मायावती की प्रेस कान्फ्रेंस में रिपोर्टर बस इमला लिखते थे !

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भाऊ कहिन-20

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

 

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?

 

 

भाग-दौड़ , कुछ अवांछित भी , दिल्ली में बढ़ ही जाती है ।

फिर मैं , भले कुछ न कर पाऊं , लेकिन बीते 2 – 3 माह से तनाव में तो हूं ही । दो दिन पहले तो मेरे साथ भी एक हादसा हो गया । गुड़गांव के सेक्टर 23 में , हालांकि तराशी गयी

( अरेंज्ड ) हरीतिमा में अपने बांयी ओर खिंचा मोबाइल पर किशोर दादा को सुनता टहल रहा था । यह बहुत नम सुबह थी । कुछ घरों पर चढ़ी गझिन लताएं रात भर की रिमझिम से खूब नहाईं थीं और पत्तों में पारदर्शी नीलापन आ गया था । ..तभी दायीं ओर से दौड़ कर आये कुत्ते ने संम्भलने का मौका भी नहीं दिया और दायीं पिंडली में हबक लिया । उसका कैनाइन दांत धंस चुका था । कहीं खो जाने , ट्रांस में चले जाने की सजा तो अपने पत्रकारीय करियर में कई बार पा चुका हूं ।
लेकिन आदत का क्या करूं ।
डा. साहब ( सदाशिव द्विवेदी ) कहा करते थे —
….. खासकर राजनीतिक रपट , जितना दिखता और सुनाई देता है , उन्हीं तथ्यों पर नहीं बनती ।
यह तो 88 – 89 की बात है , जब मैं गोरखपुर था ।
लखनऊ के वो दिन भी याद आ रहे हैं जब 6 – 6 माह की तय पारी पर, उत्तरप्रदेश में भाजपा-बसपा सहयोग की सरकार बनी थी । लौह आवरण की वजह से बसपा के बारे में कोई जानकारी तकरीबन नामुमकिन थी । दूसरी कतार के किसी नेता को प्रेस से बात करने या मेल -जोल बढ़ाने की सख्त मनाही थी। माह में एक- दो बार बहन जी , प्रेस वार्ता करती थीं और उसमें भी एकतरफा संवाद । पत्रकार दरअसल इमला लिखते थे।
मैंने इसकी चर्चा रामेश्वर पाण्डेय ‘ काका ‘ से की ।
उन्होंने कहा –
बाबू , राजनीतिक रपटों में अपनी कल्पनाशीलता और पूर्वानुमान का इस्तेमाल करना ही पड़ता है । … करना भी चाहिये । इसके लिये आपको सन्दर्भ समृद्ध भी होना चाहिए । और इसमें तो आपका जवाब नहीं है ।
मायावती की पारी खत्म होने वाली थी । वह तड़ातड़ फैसले ले रहीं थीं । तभी अखबार के पहले पन्ने पर , मेरी एक लंगर रपट , छपी । जिसका कंटेट था — … अगर करार के मुताबिक , 6 माह बाद भाजपा का मुख्यमंत्री आया, तो वह सरकार मायावती के लिये गये फैसलों को क्रियान्वित करने वाली निकाय होकर रह जायेगी ..।

यह रिपोर्ट बहुत चर्चित रही और इसी ने वह स्थिति ला दी कि , मेरा हर फोन अटेंड किया जाने लगा ।
अब कल्पनाशीलता , सटीक शब्द चयन , सन्दर्भ आदि बेमानी हो गये । और अगर आपने आज भी खुद को इमला लिखने वाले रोबोट में नहीं बदल लिया है, तो कुत्ता काटेगा ही ।
तब तो और जब आपकी आदत बिगड़ गयी हो। यानि सब कुछ जस का तस चलते रहने के , बायीं ओर खड़े होने की । 21 जुलाई को दिल्ली से गोरखपुर के लिये चल दूंगा ।

 

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अब किस क्षेत्र का शिखर व्यक्तित्व पत्रकारों से बात नहीं करना चाहता ! 

स्वतंत्र , सजग , जिज्ञासु , संवेदनशील , नये ज्ञान के प्रति उत्सुक और कुल मिलाकर एक पॉलिटिकल सोसाइटी,अगर अखबारों ( जल्दी का साहित्य ) का लक्ष्य नहीं तो, होना क्या चाहिये ? सूचनाओं का भी अच्छा – बुरा वर्गीकरण , सरोकार और औचित्य देखा जाना चाहिये या नहीं ?

