नदी अगर हमारी मां है, तो कानून उसे मरा हुआ क्‍यों मानता है?



नदी को सभ्यता की जननी कहा जाता है, किन्तु जैसे-जैसे सभ्यता का विकास और विस्तार होता चला गया वैसे-वैसे जननी मरती-सूखती चली गई. हाल ये है कि विश्व के कई देश भीषण जल और पर्यावरण संकट से गुजर रहे हैं जिनमें भारत अग्रणी है. सिंधु और सरस्वती घाटी की विश्व की प्राचीनतम और महान सभ्यता का देश भारत आज अपने नदियों के अस्तित्व को खोने के मुहाने पर खड़ा है.

न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश है जहां सबसे पहले एक नदी को जीवित इकाई का दर्ज़ा देकर मनुष्य के बराबर अधिकार दिया गया था. मार्च 2017 में न्यूज़ीलैंड की संसद ने कानून बना कर 145 किलोमीटर लम्बी ‘वांगानूई नदी’ को मनुष्य जितना ही कानूनी अधिकार दिया. इतना ही नहीं, नदी की हालत सुधारने के लिये 80 मिलियन डॉलर और कानूनी तंत्र तैयार करने के लिये अतिरिक्त 1 मिलियन डॉलर मंजूर किये गये थे.

उस नदी को यह अधिकार दिलाने के लिये न्यूजीलैंड के नॉर्थ आइलैंड के वांगानूई की स्थानीय ‘माओरी जनजाति’ ने 140 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी. वांगानूई रीवर सेटलमेंट पास कर जब नदी को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया जा रहा था, तो वहां मौजूद ‘माओरी जनजाति’ समुदाय के सैकड़ों प्रतिनिधियों की आंखों में खुशी के आंसू छलक आये थे.

अब, बीती 1 जुलाई को पड़ोसी देश बांग्लादेश के हाईकोर्ट ने वहां की नदियों को जीवित इकाई की संज्ञा दे दी. बांग्लादेश के इतिहास में इस दिन को सदा याद किया जाना चाहिए.

ऐसे में गंभीर जल संकट से प्रभावित भारत के भीतर यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है कि क्या यहां भी कोई संस्था या अदालत नदियों को बचाने के लिए ऐसा कोई आदेश देगी? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि बांग्लादेश की अदालत के फैसले का सम्बन्ध भारत से भी है. भारत की दो प्रमुख नदियां गंगा और ब्रह्मपुत्र भारत से बांग्लादेश में प्रवेश करती हैं. गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना के बाद तीस्ता भारत व बांग्लादेश से होकर बहने वाली चौथी सबसे बड़ी नदी है. सिक्किम की पहाड़ियों से निकल कर भारत में लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर करने के बाद यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है. वहां इसकी लंबाई 121 किलोमीटर है. बांग्लादेश का करीब 14 फीसदी इलाका सिंचाई के लिए इसी नदी के पानी पर निर्भर है. इससे वहां की 7.3 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है. तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे का मसला भारत और बांग्लादेश के बीच आपसी रिश्तों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है.

बांग्‍लादेश की अदालत के फैसले के संदर्भ में यह याद दिलाए जाने की ज़रूरत है कि दो साल पहले 20 मार्च 2017 को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गंगा और यमुना नदियों को जीवित इकाई का दर्जा दिया था और नमामि गंगे परियोजना के निदेशक, राज्य के मुख्य सचिव और एडवोकेट जनरल को दोनों नदियों का कानूनी संरक्षक बनाया गया था. इस फैसले पर उत्तराखंड सरकार ने आपत्ति दर्ज करवाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. राज्य सरकार का कहना था कि इन दोनों नदियों में हर साल बाढ़ आती है जिसके कारण जान-माल का काफ़ी नुकसान होता है. ऐसे में बाढ़ से जनहानि होने पर क्या पीड़ित राज्य के लोग मुख्य सचिव पर मुक़दमा कर देंगे और राज्य सरकार को इसका ख़र्च उठाना पड़ेगा? साथ ही सरकार ने यह भी पूछा था कि क्या किसी अन्य राज्य में नदी के दुरुपयोग पर किसी एक राज्य के मुख्य सचिव द्वारा उन राज्य/राज्यों या केंद्र सरकार को आदेश दिया जा सकता है या नहीं? साथ ही, अगर किसी अन्य राज्य में नदी के अतिक्रमण या उस से कोई आपदा आती है, तब क्या जवाबदेही उत्तराखंड के चीफ सेक्रेटरी की ही होगी?

जुलाई 2017 में उत्तराखंड सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों नदियों को मिले जीवित इकाई के दरजे पर रोक लगा दी थी.

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने नदियों को ‘जीवित इकाई’ घोषित करते हुए 150 “डिफ़ॉल्ट” वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को बंद करने का आदेश दिया था और उस आदेश में नदी के 500 मीटर के दायरे में कूड़ा डालने, पेशाब करने या शौच करने वाले व्यक्ति पर 5,000 रुपये का जुर्माना लगाने का आदेश भी दिया था. उत्तराखंड सरकार की इस पर अपनी आपत्तियां थीं. वे आज भी होंगी. मतलब साफ़ है, राज्य से बहने वाली नदी के नाम पर आप गर्व, पहचान, पर्यटन आय, आदि पर तो अधिकार लेंगे किन्तु उसके संरक्षण, सफाई का भार लेने से मना कर देंगे.

