हाँ,बंदरो और मनुष्यों के पूर्वज एक थे !

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मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह आईपीएस अधिकारी रहे हैं। यही नहीं वे ख़ुद को विज्ञान का जनकार भी बताते हैं। उनकी डिग्री भी असली है। फिर भी उन्होंने डार्विन के विकासवाद को जिस तरह से ख़ारिज किया है, उसकी चौतरफ़ा आलोचना हो रही है। देश के तमाम वैज्ञानिकों ने उनके बयान को हास्यास्पद बताया है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से ग़लत साबित हो चुका है, इसे  स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाना ग़लत है क्योंकि किसी ने नहीं देखा कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। ‘ अव्वल तो डार्विन ने ऐसा कहा नहीं था और दूसरी बात इस पूर्व पुलिस अफ़सर ने  ‘बंदर से पैदा होने ‘या ‘निकलने ‘की जो चश्मदीद गवाही माँगी है, वह बताती है कि विज्ञान की उनकी समझ कहाँ खड़ी है। बहरहाल, इस मसले पर डॉ.स्कन्द शुक्ल ने एक जानकारी भरा लेख लिखा है जो तमाम उलझनों को सुलझाने वाला है। पढ़िए–संपादक  

 

हमें जीना है और तुक्के मारने हैं : भाग 1 

 

“अरे आप जिम कॉर्बेट से आ रहे हैं ! शेर दिखा ?”
“शेर नहीं , वहाँ बाघ मिलते हैं। शेर देखने के लिए गिरवन जाइए।”

गत दिनों एक सज्जन ने डार्विन और विकासवाद को अस्वीकार करते हुए कहा कि मनुष्य बन्दरों से नहीं निकले और यह सिद्धान्त असत्य है। ऐसा सोचने और कहने वाले न तो वे पहले हैं और न अकेले। इस तरह की बातें डार्विन के समय से आज तक लोग उठाते रहे हैं।

सन्देहपूर्ण प्रश्नों के लिए विज्ञान बाँहें खोले खड़ा है। लेकिन सन्देहपूर्ण प्रश्नों से पहले उनका धरातल तैयार कर लेना चाहिए। और फिर प्रश्न की भाषा अलग होती है , उसकी शैली भिन्न होती है। प्रश्न घोषणा नहीं होता। उसमें एक संकोच-सन्देह का लचीलापन होता है। घोषणाएँ जो वायवीय होती हैं , एक विचित्र कड़ापन लिए प्रस्तुत होती हैं। उन्हें यह भ्रम होता है कि कठोरता से दृढ़ता आती है , दरअसल कठोरता भंगुरता से अधिक सम्बद्ध है। यह भी विचित्र है : विज्ञान लचीला है लेकिन धरातली है। परम्परा की कई बातें वायवीयता लिए हैं , लेकिन अन्तिम सत्य की शैली में कही गयी हैं।

ख़ैर। डार्विन पर आइए। उन्होंने डेढ़ सौ से भी अधिक साल पहले जो बताया , वह लोगों को कई कारणों से असत्य लगता है। ऐसे में क्या ही अच्छा होगा कि हम एक-एक करके उन सभी आभासी असत्यों की पड़ताल करते चलें ताकि हमने विकासवाद बेहतर समझ में आ सके।
पहली और सबसे सीधी समस्या भाषा की है। हिन्दी में विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने का मैं हिमायती हूँ , लेकिन हिन्दी के पास शब्द-भाण्डार की सीमा है। वह विज्ञान के ढेरों शब्द अगर अँगरेज़ी से नहीं लेगी तो वह कह न पाएगी , जो कहना चाहती है। शब्द वह जाति गढ़ती है , जो विचार-वस्तु को खोजती-ढूँढ़ती है। शब्द लेबल है , जो लेबल लगाएगा वह पहले लेबेल्ड सामान को पा चुका होगा।

अब यहाँ से यह बात पकड़िए कि ‘मनुष्य बन्दर से नहीं निकले’। यक़ीनन मनुष्य ‘बन्दर’ से नहीं ‘निकले’। ऐसा कहने वाले न ‘निकलना’ ठीक से जानते हैं और बन्दर के भीतर उन्होंने ढेरों जानवरों को संग नत्थी कर दिया है।

गोरिल्ला बन्दर नहीं है। चिम्पैंज़ी बन्दर नहीं है। औरेंग्युटैन बन्दर नहीं है। बोनोबो बन्दर नहीं है। लीमर बन्दर नहीं है। टार्सिएर बन्दर नहीं है। बन्दर शब्द ऐसा हमारे ज़ेहन में रच-बस गया है कि हम हर मिलते-जुलते जीव को बन्दर कह बैठते हैं। घरों में उपद्रव मचाता लाल मुँह-नितम्ब वाला मैकाक भी बन्दर है , काले मुँह वाला मन्दिरों में प्रसाद खाता लंगूर भी बन्दर।

