वह प्रभाष जोशी की रणनीतिक कुशलता का ‘हेमंत’ था !

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
अभी-अभी Published On :


हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?

 

भाऊ कहिन-24

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए, जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

*******************************************************************************

 

राज्यसभा न पहुंच पाने की कुंठा में , जिससे पूरी नहीं हुई उम्मीद , उन सबके कपड़े उतारने , दाढ़ी में तिनका ताड़ लेने या धोती के भीतर झांक लेने की प्रभाष जोशी जी की करतूतें गजब हैं । बात उस पर भी चलेगी ।

लेकिन उससे पहले जगदीश्वर चतुर्वेदी के, ब्लॉग ‘ नया जमाना ‘ ( 21 अगस्त 2009 ) पर की कुछ  पंक्तियां उल्लेखनीय हैं । साभार ।
कह सकते हैं मेरी बात और संदर्भ खोल सके इसलिये चतुर्वेदी जी की मदद ले रहा हूं । सती प्रथा और ब्राह्मण नस्ल के  महिमामंडन वाले जोशी जी के चर्चित साक्षात्कार पर वह लिखते हैं —

”….. प्रभाष जी , आप व्यक्ति की पहचान को जाति , धर्म , कौशल आदि से क्यों जोड़ कर देख रहे हैं ? क्या आपको मनुष्य की पहचान दिखाई नहीं  देती । देती है तो फिर बोलते समय या लिखते समय उसे भूल क्यों जाते हैं ?  कठोरतम भाषा में कहूं तो आपके विचार एक सिरे से प्रतिक्रियावादी ही नहीं बल्कि मानवता  विरोधी भी हैं ।….आपके अंदर का बुद्धिजीवी मनुष्य अचानक ब्राह्मण में बदल जायेगा , यह तो कायाकल्प ही कहा जायेगा । गद्य अच्छा लिखते हैं , अच्छा बोलते हैं , नाम भी है किंतु इससे कोई महान नहीं बनता । महान बनता है नजरिये के कारण ….। …… प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार की सारी चिंतायें मायावती , लालू यादव , मुलायम सिंह , दिग्विजय सिंह आदि के इर्द – गीर्द घूमती हैं । थोड़ा जोर लगाया तो साम्प्रदायिकता , धर्मनिरपेक्षता , आतंकवाद आदि पर जम कर बरस पड़े । दोस्तों ये सारे एजेंडे  जनता के नहीं वर्चस्वशील ताकतों के हैं , हमें लेखक होने के नाते अंतर करना होगा , हमारी जनता का एजेंडा क्या है …। सवाल किया जाना चाहिए कि जनता के एजेंडे पर कितना लिखा और सरकारी एजेंडे पर कितना लिखा ।  प्रभाष जी के कलम की सारी स्याही शासकीय एजेंडे पर खर्च हुई , उन्होंने विकल्प के एजेंडे पर न्यूनतम लिखा है …। ”
गजब तो ये कि चेला सचमुच चीनी हो गया । उसे यह अवसर जनसत्ता लखनऊ का संवाददाता रहते भरपूर उपलब्ध कराया गया ।

क्या वह कालखंड प्रभाष जोशी जी की भी कार्यनीतिक और रणनीतिक कुशलता का हेमंत ( ऋतु ) था ? हां था ।
हेमंत के साथ कुछ नया या हालिया , दोस्तों को  पता ही होगा ।

 

गौरी लंकेश जैसे एक्टिविस्ट पत्रकार अब हैं ही कितने ?

 

असहमति , आलोचनात्मक रुख और एक्टिविज्म  जारी रहे , इस डरी – डरी सी कामना के साथ निर्भीक पत्रकार गौरी लंकेश को  श्रद्धांजलि देने के अलावा हम कायर  लोग और कर भी क्या सकते हैं ?

