‘मैं आतंकवादी नहीं हूँ’-कहते रह गए दलित लेखक काँचा इलैया, पर पुलिस पकड़ ले गई !

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सुयश सुप्रभ

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“मैं भागने के बदले मर जाना पसंद करूँगा। वे चाहें तो मेरे साथ वही कर सकते हैं जो उन्होंने गौरी लंकेश के साथ किया।”

— गिरफ़्तारी के बाद काँचा इलैया के शब्द

लेखक-अनुवदक सुयस सुप्रभ की फ़ेसबुक दीवार पर आज दोपहर करीब साढ़े तीन बजे चमके, मशहूर दलित लेखक काँचा इलैया के ये शब्द चौंकाने वाले थे। पिछले दिनों उन पर एक किताब को लेकर तमाम हमले हुए थे। यहाँ तक कि उन्होंने ख़ुद को नज़रबंद भी कर लिया था, लेकिन वे गिरफ़्तार किए गए, ऐसा तो किसी ने नहीं बताया। न टीवी और न किसी अख़बार में ही दिखा।

‘सूचना विस्फोट’ और ‘सूचना क्रांति’ के इस दौर में ऐसी सूचना का छिपा रह जाना आश्चर्यजनक है। गूगल पर भी खोजना आसान न था।हिंदी में तो ख़बर बिलकुल नहीं दिखी। अंग्रेज़ी में खंगालने पर इंडियन एक्स्प्रेस में एक सकुचाती हुई ख़बर दिखी।  नेट ए़डीशन मेंं दिख रही इस ख़बर के मुताबिक गिरफ़्तारी रविवार यानी 3 दिसंबर को खम्मम में हुई। खम्मम यानी तेलंगाना का एक ज़िला मुख्यालय। लेकिन क्या यह इतनी दूर है कि संपूर्ण आर्यावर्त या ब्रह्मावर्त को इसकी ख़बर न लग पाए । क्या यह ख़बर इतनी छोटी थी कि विंध्य के पर्वत शिखरों को पार न कर सके..?

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक दलित कार्यकर्ता काँचा इलैया को सीपीएम दफ़्तर से गिरफ्तार किया गया। वे द्वितीय शेफर्ड (गड़रिया ) राज्य सम्मेलन में हिस्सा लेने पहँचे थे। इस गिरफ्तारी से तनाव फैल गया तो पुलिस उन्हें हैदराबाद लेकर चली गई।

पुलिस ने आयोजकों से कहा कि अगर काँचा इलैया ने भागीदारी की तो फिर सम्मेलन का आयोजन नहीं हो सकेगा। खम्मम के एसीपी ने गनेश ने कहा कि काँचा इलैया अगर सम्मेलन में शामिल होंगे तो क़ानून व्यवस्था की दिक्कत खड़ी हो जाएगी।

इसके पहले सीपीएम कार्यकर्ताओं ने मानव शृंखला बनाकर काँचा इलैया की गिरफ़्तारी रोकने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने बल प्रयोग से उनपर काबू पा लिया। इस बीच काँचा इलैया ने कहा -“मैं आतंकवादी नहीं हूँ और न मेरे पास कोई हथियार ही है। पुलिस बताए कि मेरी गिरफ्तारी क्यों हो रही है ?”

काँछा इलैया ने स्पष्ट  किया कि वे लोगों की समस्याओं पर चर्चा करने आए थे। सरकार की ओर से दी गई 60 फ़ीसदी भेड़ें मर गईं जिससे गड़रियों को काफी नुकसान हुआ है। सरकार को इन सवालों का जवाब देना चाहिए।

काँचा इलैया की गिरफ़्तारी के बाद शहर में एक प्रतिवाद जुलूस भी निकाला गया।

लेकिन यह ख़बर तीन दिन बाद उत्तर भारत में दस्तक दे रही है। वह भी सोशल मीडिया के ज़रिए।  क्या यह महज़ संयोग है….?

स्वाभाविक है कि काँचा इलैया को हैदराबाद ले जाकर छोड़ दिया गया होगा (हालाँकि अख़बार इस पर मौन है), लेकिन सवाल है कि क्या एक लेखक के नागरिक अधिकार इसलिए छिन जाएँगे कि उसकी भाषा और व्याख्या से समाज के किसी तबके को आपत्ति है..?

बर्बरीक

 

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