ऐसा इसलिए है कि हमारे शब्द पुराने ज्ञान-भाण्डार से चले आ रहे हैं : कपि , कीस , शाखामृग , वानर और बन्दर में प्राइमेट शब्द का स्थान नहीं है। इन सभी शब्दों में पेड़ों पर झूलने के अतिरिक्त कोई वैज्ञानिक संस्कार भीतर नहीं समा सका है। ‘साखामृग के बड़ि मनुसाई , साखा तें साखा पर जाई’ या ‘ कपि चंचल सबही बिधि हीना’ — इतनी ही हमारी इन जीवों के प्रति आधी-अधूरी चेतना है।

प्राइमेट अन्य जीवों की तुलना में अपने अधिक विकसित मस्तिष्क से पहचाने जाते हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि में गहराई विकसित की है , घ्राण पर निर्भरता को कम किया है। वे सूँघकर नहीं देखकर जीवन के फ़ैसले करते हैं। वे धीमे विकसित होते हैं , उनके नर-मादा अन्य जीवों की तुलना में अधिक अलग-अलग दिखायी देते हैं यानी उनमें यौन-विभेद है। वे पेड़ों पर रहते हैं लेकिन उनमें से कई भूमि पर भी निवास करते हैं। और एक ख़ास बात कि उनका अँगूठा अन्य उँगलियों के विरोध में दूसरी दिशा में लगा होता है ताकि वस्तुएँ बेहतर पकड़ी जा सकें।

यह पोस्ट सौ योजन का सागर हो जाएगी , इसलिए अभी इतना ही। और सन्देहों की सुरसा मुँह बाती उसे पूरा घेर लेगी। अभी कपि-सुन्दरकाण्ड को यहीं रोकिए। बस इतना अवश्य कहूँगा कि जिस देश में लोग जिम कॉर्बेट में बाघ की जगह शेर देखने जाते हों , उस देश में बन्दर को हटा कर ‘प्राइमेट’ की स्थापना निश्चित ही दुरूह कर्म है।

मनुष्य का पूर्वज बन्दर नहीं , मनुष्य का पूर्वज जो था वह बन्दर का भी पूर्वज था। वह कुछ और ही था — जो हमारी-आपकी चेतना में नहीं पैठा है , क्योंकि हमने उसे नहीं देखा है। आज से लाखों साल बाद मनुष्यों की कुछ शाखाएँ ( अगर तब तक मनुष्य बचा रहा तो ! ) जो बन जाएँगी , क्या वे मनुष्य ही होंगे या कुछ और ? लाखों सालों की मद्धिम घटनाओं को आप साठ-सत्तर सालों के अपने जीवन में कैसे समझ सकते हैं भाई ?

विज्ञान तथ्य प्रस्तुत करता है , फिर उनके लिए निश्चित शब्द गढ़ता है। अगर आप किसी वैज्ञानिक बात के लिए परम्परागत शब्द अपनी भाषा से उठाते हैं , तो यह सिद्ध होता है कि आपने विज्ञान ठीक से आत्मसात् नहीं किया है और आपकी भाषा-सरिता आपके पुराने परम्परागत स्रोत से आ रही है।

विज्ञान क्रान्ति करता है , वह लाँघता है। वह नया जानता है , नये शब्द बनाता है। सरलीकरण की अपनी वायवीय हानियाँ हैं , जटिलताओं में एक विशिष्ट स्थिरताभरा लचीलापन।

डार्विन पर लिखूँगा , देखिएगा। दाढ़ी वाला वह बाबा ऐसे ही दुनिया में नहीं छा गया। विज्ञान में छाने के लिए बहुत छानना पड़ता है।

 

 

हमें जीना है और तुक्के मारने हैं : भाग 2 

 

आप अपने भाई-बहन से पैदा नहीं होते ; आप और आपके भाई-बहन किन्हीं और से पैदा होते हैं। वे कोई और आपके माँ-बाप हैं , जिनसे आपको अपनी देह प्राप्त हुई है। इसलिए यह मत कहिए कि आदमी बन्दर से निकला है। यह कहिए कि आदमी और बन्दर एक ही जीव से निकले हैं। वह जीव कोई ‘और’ है।

तो फिर ऐसा कोई मनुष्य दिखाइए जो पूरी तरह विकसित न हो। मेरा मतलब हो कि जो मनुष्य हो रहा हो , लेकिन हुआ न हो। मुझे रास्ते का राही दिखाइए , तब मैं रास्ते को मानूँगा। आपने कह दिया कि जीटी रोड पेशावर से कोलकाता जाती है , मैं क्यों मान लूँ। मुझे तो एक ट्रक देखना है जो पेशावर से चला हो लेकिन कोलकाता न पहुँचा हो। रास्ते में हो। और वह रास्ता आपकी बतायी जीटी रोड हो। तब विश्वास करूँगा।