ये खालिस दार्शनिक कवायद नहीं है । यह बहस बहुत जरूरी है ताकि मौजूदा दौर के पत्रकारिता ( पहले तो भाषाई ) की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता भी रेखांकित हो सके ।
जो प्रासंगिक नहीं है , उसका होना भी क्यों जरूरी है ।
अब , केवल विज्ञापन व्यवसाय कर रहे अखबारों को बस क्या इसलिए बने रहने देना चाहिए कि कुछ लोग देश के 100 या 50 सर्वाधिक धनी और असरदारों की किसी सूची में आ जायें ?
अमेरिका की मशहूर पत्रिका ‘न्यूयार्कर ‘ में छपे अपने साक्षात्कार में , एक भारतीय मीडिया मुगल ने यह माना —
हम न्यूज पेपर का नहीं, दरअसल ऐड बिजनेस करते हैं ।
जाहिर है इसीलिये हिन्दी अखबारों में भी 80 प्रतिशत खबरें विज्ञापन के हलके से होती हैं ।
यशस्वी पत्रकार पी. साईंनाथ की चिंता जायज है —
अब अखबारों में श्रम या कृषि बीट नहीं होती न इसके संवाददाता ।
पारम्परिक किसानी दुनिया ही , हमारा लोक भी है । जाहिर है हमारी पत्रकारिता लोक विरुद्ध है ।
बिहार में उत्तरप्रदेश से गये एक संपादक को संस्कृति के नायक भिखारी ठाकुर के बारे में आज तक कुछ नहीं मालूम हो सका ।
वह खुद को न्यूज का आदमी कहते हैं । यह तो आज की बात है ।
दस साल पहले शायद 2006 की बात याद आ रही है । तभी से इस अखबार पर मार्केट पॉलिसी समझने और इसे ब्रांड बनाने का दवाब बढ़ने लगा था । बाहर के लोग आकर ‘ ब्रांड का समाजशास्त्र ‘ पढ़ाने लगे थे । लेकिन संपादक को तब भी ‘ मैटीरियल गर्ल ‘ जैनेट जैक्शन की रोलिंग स्टोन के साथ की , एलबम के बारे में कुछ नहीं पता था ।
इन संपादकों को महेन्दर मिसिर नहीं मालूम हैं , न मैडोना ही ।
ये पूरब – पश्चिम , जमीन -आसमान के बीच लटके लोग हैं । हिन्दी अखबार अपनी प्राथमिकता ही नहीं तय कर सके । वे अभी संक्रमण में हैं ।

मैं जब यह लिख रहा था , तभी फोन पर सूचना मिली कि किसी बात को दो बार पूछ देने से नाराज एक स्टेट हेड ने, एक जूनियर सहकर्मी को कहा – अभी इस माले से नीचे फिकवा दूंगा ।
याद आ रहा है । एक बार आदरणीय स्व. प्रभाष जोशी ने लिखा था —
किसी जुटान , यहां तक कि पारिवारिक उत्सवों में भी जाने पर एक दिक्कत आने लगी है । अर्थव्यवस्था , राजनीति या संस्कृति से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर , अचानक चल निकली बात पर, लोग मुझसे राय मांगने लगते हैं ।
ऐसा होता रहा है । आज से 15 साल पहले तक । मुझ कमअक्ल को भी देख कर लोग कह पड़ते थे — दुबे जी , पत्रकार हैं , बेहतर बता सकेंगे ।
आज तो उल्टा हो गया । साहित्य , कला , विधि या विज्ञान के क्षेत्र का कोई शिखर और संजीदा व्यक्तित्व किसी पत्रकार से बातचीत इसलिए मना कर देता है कि उसे उसकी समझ पर भरोसा ही नहीं होता ।
खूब याद है जब पंडित जसराज ने बहुत मुलायमियत से एक पत्रकार से कह दिया —
मेरे बारे में पहले से कुछ जानते ही नहीं तो , बात करने क्यों आ गये ? हालांकि रिपोर्टर मीटिंग में यह बातचीत भी प्लांड थी । न्यूज एडिटर को भी शायद पंडित जसराज के बारे में कुछ खास नहीं पता था ।
जबकि वह खबर -खबर चिल्लाते न्यूज रूम में घूमते रहते हैं ।

 

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पत्रकारिता अब भड़वागीरी नहीं रह गई है क्या ?