सार्वजनिक बहसों के खत्म होते जाने से चिंतित और बराबरी वाले समाज के लिये कोई पहलकदमी , अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी मानने वाली गौरी लंकेश , तुम्हारे नाम पर मेरे भी , हाथों में एक जलती मोमबत्ती है । कातर कांपती लौ वाली , बस एक प्रार्थना की तरह । अगर इसमें असहमति की लाल धारी दिखी तो जानता हूं बहुत छोटे दायरे की इस रोशनी को भी बचाना मुश्किल हो जायेगा ।

किसी पत्रकार की पेशागत दक्षता भी हो सकती है । उसका लिखा जतन से धरे जाने  और कुछ के लिये फुर्सत में पढ़े जाने लायक भी हो सकता है । लेकिन कुछ अपवाद छोड़ ऐसा लेखन व्यवस्था को असहज नहीं कर सकता ।

लेखन और एक्टिविज्म का सांघातिक मेल ही किसी भी तरह की आतताई सत्ता के जोरदार मुख़ालिफ़त की मजबूत जमीन बनती है ।
गौरी लंकेश की हत्या केवल एक पत्रकार की ही नहीं एक एक्टिविस्ट की भी हत्या है ।
केवल लेखन का पेशा जी रहे लोगों को डरने की जरूरत नहीं । वे लिखें शब्द – शब्द अंगार ।
दिखें स्क्रीन पर हाथ में थामें मशाल । कहीं कोई खतरा नहीं है । खतरा एक्टिविस्ट पत्रकारों पर है । गौरी लंकेश की हत्या से हम मर्माहत हैं । वैसे भी अब एक्टिविस्ट पत्रकार रहे कहां ?

आज ही दिल्ली आया हूं । गोरखपुर से चलकर । विकल्प न होने की सूरत में पहले ‘ सत्याग्रह ‘। घूम – घुमा कर । उसे छोड़ना पड़ा । फिर ‘ हमसफ़र ‘ । 15 से 16 घण्टे की झेलाऊ यात्रा ।

अपना भी स्वास्थ्य ठीक न होने से ‘ हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ‘ की अगली क़िस्त बाधित रही ।
आज से शुरू ।

 

 

ऊँची जाति के वर्चस्व की बात उठाते ही परशुराम बने गए प्रभाष जोशी !

 

इसी भीत पर कभी लिखा था —
यहां पॉयनियर चौराहे  ( लखनऊ ) पर की गोष्ठियों में तब वही शामिल  हो सकते थे जिनमें नींद और नींद के सपने दोनों को लेकर उड़ जाने वाला परिंदा था । जिस प्रयोगधर्मी और क्रासओवर कंटेंट की बात मैं यहां कर रहा हूं , जाहिर है कविता और एक्टविस्ट मिजाज के साथ बहुत धीमी आंच पर उसका पकना यहीं सम्भव था ।

अभी – अभी मोबाइल पर बीते दो दिन से पड़ी  कई मिस्ड कॉल देखी है । दिल्ली आ गया हूं ।
रामेश्वर पांडेय काका से चाहते हुए भी पता नहीं क्योंबात नहीं कर पाया ।
‘ हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ‘ श्रृंखला को किताब की शक्ल दे दूं , यह हौसला बढ़ाने के लिये मैं काका और आलोक जोशी जी का आभारी रहूंगा । 56वीं क़िस्त तक आदरणीय स्व. प्रभाष जोशी जी पर थी । यह भी यानी 58वीं भी उन्हीं पर ।

https://Janvikalp.wordpress.com ,  प्रभाष जोशी ‘ , मीडिया समाज ‘ , ‘ महज एक बच्चे की ताली ‘ शीर्षक में प्रमोद रंजन लिखते हैं —

जनसत्ता के 30 अगस्त , 2009 के अंक में प्रकाशित मेरे लेख ‘ विश्वास का धंधा ‘ पर श्री प्रभाष जोशी ने नाराजगी जाहिर की थी ।
6 सितम्बर 2009 को अपने कॉलम कागद कारे में उन्होंने मुझे ऐसा बच्चा बताया , जिसने उनके अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के पैरों में फच्चर फंसाने की कोशिश की है ।….
उनकी वरिष्ठता के सामने मैं सचमुच बच्चा हूं ।..
उन्होंने मुझे रतौंधी से ग्रस्त , नयन सुख और काले धंधे का रक्षक भी कहा । आश्चर्य उनकी इस बौखलाहट पर है । आखिर क्या कारण है कि पत्रकारिता में ऊंची जाति के हिंदुओं के वर्चस्व और उनके जाति धर्म , मित्र धर्म निर्वाह की बात उठते ही , एक प्रमुख गांधीवादी के रूप में अपनी पहचान रखने वाले श्री जोशी रामनामी उतार कर परशुराम की भूमिका में आ गये ।…..
 

