भारत ‘राष्ट्र’ के दुर्गद्वार पर दस्तक देता एक दलित दूल्हा!



पंकज श्रीवास्तव

 

1776 में हुई अमेरिकी क्रांति के लगभग 85 साल बाद अमेरिका में भीषण गृहयुद्ध हुआ और 1865 में अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के पक्षधर और ‘दास प्रथा’ का उन्मूलन करने वाले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या कर दी गई। लगभग सौ साल बाद यही कहानी फिर दोहराई गई जब प्रख्यात अश्वेत मानवाधिकारवादी मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) की हत्या हुई। लेकिन अमेरिका में श्वेत समुदाय की एक बड़ी तादाद अश्वेत अधिकारों के पक्ष में लामबंद रही और बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के साथ ही साफ़ हो गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘राष्ट्र’ बनने का प्रक्रिया काफ़ी हद तक पूरी हो गई है।

लेकिन भारत में न कोई लिंकन है और न नागरिक अधिकारों को लेकर कोई ‘राष्ट्रीय’ तड़प। वरना संजय जाटव को घोड़े पर सवार होकर अपनी मंगेतर शीतल के दरवाजे जाने की ख़्वाहिश की राह में इतने रोड़े नहीं होते। पूरा देश उन ठाकुरों के ‘इंसान’ होने पर सवाल उठाता जो किसी दलित की बारात को गाँव में नहीं आने देना चाहते थे। देश का कोई ‘राष्ट्रीय’ नेता सामने आकर ज़रूर कहता कि वह इस बारात में ख़ुद शामिल होगा चाहे जितना विरोध हो। वैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले कहा था कि –‘दलितों को नहीं मुझे मारो’…लेकिन ऐसे ‘डायलॉग’ ताली बजवाने के लिए ही होते हैं।

कासगंज ज़िले का निजामपुर गाँव काफ़ी दिनों से इस प्रकरण की वजह से सुर्खियों में है। गांव में 40 ठाकुर और पांच दलित परिवार रहते हैं। इस गांव में आज तक दलितों की बारात नहीं निकली है लेकिन जब हाथरस के संजय जाटव की शादी इस गाँव की शीतल से होना तय हुई तो वे घोड़े पर सवार होकर और बारात निकालकर नई मिसाल क़ायम करने का सपना देखने लगे। या कहिए कि वे भारतीय संविधान के तहत मिले बराबरी के अधिकार की असलियत परखना चाहते थे। और यह असलियत सामने आ गई जब ठाकुरों ने साफ़ कह दिया कि संजय गाँव में बारात नहीं निकाल सकता।

संजय ने इसके लिए पूरी तरह क़ानूनी रास्ता अपनाते हुए हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया। शायद माननीय हाईकोर्ट के पास घोड़ी चढ़ने वाले दलितों की हत्या की ख़बर पहुँची नहीं है। (या इस बारे में डॉ.अंबेकर का जताया शक़ ठीक माना जाए)

व्यवस्था कैसे दलित विरोधी है, इसका अंदाज़ा कासगंज के जिलाधिकारी आर.पी.सिंह के एक बयान से भी लगता है। कुछ दिन पहले, उन्होंने इस विवाद में बिना बारात निकाले, गाँव से बाहर (घर से 800 मीटर दूर) ‘खेत में शादी कर लेने’ का ‘फ़ार्मूला’ सुझाते हुए कहा था- ‘हमारे यहाँ शादी एक संस्कार है, इसमें प्रदर्शन करने की क्या ज़रूरत?’

पता नहीं कि डीएम साहब की शादी में गाजे-बाजे के साथ बारात निकली थी या उन्होंने चुपचाप ‘संस्कार’ किया था, लेकिन इतना तो तय है कि कासगंज में गाजे-बाजे के साथ बारातें निकलती हैं, और उन्हें कभी कोई आपत्ति की हो, ऐसी ख़बर नहीं। बेहतर होता कि वे संजय के ‘नागरिक अधिकार’ की रक्षा में प्रशासनिक अमला झोंक देते लेकिन ‘सिंह साहब’ को निजामपुर के ठाकुरों की बात ज़्यादा सुहाई।

