकिन इस तथ्‍य से समझा जा सकता है कि कथित भगवा आतंकवाद के नाम पर जितनी भी गिरफ्तारियां हुईं उनमें आरएसएस का कोई भी सक्रिय सदस्‍य नहीं था जबकि अजमेर धमाके की चार्जशीट में नाम आने के बावजूद आरएसएस के इंद्रेश कुमार का बाल भी बांका नहीं हो सका। इसकी कुल वजह इतनी सी है कि अभिनव भारत जैसी संस्‍थाओं का कोई राजनीतिक मुखौटा नहीं है जबकि संघ अपने राजनीतिक मुखौटे बीजेपी के चलते राजनीतिक रूप से काफी ताकतवर है। संघ और बीजेपी कभी भी चितपावन और गैर-चितपावन के बीच का संघर्ष ऑन दि रिकॉर्ड स्‍वीकार नहीं करते हैं। यहां तक कि एनआइए की जांच में भागवत पर हमले की बात सामने आने के बाद भी रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं ने इसे कांग्रेस की साजिश बताते हुए खारिज कर दिया था।

ध्‍यान देने वाली बात यह भी है कि कथित भगवा आतंकवाद में गिरफ्तार हो चुके और मोहन भागवत व इंद्रेश कुमार की हत्‍या की योजना बनाने वाले नामित लोगों में सभी चितपावन ब्राह्मण हैं जबकि भागवत और इंद्रेश दोनों चितपावन नहीं हैं। तो मामला ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता से आगे जाकर चितपावन ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता का बनता है। जिस तरह इज़रायल ने नस्‍ली शुद्धता के नाम पर 20 फीसदी आबादी को दोयम दरजे का बना दिया, वही काम भारत में करना संघ का एक पुराना सपना रहा है।

अभिनव भारत जैसे ‘शुद्ध’ दक्षिणपंथी संगठनों का कांग्रेस राज में संघ आदि से भरोसा उठ गया था कि वे हिंदू राष्‍ट्र के लिए कुछ ठोस करेंगे, इसीलिए कथित ‘भगवा आतंकवाद’ का इतना हल्‍ला मचा। 2014 में जब आखिरकार नरेंद्र मोदी सत्‍ता में आए, तो अतिवादी दक्षिणपंथी गिरोहों का संघ पर दोबारा से भरोसा जगना शुरू हुआ क्‍योंकि केंद्र सरकार ने सरकारी वकीलों को भगवा आतंकवाद के मामले में पकड़े गए लोगों के मामले में धीरे चलने को कहा। सरकारी वकील रोहिणी सालियान का संदर्भ याद करें।

दक्षिणपंथी समूहों के बीच का यह अंतर्विरोध नरेंद्र मोदी से बेहतर कौन समझेगा, जो गैर-ब्राह्मण होते हुए भी संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों को पांच साल से अपनी राजनीतिक सत्‍ता के सहारे मनमाफिक नचा रहे हैं। याद करिए कैसे प्रवीण तोगडि़या को न केवल विहिप से बल्कि समूची दक्खिन बिरादरी से ही तिड़ी कर दिया गया और संघ चुप रहा। संघ की यह चुप्‍पी उसकी राजनीतिक मजबूरी है। नरेंद्र मोदी कभी संघ के प्रचारक रहे होंगे, अब नहीं हैं। वे अब दक्षिणपंथी खेमे के एकछत्र बादशाह हैं। उन्‍हें अपनी राह में संघ का विचारधारात्‍मक और सांस्‍कृतिक रोड़ा पसंद नहीं हैं। उसके लिए उन्‍हें पता है कि किसका इस्‍तेमाल करना है। जाहिर है, कथित ‘हिंदू आतंकवाद’ के आरोपियों को रिहा करवा कर उन्‍होंने इन्‍हें अपने अहसान तले तो दबा ही दिया है। अब बारी ऐसे लोगों का सियासी इस्‍तेमाल करने की है ताकि प्रज्ञा ठाकुर जैसे संघ से ज्‍यादा हार्डलाइनर लोगों के सहारे वे अपनी हिंदू कॉन्‍सटिचुएंसी को रिझा सकें और लगे हाथ संघ को बैकफुट पर ले जा सकें।

इसीलिए मोहन भागवत की हत्‍या की साजिश करने वाले को भाजपा से टिकट दिया गया है। इसीलिए संघ को समझ नहीं आ रहा कि इस घटना पर वो क्‍या बोले। उससे प्रज्ञा ठाकुर की उम्‍मीदवारी न उगली जा रही है, न निगली जा रही है। इसके दूरगामी परिणाम जो भी हों, लेकिन यह घटना संघ और भाजपा के भविष्‍य के रिश्‍तों को परिभाषित करने में निर्णायक साबित होगी।