  

प्रभाष जोशी की सख़्त परीक्षा में ज़्यादातर ब्राह्मण ही चुन कर आए !

 

ढर्रे पर की जिंदगी और सब कुछ जस का तस चलते रहने देने के खिलाफ , अस्वीकार या भभकता नकार , स्व. जयप्रकाश शाही के व्यक्तित्व में गहरे उतर चुका था । यह उनके अंतर का सच भी था ।

खांटी हिंदी पट्टी के अपने समय के वहसर्वाधिक नयी तर्ज के पत्रकार थे । अपूर्व प्रतिभा सम्पन्न । उनका लिखा – पढा ( जितना मुझे याद है ) समाज को नये सिरे से देखना प्रस्तावित करता है । तब शाही जी लखनऊ से जनसत्ता के संवाददाता थे ।

एक अन्य अखबार के ब्यूरो चीफ ( लखनऊ में नहीं ) के पद से किसी को सीधे जनसत्ता में न्यूज एडिटर बना देने पर शाही जी ने प्रभाष जोशी जी के समक्ष कड़ी आपत्ति की । कहा —

‘अगर किसी रिपोर्टर को ही न्यूज एडिटर बनाना था , तो मैं कहां बुरा था । वह जिस अखबार में काम कर रहे थे,मैं उससे बड़े अखबार का रिपोर्टर हूं ।’

कुछ ही दिनों बाद शाही जी का स्थानांतरण लखनऊ से मुंबई हो गया । उनकी जगह दे दी गयी , उस समय वाराणसी में कार्यरत एक स्ट्रिंगर को । वह प्रभाष जी के अत्यंत प्रिय क्यों और कैसे बने , यह अलग कथा है । लिखी जाएगी ।

दरअसल शाही जी का हटाया जाना और प्रभाष जी के हेमंत ( ऋतु ) का आना , एक बड़ी सधी , सतर्क और शातिर पटकथा का नतीजा था ।

फिर कुछ याद आया ।

प्रमोद रंजन के लेख की ये पंक्तियां बहुत महत्वपूर्ण हैं । (ऊपर लिख चुका हूँ ) वह लिखते हैं  —

” …. एक पत्रकार द्वारा ब्राह्मणवाद की शिकायत करने पर उसे मनोरंजन का साधन बना डालने की गर्वपूर्ण स्वीकारोक्ति करने वाले प्रभाष जोशी कहते हैं कि ‘ उनके निर्देशन में जनसत्ता का पूरा स्टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्यादा सख्त ‘ परीक्षा के बाद लिया गया था । लेकिन उनके ही अनुसार
इस सख्त परीक्षा में ब्राह्मण ही ज्यादा चुन कर आये थे ‘ क्योंकि जिस भाषा में जैसे लोग पत्रकारिता में निकल कर आएंगे वैसे ही तो रखे जाएंगे । ‘

तो जोशी जी जिस प्रकार की पत्रकारिता कर रहे थे उसके लिये हिंदी भाषा में ज्यादा ब्राह्मण आये और उनकी सोहबत में रहने वाले हरिवंश के लिये राजपूत । हिंदी भाषा की समझदारी को तो दाद देनी चाहिए , जिसको जैसा चाहिये , वह अपने आप निकाल कर सामने परोस देती है । ”

सही कहता है मेरा एक राजपूत दोस्त — भाऊ , इस जातिवाद का भी एक वर्ग चरित्र है । यह एक खास स्तर पर ही सेटल होता है ।

 

जातिवाद अख़बारों के बीज में ही था !

 

जब लिख रहा हूं कि पत्रकारिता में इस जातिवाद की एक खास भरोसा और विश्वास ही सिमेंटिग करता था , आगे की बातें भी बहुत प्रासंगिक हैं ।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चन्द्रशेखर जी और उनके मित्र कमल मुरारका से नजदीकियों का लाभ उठाकर कई ने काबिलियत की नहीं , कामयाबी की आसमान छूती ऊंचाई हासिल कर ली थी ।

जहां – तहां खिड़की , रोशनदान , ऊंची से ऊंची चारदीवारी फलांगने के दौरान भी उन्हें चोट न आये , यह जादू तो वे जानते ही थे । उनका कैलकुलेशन सही था , वे चढ़ते ही गये ।

