बलात्कार की कीमत भी तुम ही अदा करो लड़कियों !

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
अभी-अभी Published On :


विकास नारायण राय 

बलात्कार का शिकार लड़कियां आये दिन पितृसत्ता के निशाने पर होती हैं. इस बार मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें याद कराया है कि बलात्कार की कीमत उन्हें अपनी आजादी से अदा करनी होगी. प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री ने पितृसत्ता के सनातन तर्क शास्त्र का सहारा लिया- बचा नहीं सकते पर घर में बंद तो कर सकते हैं.

भोपाल में 31 अक्तूबर देर शाम कोचिंग क्लास से लौटती 19 वर्षीय लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार से शर्मिंदा भाजपा शासन, लड़कियों की कोचिंग आठ बजे शाम तक बंद करने का फरमान लाने जा रहा है.

जबकि मामले में दोषी थे रेलवे लाइन के किनारे समय गुजारने वाले ड्रग-शराब के व्यसन में डूबे हुये चार लम्पट. यानी सही प्रशासनिक नजरिये का तकाजा होना चाहिए था कि वैसे इस्तेमालशुदा तमाम रास्तों को प्रकाशित कर सुरक्षित बनाया जाता और रेलवे लाइन क्षेत्र पर शरारतन जमावड़ा करने वाले अवांछनीय तत्वों के विरुद्ध सख्त निवारक कार्यवाही की जाती.

यही राज्य शासन एक वर्ष पूर्व भोपाल जेल से भागे आठ आतंकवादियों को कथित पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने पर अपनी तत्परता और जांबाजी के लम्बे चौड़े दावे कर रहा था. अब वह इन बलात्कारी लम्पटों के आगे इतना असहाय क्यों? मुठभेड़ की करारी भाषा बोलने में माहिर मध्य प्रदेश पुलिस बलात्कार पीड़ित से आश्वस्ति के दो बोल बोल पाने में इतनी फिसड्डी क्यों?

कुछ वर्ष पहले बंगलुरु में रात्रि शिफ्ट से लौटती कामकाजी महिला का संस्थान की टैक्सी के चालक ने बलात्कार किया तो राज्य शासन ने, बजाय रात्रि काल परिचालन को और सुरक्षित बनाने के, महिलाओं के रात्रि शिफ्ट में काम करने पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया था.

याद कीजिये राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का लोमहर्षक निर्भया जैसा काण्ड भी इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं हो सका. उसे लेकर भी अधिकांश पुलिसकर्मियों का मानना था कि देर शाम पुरुष साथी के संग घर से बाहर रहकर पीड़ित लड़की ने स्वयं ही अपने ऊपर वह अमानुषिक विपदा आमंत्रित की थी.

भोपाल काण्ड में पीड़ित परिवार को एक पुलिस थाने से दूसरे-तीसरे थाने तक घंटों चक्कर काटने पड़े और तब उनका मुक़दमा दर्ज हुआ. यह तब जब लड़की स्वयं पुलिस परिवार से थी. यहाँ तक कि मामले में रेलवे पुलिस एसपी के संवेदनहीन रवैये को लेकर शासन को जांच के आदेश देने पड़े हैं.

दरअसल, न पुलिस की रणनीतिक प्राथमिकताएं आधुनिक जीवन मूल्यों के अनुसार बदल पायी हैं और न उनका सामंती रवैया. पिछले दिनों केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने आगामी पांच वर्षों में पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर पचीस हजार करोड़ खर्च करने का ऐलान किया था. हालाँकि इस व्यय का अधिकाँश हथियारों की खरीद और नयी बटालियनें खड़ी करने में किया जाएगा न कि संवेदी पुलिस बनाने में.

दूसरे शब्दों में, यह पुलिस के आधुनिकीकरण की नहीं बल्कि उसके और अधिक सैन्यीकरण की कवायद हुयी. पुलिस की मानसिकता को लोकतान्त्रिक बनाने या उनके पेशेवर मूल्यों को संविधान सम्मत करने की दिशा में मोदी सरकार की भी अब तक कोई पहल सामने नहीं आयी है.

भोपाल काण्ड से ठीक एक दिन पहले, 30 अक्तूबर को राजनाथ सिंह हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पुलिस अकादमी से पास आउट हो रहे आईपीएस अधिकारियों की दीक्षांत परेड को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने सन्देश दिया कि सही रूप में वे अधिकारी तभी पास माने जायेंगे जब समाज उन्हें पास करेगा. जाहिर है, इस पैमाने पर भोपाल पुलिस के अधिकारी तो फेल ही सिद्ध हुए हैं.

केवल सदिच्छा जताने से स्थिति में परिवर्तन होगा भी नहीं. समाज को संवेदी और उत्तरदायी कार्यप्रणाली की पुलिस चाहिए. तदनुसार बजट और राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए. आरएसएस जैसे घोर सामंती-पितृसत्ता मूल्यों से संचालित संगठन में पले-बढ़े मोदी और राजनाथ सिंह जैसों के लिए ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसा मर्दवादी नारा देना बेशक स्वाभाविक हो, स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में सार्थक पहल कर पाना एक टेढ़ी खीर है.

हाल में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मध्य प्रदेश के ही इंदौर शहर में बोला था कि विवाह में स्त्री का पुरुष से सम्बन्ध मात्र उसे सुख-सेवा देने के लिए होता है. वहां उपस्थित उनके अन्य पुरुष सहयोगी जहाँ इस पर तालियाँ बजा रहे थे, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को शर्म से बगले झांकते देखा गया. भोपाल जैसे बलात्कार काण्ड के दोषी लम्पटों का भी कमो-बेश ऐसा ही, स्त्री को नितांत भोग्या समझने वाला, जीवन दर्शन ही मिलेगा.

(अवकाश प्राप्त आईपीएस, विकास नारायण राय हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं। )