 

लिखूंगा कुछ संपादकों के व्यक्तित्व पर अलग से । पंकज श्रीवास्तव से वायदा है ।

लेकिन अखबारों में आज के मौजूदा दौर की लंपटई , मालिक का तलवा चाटते , कुछ अनपढ़ और गुंडे संपादकों पर लगातार लिखते हुए , वे यादें भी तो खुल रहीं हैं , जिनमें जिंदगी के जीत की कौंध थी ।

‘ जनमत ‘ के संयुक्तांक नवम्बर – दिसम्बर 2015 में प्रियदर्शन मालवीय का लेख पढ़ा था —
‘ गोष्ठियां , रैलियां और जलसे आप रोज नहीं कर सकते , मगर साम्प्रदायिकता से आपको रोज लड़ना है , पल – पल लड़ना है।’

इसलिए डंगवाल साहब ( वीरेन डंगवाल ) अखबार से जुड़े । हालांकि डंगवाल साहब अखबारों की हकीकत से वाकिफ थे।
‘ इतने मरे , यह थी सबसे आम , खास खबर / छापी भी जाती थी / सबसे चाव से / जितना खून सोखता था / उतना ही भारी होता था अखबार , पत्रकार महोदय ‘ ।

उस समय बरेली शहर से दो प्रमुख अखबार निकल रहे थे – ‘ दैनिक जागरण ‘ और ‘ अमर उजाला ‘ । दैनिक जागरण अखबार अपने ‘ साम्प्रदायिक हिन्दू ‘ तेवर के लिये ‘ रामजन्मभूमि ‘ काल से कुख्यात रहा है , इसे काउंटर करने के लिए डंगवाल साहब ने अमर उजाला को खड़ा किया । अमर उजाला के मालिक से उनके बड़े घरेलू और स्नेहिल संबंध थे । उसने डंगवाल साहब को संपादक के रूप में काफी छूट दे रखी थी , मगर साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर वह अक्सर मचलने लगता था । उसे लगता था कि दैनिक जागरण का सर्कुलेशन अमर उजाला की अपेक्षा ज्यादा सिर्फ उसके साम्प्रदायिक रुख के कारण है ।
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डंगवाल साहब मालिक को समझाते — देखो साम्प्रदायिकता विरोध तुम्हारे अखबार का यूएसपी ( यूनिक सेलिंग प्वाइंट ) है । यदि साम्प्रदायिकता का बाजार है तो साम्प्रदायिकता विरोध का भी बाजार है । एक ही तरह के रुझान से आदमी ऊब जाता है । चार साम्प्रदायिक अखबार के बीच साम्प्रदायिकता विरोधी अखबार के लिए भी स्कोप रहता है । …’
…. अन्य पत्रकार मालिक को समझाते रहते थे कि अखबार की यह लाइन भविष्य के लिये घातक साबित हो सकती है । … ‘
अखबारों में वीरेन डंगवाल जैसों के लिये ये तनाव के  मुश्किल दिन थे । और लुम्पेनिज्म के क्रमश: उभार के ।

जो कुछ लिख रहा हूं वह एक ऐलान है –
वे सब जो अखबार के सरोकार और पत्रकारीय मूल्यों के लिए जरूरी थे , साजिश करके मारे गये । वे चुप नहीं रहेंगे ।
उन संपादकों के बारे में लिखा जाना चाहिए या नहीं जिनकी दासोचित विनम्रता पर खुश होकर मालिक ने उन्हें भड़वे का काम दे दिया है ? ताइयेगा ।
पत्रकारिता (खासकर कुछ हिन्दी अखबारों की ) अब भड़वागीरी ही नहीं रह गयी क्या ? जवाब चाहता हूं ।

 

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सहारा की अविस्मरणीय शृंखला थी-भारत ग़ुलामी की ओर

 