तब भी गगहा ( गोरखपुर ) के बाबू साहब देवेंद्र सिंह (आजकल रांची में ) पैदल ही थे । इससे पहले रांची में आज अखबार के सांध्य संस्करण में उनका नाम बतौर संपादक प्रिंट लाइन में जाता था । चन्द्रशेखर जी रिश्ते में उनके मामा लगते थे ।
बड़े भाई अमरनाथ सिंह के बहुत कोंचने पर बेमन वह चन्द्रशेखर जी के पास गये थे । चन्द्रशेखर जी ने उनके लिये उस समय हिंदुस्तान अखबार के सर्वेसर्वा वाइस चेयरमैन नरेश मोहन को तत्काल फोन किया । देवेंद्र को आश्वस्ति भी मिल गयी ।

इसके कुछ ही दिनों बाद नरेश मोहन को दिल का गहरा दौरा आया । वह हस्पताल में महीनों भर्ती रहे । जब ठीक होकर आये भी तो अपनी जगह नहीं रह सके । सबकुछ शोभना भरतिया जी ने संम्भाल लिया था । बड़े भाई के बहुत कोंचने पर भी देवेंद्र सिंह इस बार चन्द्रशेखर जी के पास नहीं गये ।

कंगाली और फाकामस्ती के इन्हीं दिनों में वह दिल्ली में राजीव चौक ( पालिका बाजार रोड पर ) से होकर कहीं जा रहे थे । अचानक कार से जा रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह ( एसपी ) की निगाह उन पर पड़ी । उन्होंने गाड़ी रोकी और देवेंद्र को बुलाया । अपने साथ दफ्तर ले आये । तब तक आज तक स्वतंत्र खबरिया चैनल के रूप में स्थापित हो चुका था । एसपी ने देवेंद्र से कहा —
रांची से हफ्ते भर के भीतर यहां आ जाओ और आजतक ज्वाइन कर लो ।

लेकिन ऐसा नहीं हो सका । एसपी को ब्रेन हैमरेज हुआ और नहीं रहे ।

बहुत दिनों बाद कभी चन्द्रशेखर जी रांची आये थे । एयरपोर्ट पर देवेंद्र सिंह उनसे मिलने गये । आधे घण्टे तक बातचीत हुई । वहां हरिवंश जी पहले से थे । इन दोनों के बीच अपरिचय का सायाश और तय फासला वहां भी बना रहा । हरिवंश जी ने इसे बनाये रखा । दोनों में कोई औपचारिक हाल – चाल भी नहीं हुई ।

किसी के बिरादरीवाद का कोई फायदा देवेंद्र को तो नहीं ही मिला , विद्यानिवास मिश्र जी की चरणधूलि माथे न लगाने के कारण मैं भी देवरिया में कुजात ब्राह्मण बना रहा । जहां के कुछ मोहल्लों के ब्राह्मणों में किसी तरह के उत्सजर्न ( केवल दीर्घ या लघुशंका ही नहीं ) के वक्त कान पर जनेऊ चढ़ा लेने की परम्परा रही है । जहां के अधिकांश ने किलो भर पेड़े और पियरी धोती पर जमीनें लिखीं लेकिन यह बताने से नहीं चूकते कि उनके बाबा – दादा की धोती हवा में सूखती थी । जहां औरतें सिले कपड़े पहन कर रसोई नहीं बनातीं ।

सुविज्ञ दुबे , जेएनयू वाले का तो राजपूत बिरादरी से बहुत ललित रिश्ता है । जीवन संग का या प्रेम की अष्टाध्यायी का । लेकिन वह दोनों ओर से गया ।
देवेंद्र हों या शशिभूषण । राजपूतवाद के खांचे में नहीं आ सके और मुझे या सुविज्ञ दुबे को प्रभाष प्रभात में या जहां विद्या निवास करती हो जगह नहीं ही मिलनी थी ।

सुबह ही सुविज्ञ का चहकता फोन आया था — जेएनयू में लाल परचम …..।

लिखना तो यह भी है कि दैनिक जागरण लखनऊ और गोरखपुर की स्थापना या जड़ जमी पुनरस्थापना में किस तरह , कभी किसी का खून सूखा देने का असर रखने वाले जातीय गर्व का सहारा लिया विनोद शुक्ल ने । और आज की बात नहीं , कभी प्रभात खबर , बिहार की स्थापना के लिए कोयलांचल के खूब दहकते और समानांतर सरकार वाले नाम का । यह हिंदी के इलाकाई अखबारों की मजबूरी भी थी । जातिवाद बीज में ही था ।

..और प्रभाष जोशी ने फतवा दे दिया-ऐसे गवर्नर को फेंक देना चाहिए !