मार्च 2016 में केंद्र के राष्ट्रीय मिशन ‘स्वच्छ गंगा’ की कार्यकारी समिति ने उत्तराखंड, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में तुरंत लागू होने वाली 1,900 करोड़ रुपये की लागत वाली 20 परियोजनाओं को मंजूरी दी थी, जिनमें से 13 उत्तराखंड में थे. फरवरी 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि नमामि गंगे परियोजना के नाम पर बहुत पैसा बर्बाद किया जा रहा है और गंगा नदी की एक बूंद भी साफ़ नहीं हुई है.

‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक,”अब तक 7304.64 करोड़ रुपये गंगा की सफाई में खर्च हो चुके हैं लेकिन गंगा में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार घट रही है. गंगा में बैक्टीरिया की मात्रा 58 फीसदी से अधिक हो गई है.”

नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा योजना के अंतर्गत कुल 154 प्रोजेक्ट बनाए गए थे. इनमें से 2014-15 एवं 2016-17 के दौरान 71 परियोजनाओं को अनुमति प्रदान की गई थी. अब दो साल बाद 2019 में गंगा की सफाई कहां तक पूरी हुई इसकी कोई आधिकारिक जानकारी हमारे पास उपलब्ध नहीं है.

अक्तूबर 2018 में गंगा की निर्मलता और अविरलता को लेकर 111 दिनों से अनशन बैठे चर्चित पर्यावरणविद प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल की मौत ने ‘नमामि गंगे’ योजना को दोबारा चर्चा में ला दिया. जी.डी. अग्रवाल गंगा की निर्मलता और अविरलता की मांग को लेकर 22 जून 2018 को अनशन पर बैठे थे. वो गंगा में अवैध खनन, बांधों जैसे बड़े निर्माण को रोकने और उसकी सफ़ाई को लेकर लंबे समय से आवाज़ उठाते रहे थे. इसे लेकर उन्होंने फरवरी, 2018 में प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा था. उन्होंने एलान किया था कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गई तो वो पानी भी त्याग देंगे.

मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में उमा भारती के बाद जल संसाधन और गंगा सफाई मंत्री बनाये गये नितिन गडकरी ने कहा था 2020 तक गंगा की पूरी सफाई हो जाएगी.

गंगा हिमालय के ग्लेशियर से निकलती है और सबसे पहले हरिद्वार में यह मैदानी भाग से टकराती है. तकरीबन 120 प्रमुख शहर गंगा के किनारे बसते हैं. इनका गंदा कचरा गंगा में आता है. तकरीबन 40 फीसदी से अधिक की आबादी इसके दायरे में प्रत्यक्ष रूप से आती है. इसलिए गंगा का अस्तित्व देश की 40 फीसदी आबादी के अस्तित्व का भी प्रश्न है.

गंगा या देश की अन्य मुख्य नदियों को जीवित इकाई मानना या उनकी सफाई के मार्ग में सबसे बड़ा संकट इनका सांस्कृतिक से अधिक आध्यात्मिक हो जाना है क्योंकि लोग यहां आकर अपनी आस्‍थ के अनुसार धार्मिक कर्मकांड करते हैं. वो भी करें तो चलेगा, किन्तु उन कर्मकांडों में उपयोग पदार्थ भी नदी में ही समाहित करते हैं. धार्मिक वजहों के चलते तमाम मूर्तियों व अन्य सामग्री का नदी में ही विसर्जन किया जाता है जिसमें सबसे खतरनाक है रासायनिक कचरा. पहले नदी में सांप के काटे मृत शवों को भी बहा दिया जाता था किन्तु अब शहरी और औद्योगिक कचरा नदी और समुद्र में बहता है. हाल ही में मुंबई के समुद्र तट पर लाखों टन कचरा जमा हुआ था. समुद्र में फेंका गया कचरा समुद्र ने वापस कर दिया था.

यमुना की सफाई की कहानी हम बचपन से सुनते आ रहे हैं. जिसमें अब तक सफाई के नाम पर करोड़ो रुपए खर्च किये जा चुके हैं किन्तु आज जमुना जहरीले रसायनों का एक बदबूदार खतरनाक नाला बन चुकी है. यमुना एक हजार 29 किलोमीटर का जो सफर तय करती है, उसमें दिल्ली से लेकर चंबल तक का जो सात सौ किलोमीटर का जो सफर है उसमें सबसे ज्यादा प्रदूषण तो दिल्ली, आगरा और मथुरा का है. दिल्ली के वज़ीराबाद बैराज से निकलने के बाद यमुना बद से बदतर होती जाती है. इन जगहों के पानी में ऑक्सीजन तो है ही नहीं.

दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद की हिंडन नदी का नाम सुना है आपने, उसका क्या हाल है जानते हैं? कभी उसके एक किलोमीटर की दूरी से गुजर कर देखिये, हवा में तैरती गंध से आपको अंदाजा हो जायेगा.

बीते मार्च में ‘ड्रॉट अर्ली वार्निंग सिस्टम’ यानी (डीईडब्लूएस) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार आज भारत का करीब 42 फीसदी भूमि क्षेत्र सूखे का सामना कर रहा है और 6 फीसदी में असाधारण रूप से सूखा है.

आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों, राजस्थान, तमिलनाडु और तेलंगाना में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. ये राज्य 50 करोड़ लोगों के घर हैं, यानी देश की लगभग 40 फीसदी आबादी यहां रहती है.

आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान की राज्य सरकारों ने अपने कई जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया है किन्तु केंद्र सरकार ने अभी तक कहीं भी सूखा घोषित नहीं किया है. वैसे अब घोषणाओं का महत्त्व भी कम हो गया है. घोषणा हो जाये तो निदान नहीं मिलेगा. उसके लिए योजना बना कर काम करना पड़ेगा.

भारत में जल संकट आज की समस्या नहीं है. बीते कई दशकों से देश के कई राज्य हर वर्ष सूखे का सामना करते हैं और हर साल लाखों किसान सूखे से फसल बर्बादी के कारण आत्महत्या करते हैं. उन्हें बचाने के लिए न तो सरकार कोई कदम उठाती है, न ही नदियों को बचाने की दिशा में कोई सार्थक पहल होती है.

भारत की नदियों की बात करने से पहले यह स्वीकार करने में हमें गुरेज नहीं करना चाहिए कि हमारे यहां पानी बचाने व उसका सम्मान करने की कोई संस्कृति नहीं है. भले ही यहां नदियों का नाम देवी-देवताओं के नाम पर रखे गये हों. श्रद्धा और आस्था के नाम पर हम उन्हें सदियों से दूषित करते आ रहे हैं. यहां नदी के नाम पर राजनीति तो की जाती है और उनकी सफाई के नाम पर लाखों करोड़ों का घोटाला भी हो गया किन्तु नाला बन चुकी नदियां जीवित न हो पायीं.

एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 4500 नदियां सूख चुकी हैं और 20 लाख तालाब, कुएं और झील गायब हो चुके हैं. यह आंकड़ा और भयावह है. सुंदरबन की कई ऐसी नदियां कई वर्ष पहले विलुप्त हो चुकी हैं जिनका नाम भी आज ज्यादातर लोग नहीं जानते हैं. पश्चिम बंगाल में 2009 में आये चक्रवाती तूफान ने जो कहर मचाया था उसे कैसे भूल सकते हैं. सुंदरबन में आज हालत यह है कि वहां भी पेयजल संकट बढ़ गया है. मैंग्रोव के जंगल पर आज खतरा मंडरा रहा है. केंद्र सरकार ने वहां कई ऐसे पावर प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है जिससे सुंदरबन के पर्यावरण को और गंभीर नुकसान होने वाला है.

सुंदरबन की नदियों के इतिहास और लोक संस्कृति केन्द्रित एक बांगला पत्रिका ‘निम्न गांगेय संस्कृति पत्र’ के तीन अंक मेरे पास हैं. इनमें वहां की नदियों के जन्म से लेकर खो जाने तक की पूरी कहानी है. इसके संपादक विमलेन्दु हालदार ने बहुत गहन शोध और मेहनत से यह काम किया है.

हाल ही में भास्कर में एक रिपोर्ट छपी थी जिसमें लिखा था कि पिछले 10 साल में करीब 30 फीसदी नदियां सूख चुकी हैं, वहीं पिछले 70 साल में 30 लाख में से 20 लाख तालाब, कुएं, पोखर, झील आदि पूरी तरह खत्म हो चुके हैं. देश के कई राज्यों में कुछ जगह 40 मीटर तक ग्राउंड वाटर लेवल नीचे जा चुका है. हाल ही में नीति आयोग की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सन् 2030 तक लगभग 40 फीसद लोगों की पहुंच पीने के पानी तक खत्म हो जाएगी.

हाल ही में मणिपुर हाईकोर्ट ने नदियों के संरक्षण की दिशा में एक अहम् फैसला सुनाते हुए राज्य के तमाम अवैध खनन कार्यों पर रोक लगा दी है.

एक बात साफ़ है कि केवल योजनाएं बना देने से या घोषणा कर देने से नदियां, जंगल और पहाड़ सुरक्षित नहीं हो जायेंगे. इन सबके प्रति लोगों को जागरूक और संवेदनशील बनाना होगा.

मार्च 2017 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार ने उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा गंगा-जमुना को जीवित इकाई घोषित करने के बाद राज्य में नर्मदा नदी को भी ‘जीवित इकाई’ घोषित किया था.

अनुपम मिश्र अब नहीं रहे, पर उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ उपलब्ध है. अपने जल संसाधनों को दुरुस्‍त रखने के परंपरागत तरीके हमें वहां से सीखने होंगे।

aaj bhi Khare hai Talab