‘ दिनमान ‘ ( रघुवीर सहाय के नेतृत्व वाला ),  ‘ रविवार ‘ ( सुरेन्द्र प्रताप सिंह के नेतृत्व वाला जिसे
बाद में उदयन शर्मा ने रीलॉन्च किया ) , प्रभाष जोशी और राजेन्द्र माथुर के नेतृत्व वाला जनसत्ता और नवभारत टाइम्स लोगों को , खासकर मेरी उम्र वालों को आज भी खूब याद है ।
‘ दिनमान ‘ तो भारतीय आधुनिकता की खोज, मुकम्मल विश्वदृष्टि से , साधारण जन और व्यापक हिन्दी समाज की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा का भी प्रयास था। यहीं से हिन्दी पत्रकारिता में रिपोर्टिंग की तमाम विधाएं विकसित हुईं , जिसे बाद के अखबारों ने भी अडॉप्ट किया ।
लेकिन , इसी क्रम में यथास्थिति में बहुत प्रभावी हस्तक्षेप का एक साप्ताहिक ‘ शान-ए- सहारा ‘ की याद आनी भी बहुत स्वाभाविक है । इसलिए भी कि यह एक आधी बैंकिंग ( पारा बैंकिंग या नान बैंकिंग फाइनेंशियल कम्पनी ) समूह का प्रयास था , जो आजकल अपने ही कृत्यों से दुश्वारियां झेल रहा है। शो मैनशिप पर काली स्याही के दाग तक हैं ।

शान – ए – सहारा के संपादक थे तड़ित कुमार ( चटर्जी ) । चटर्जी , उन्होंने कभी लिखा ही नहीं । टीम में आनंद स्वरूप वर्मा , रामेश्वर पाण्डेय ‘ काका’ , अभय दुबे , उर्मिलेश जैसे लोग थे । इस साप्ताहिक ने भी एक प्रतिमान रचा ।
याद आता है वह काल भी जब देश के नवें प्रधानमन्त्री थे , पामुलापति वेंकट नरसिंह राव । ( 20 जून 1991 से 16 मई 1996 तक )
यही वह समय था जब देश तीव्र भूमंडलीकरण और वाशिंगटन आम सहमति के तहत खुली यानि नव उदार अर्थव्यव्यवस्था की ओर कदम बढ़ा चुका था । ऐसे समय में इसी पारा बैंकिंग समूह के अखबार ‘ राष्ट्रीय सहारा ‘ में प्रतिकार की एक अविस्मरणीय श्रृंखला ‘ भारत गुलामी की ओर … ‘ छप रही थी ।
शायद 80 किस्ते छपी थीं ।
श्रृंखला का आयोजन सीधे – सीधे नीतिगत मसले पर केंद्रीय सत्ता से टकराव का था , जिसे ‘ राष्ट्रीय सहारा ‘ ही अफोर्ड कर सकता था । कोई दूसरा हिन्दी अखबार नहीं । इसी अखबार से ‘ हस्तक्षेप ‘ जैसा आयोजन भी संभव हो सका ।
लेकिन यह अखबार भी बाद में कुछ बहुत मक्कार और अनपढ़ लोगों के हाथ आ गया । ऐसे लोगों के हाथ जो स्ट्रिंगर या जूनियर रिपोर्टर से सीधे प्रबंधन और संपादकीय शीर्ष पर चले गये । जो सवा करोड़ की गाड़ी से चलने लगे ।
इनकी करस्तानियां आज भी जारी हैं । नहीं यकीन होता कि ये लोग सहाराश्री की पसंद रहे होगें ? उन्होंने सहाराश्री को कैसे शिकंजे में लिया होगा ये भी दिलचस्प कहानी है ।
रघुवीर सहाय जी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , श्रीकांत वर्मा , वीरेन डंगवाल , तड़ित कुमार , डा. सदाशिव द्विवेदी , जयप्रकाश शाही , विनय श्रीकर से लेकर रामेश्वर पाण्डेय तक कई नाम बहुत शिद्दत से याद आ रहे हैं । कविता और पत्रकारिता के मेल का एक सुंदर सा चंदोवा तनता जा रहा है । इतिहास के साथ ही जब से जिंदगी से कविता भी बेदखल हुई पत्रकारिता में लंपटई आ ही जानी थी ।
इसपर कोई ‘ त्वरित टिप्पणी ‘ हो सकती है या नहीं ? किसी , असल में नान पॉलिटिकल एडिटर से पूछना चाहता हूं , जिसे अखबार में पॉलिटिकल एडिटर कहा जाता है ।
जारी….

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