बहरहाल, संजय के सुप्रीम कोर्ट जाने की ख़बर से सिंह साहब परेशान हुए (बीजेपी की योगी-मोदी सरकारों पर दलित विरोधी होने का आरोप यूँ भी काफ़ी तीखा है और यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ सकता था। हो सकता है ‘ऊपर’ से टाइट किए गए हों!) और आनन-फानन में रविवार को शादी को लेकर नया समझौता कराया गया। 20 अप्रैल को होने जा रही इस शादी को लेकर कुछ शर्तें पढ़िए-

शर्त नम्बर 1- बारात का जनवासा निज़ामपुर गांव के बाहर लगेगा।
शर्त नम्बर 2- नक्शे के हिसाब से, बारात गांव के कुछ हिस्सों में ही घूमेगी।
शर्त नम्बर 3- बारात में कोई भी राजनैतिक संगठन शामिल नहीं होगा।
शर्त नम्बर 4- लाउड स्पीकर का इस्तेमाल नहीं होगा। (बहाना धारा 144)

ग़ौर से देखिए तो यह समझौता होना ही शर्मनाक है जो बताता है कि प्रशासन संविधान के ख़िलाफ़ खड़ी ‘मध्ययुगीन चेतना’ के आगे नतमस्तक है। होना तो यह चाहिए था कि दलित दूल्हे को घोड़े पर चढ़कर बारात निकालने का विरोध करने वालों को जेल भेजा जाता। इसके अलावा जिस तरह की शर्तें थोपी गई हैं, वह भी आपत्तिजनक हैं।

आख़िर, संजय की बारात में लाउडस्पीकर क्यों नहीं हो सकता अगर सवर्णों की बारात में ऐसी रोक नहीं होती तो। एक दलित की बारात के बैंड-बाजे  के सुर किसके कान में चुभेंगे और क्यों?  संजय का घोड़े पर सवार होकर बारात निकालना, ऐतिहासिक घटना है। इसमें राजनीतिक लोगों को दूर क्यों रहना चाहिए।  क्या ‘सामाजिक न्याय’ एक राजनीतिक संकल्प नहीं है?

 

आज़ादी के 70 साल बाद प्रशासन एक दलित को तमाम शर्तों के साथ बारात निकलाने की  किसी तरह ‘व्यवस्था’ कराके अपनी पीठ ठोंक रहा है। मीडिया भी इसे ‘राहत’ की तरह पेश कर रहा है। अख़बारों ने बारात के रूट का नक्शा छापा है। यह सवाल कोई उठाने को तैयार नहीं है कि आख़िर एक दलित दूल्हा सामान्य ढंग से अपनी बारात क्यों नहीं निकाल सकता? उसे रोकने वाले कौन हैं ? उन्हें समझौते की मेज़ पर लाने का सम्मान क्यों दिया गया?

आज यानी 10 अप्रैल को (आरक्षण के ख़िलाफ़) घोषित भारत बंद भी दरअसल, उसी मध्ययुगीन चेतना की अभिव्यक्ति है जो दलितों को पैर की जूती समझती है। दलितों के घोड़े पर सवार होते ही वह ख़ुद को किसी गहरे गड्ढे में महसूस करती है। उसे न संविधान की परवाह है और न क़ानून की। मोदी-योगी राज ने उसकी ‘बुझती मशाल’ में तेल डाल दिया है जिसकी रोशनी में वह पाँच हज़ार पुराने किसी राष्ट्र का झंडा उठाए आक्रमण की मुद्रा में है।

डॉ.अंबेडकर चेता गए हैं कि ‘जाति’ के रहते भारत कभी ‘राष्ट्र’ नहीं बन सकता। ‘राष्ट्र’ बनने की शर्त है कि नागरिकों के दुख साझा हों और सुख भी साझा हों। ज़ाहिर है, स्वतंत्रता संग्राम के संकल्पों पर आधारित संविधान सम्मत ‘राष्ट्र’ बनना अभी शेष है जिसमें किसी दलित का घोड़ी चढ़कर बारात ले जाना ‘ख़बर’ न बने। जहाँ जाति जैसी विभेदकारी व्यवस्था न हो। संवेदनाओं का द्वार घोड़े पर सवार दलित दूल्हे के लिए हमेशा खुला नज़र आए।

 

 

डॉ.पंकज श्रीवास्तव, मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।