यह प्रश्न प्रश्नकर्ता के बारे में जीव-विज्ञान की समझ की दयनीयता बताता है। अब इसका उत्तर इस तरह सुनिए। मान लीजिए किसी श्वेत अमेरिकी के पुरखे उत्तर यूरोपीय थे। उत्तरी यूरोप से कई साल पहले लोग चले और सम्पूर्ण यूरोप में फैल गये। उनमें से किसी का वंशज यह अमेरिकी भी है। अब कोई यह पूछे कि वह उत्तर यूरोपीय कहाँ है जिससे तुम निकले हो , हमें दिखाओ।

वह पुरखा तो कब का मर चुका। वर्तमान व्यक्ति उससे उद्भूत है। उसके कई अन्य कज़िन हैं , जो यूरोप में अलग-अलग जगहों बाशिन्दे हैं। लेकिन अब आप उस पुराने व्यक्ति को कहाँ से पाएँगे जो विगत है।

फिर बात मनुष्य के उन विगत पुरखों के जीवाश्मों की होती है। ऐसा कोई सबूत पेश कीजिए जो आदमी-जैसे न हों बल्कि उनके पुरखों-से जान पड़ें।

दरअसल समस्या ‘मनुष्य’ शब्द से जुड़ी सोच के साथ है। मनुष्य का अर्थ हममें से बहुत से आज का मानव लगाते हैं। हम नहीं सोच पाते कि कभी इस धरती पर निएंडरथल भी चलते थे। हम जावा-पीकिंग मानवों के अवशेषों से उनके जीवन को समझने की कोशिश तो करते हैं लेकिन उन्हें किसी आदिवासी के समतुल्य मान कर इति कर लेते हैं। मानव-विकास की कड़ियाँ इतनी आदिम हैं कि कोई आदिवासी कालक्रम में इन प्राक्-मानवों के आसपास भी नहीं फटकता।

गोरिल्ला मनुष्य नहीं बनेगा , वह आपका भाई है। न चिम्पैंज़ी बनेगा , वह भी आपकी तरह एक शाखा का जानवर है। न मैकाक बन्दर बनेगा , वह भी एक अन्य जीव है जो आपकी तरह निकला है। ये सभी टहनियाँ जिस बड़े तने की हैं , वह लाखों-लाख साल पहले बँटनी शुरू हो गयी थी। वह गोरिल्ला-चिम्पैंज़ी-मानव-मैकाक सभी प्राइमेटों का साझा पुरखा था।

फिर आपके पास अन्य जीवों के विकास की कड़ियाँ हैं। आपके पास आर्कियोप्टैरिक्स है जो पक्षि-पूर्वज है और आधुनिक पक्षियों-सा नहीं है। आपके पास डक-बिल्ड-प्लेटिपस-जैसा आधुनिक जीव है , जो आधुनिक है और जिसमें पक्षी , सरीसृप व स्तनपायी , तीनों के लक्षण हैं। आपके पास क्रमशः विकसित होता अंग-ज्ञान है , जो एक विकास-क्रम दर्शाता है। आपके पास आनुवंशिकी है जो विभिन्न जीवों में जीनों में एक विकास-शृंखला स्थापित करती है। आपका विकास-क्रम स्वतन्त्र नहीं है , आप कोई विशिष्ट नहीं हैं। आप किसी बड़े क्रम का हिस्सा हैं , जिसके अन्य जीव भी हिस्से हैं।

अतीत जब बहुत पुराना होता है तो खोयी कड़ियाँ ढूँढ़नी मुश्किल होती हैं। अगर कोई कड़ी मिल भी जाए , तो हम उसके पूरे-पूरे सत्यापन के लिए उसका कड़े-से-कड़ा इम्तेहान लेते हैं। तुम विकासवाद बताने आये हो : यह बताओ , वह बताओ। यहाँ कमी है , वहाँ कमी है। यह अधूरा है , वह अधूरा है। लेकिन ये ही लोग अपने-अपने धर्मग्रन्थों के आगे नतमस्तक-करबद्ध होकर दयानिधे ! महाप्रभो ! का भक्तिनाद करते नज़र आते हैं। वहाँ कोई प्रश्न नहीं , वहाँ कोई सन्देह नहीं।

इनका तर्क केवल उसपर चलता है , जो उनको झकझोरता है। जो पुराना है वह चाहे असत्य हो , उसके लिए उनके मुँह में केवल आस्था की ‘अहा’ है।

डार्विन पर अभी और-और अलग-अलग बातें , विस्तार से किन्तु धीरे-धीरे

 

 


पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।