 

कुआर ( तकरीबन आधे बीते सितम्बर ) से दिन जरा जल्दी ढलना शुरू हो जाता है और शाम उदास – उदास सी होने लगती है । दिल में ही जो खिंचती है से सटकर , प्रतिरोध की सिंफनी रचती , बचपन में सुनी आटा चक्की या धनकुट्टी की पुक – पुक बहुत याद आ रही है ।

डॉक्टरों के मुताबिक यह वाइरल का मौसम है । उदास शाम और चाम सिझाती धूप भी । अब क्या करूं अगर इसी माह मेरा जन्मदिन भी पड़ता है जिसको लेकर कोई उल्लास न कभी था , न है । मां तो जब मैं 13 या 14वें का था , नहीं रहीं । उन्हें यह कहते लेकिन सुना था –
कुआर में ई जरूर बेराम पड़ेला ।

यहां धीमी – धीमी आंच पर पकते , कुछ खुद के और कुछ दूसरों के जिये की चर्चा या सोहबतों के ब्योरे का अपना खास संदर्भ है ।

कोशिश भीतरी तहों तक जाकर बस अपने समय को प्रत्यक्ष करने की है । इसलिए बिंब , प्रतीक और सजीली भाषा का भी कोई आग्रह नहीं है । मैं कल्पना के वितान नहीं रच रहा ।

जो कुछ जैसे- जैसे दिमाग में आता है , लिखता जाता हूं । अपनी और कुछ बहुत प्रिय मित्रों के अनुभव और स्मृतियों की उंगली पकड़े , चलते – चलते ।
अपनी बात की अपेक्षाकृत प्रमाणिकता के लिए कुछ पहले के लिखे गये को साभार उद्धृत भी करता हूं ।

मुझे अतीत गढ़ना नहीं आता । न वह बेईमानी मुझे रास आयी । महान समाजवादी लाडली मोहन निगम या मधु लिमये के देहावसान पर ‘ कागद कारे ‘ करना यानी सज्जित संस्मरण , मेरी समझ के परे है । मुझे नहीं मालूम कि इन दोनों से प्रभाष जोशी जी की कोई निकटता कभी थी ।

इसकी चर्चा तो नीला चांद के रचनाकार यशस्वी उपन्यासकार शिवप्रसाद सिंह जी ने ही मुझसे की थी ।

जब बनारस से प्रकाशित एक ब्राडशीट साप्ताहिक आइडियल एक्सप्रेस के लिए आलोक जोशी के कहने पर मैं , उनके पास मधुलिमये पर लिखने का आग्रह करने गया था । मित्र स्व. मनोज श्रीवास्तव बहुत दिनों तक कहता रहा –

‘लाडली मोहन निगम पर भी प्रभाष जोशी …. कुछ हजम नहीं हुआ । ‘

बहरहाल वह संबद्धता और अपनापे के सन्दर्भों में स्मृतियां गढ़ने के उस्ताद थे ।
जो अतीत की धुंध और धूल से यादों की जबर रस्सी बुन सकते थे , लपलप शक्ति लालसा में वर्तमान की कंडीशनिंग तो उनके हाथ में ही थी ।
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । इसीलिए अंतिम समय तक वह पॉवर कॉरिडोर में भटकते आहत शख्स में बदल गये थे ।

याद आता है राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य सरकार और राजभवन के बीच खासा रगड़ा चल रहा था । गवर्नर के कुछ बयान खासी चर्चा में थे । प्रभाष जी पटना आये थे । बिना किसी सन्दर्भ और पूछे फतवा दे दिया — ऐसे गवर्नर को फेंक दिया जाना चाहिये ।

दरअसल अब उन्हें लालू प्रसाद से ही कुछ उम्मीद दिख रही थी ।


जारी….


पिछली कड़ियों के लिए क्लिक करें..

 

विनोद शुक्ल की ‘कट्टा’ पत्रकारिता से प्रभाष जोशी की ‘सत्ता’ पत्रकारिता तक !