दविन्दर की ‘प्रेरणा’ का उत्स कहां?



ह्वाट्स ऐप पर एक ‘रंगीली’ टिप्पणी गत 12 जनवरी को जम्मू-कश्मीर में डीएसपी दविंदर सिंह के दो आतंकवादियों को दिल्ली लाते धर लिये जाने के बाद से ही चल रही है, ‘खराब दिनों में आतंकवादी पुलिस से छुपते फिरते थे। अब अच्छे दिन आ गये हैं तो वे डीएसपी के साथ जीप में घूमने लगे हैं।’ यह टिप्पणी जिसकी भी सूझ हो, पक्का है कि उसे मौज या मजाक में ही सूझी होगी। लेकिन सच पूछिये तो बात मजाक की नहीं है। होती तो अरसे से आतंकवाद को धर्मविशेष से जोड़ने में जमीन-आसमान एक करती रहने वाली कई जुबानें इसे लेकर इतनी सीरियस या सन्न क्योंकर हो पातीं कि उनका थूक गले में अटक जायें या होठ सिल जायें और वे लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीररंजन चौधरी के इस सवाल का सामना करने में भी असमर्थ हो जायें कि पकड़े गये डीएसपी का नाम दविन्दर सिंह के बजाय दविन्दर खान होता तो?

वे भले ही सामना नहीं कर पा रहीं, देशवासियों को इस सवाल का जवाब पहलेे से मालूम है: तब एक बार फिर ‘लहू मांगे हिसाब’, ‘आतंक का खेल खेलने वाले कायरों को बख्शा नहीं जाएगा’ और ‘ये नया इंडिया है, घर में घुसकर मारेगा’ जैसे डायलाग मारे जाते, नई या पुरानी सर्जिकल/एयरस्ट्राइकों की वीरगाथाएं सुनाई जातीं और उनके बूते पैदा किये गये ‘राष्ट्रवादी’ उफान से दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भरपूर लाभ की उम्मीद की जाती। फिर यह भी होता कि कोई बेगुनाह सालोंसाल सलाखों के पीछे सड़ता और असली दोषी सिस्टम के छेदों का सहारा लेकर दविंदर की तरह पदोन्नति व मेडल पाता और तरक्की करता चला जाता। इस बीच टीवी चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम के नाम पर कितना जहर परोसा जा चुका होता, कल्पना नहीं की जा सकती।

लेकिन तब जो लोग यह सब करते, अभी वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि शेक्सपियर ने ‘नाम में क्या रखा है’ जैसा फतवा {दरअस्ल, वे इसी तरह की भाषा समझते हैं} क्यों दिया था, जब किसी डीएसपी के नाम में खान के बजाय सिंह जुड़ा होने से सीन इस कदर बदल जाता है कि उसके आतंकवादियों से संबंधों पर कुछ कहते नहीं बनता। तय करते भी नहीं बनता कि क्या कहें और किस मुंह से कहें? खासकर, जब पहले बरसों-बरस सौ-सौ मुंहों से धर्मविशेष का आतंक खड़ा करने की आपराधिक कोशिशें करके आतंकवाद जैसी गम्भीर समस्या का ही मजाक बना डाला और अब कहानी यों बदल गई है कि पकड़ा गया डीएसपी न मुसलमान है, न पाकिस्तानी। यहां तक कि उस ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का भी नहीं, जिसे आसानी से ‘देशद्रोही’ करार दिया जा सके।

पिछले 25 सालों से वह जम्मू-कश्मीर पुलिस का हिस्सा था, अरसे से उसके ऐंटी हाईजैकिंग स्क्वाड जैसे संवेदनशील प्रभाग में तैनात था और हिजबुल के दो आतंकियों व एक सहयोगी को दिल्ली पहुंचाने के फेर में कार में श्रीनगर एयरपोर्ट लाते पकड़े जाने के बाद उसके बारे में जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं, उनसे आशंका बलवती होती है कि उसने जाने कितनी वारदातों में अपने महकमे व पद के कारण आतंकियों की मदद की होगी और उनमें देशवासियों के जान-माल का कितना नुकसान हुआ होगा। लगातार मिलते आ रहे अभयदान से वह कितना मनबढ़ हो चला था, इसे इस बात से समझ सकते हैं कि रंगे हाथों पकड़े जाने के वक्त भी उसने डीआईजी से यही कहा कि ‘सर ये गेम है। आप गेम खराब मत करो।’

कुछ दिन पहले वह इसी श्रीनगर एयरपोर्ट पर दौरे पर वहां गये विभिन्न देशों के राजनयिकों की सुरक्षा के लिए तैनात था। सोचने में भी असुविधा होती है कि अगर इस दौरान उसका किसी वारदात का मंसूबा बन जाता, तो क्या होता? उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि कैसी बनती? इस तथ्य की रौशनी में सोचें तो और भी असुविधा होती है कि जिन आतंकियों को वह दिल्ली पहुंचाना चाहता था, उनमें से एक के सिर पर 20 लाख का इनाम घोषित है। साथ ही उस पर कई प्रवासी मजदूरों की हत्या का आरोप है।

जम्मू-कश्मीर पुलिस के अनुसार वह पहले से ही उस पर निगाह रखे हुए थी और नावेद का फोन भी ट्रैक किया जा रहा था। लिहाजा श्रीनगर एयरपोर्ट पहुंचने से पहले ही उन्हें पकड़ लिया गया और दविंदर आतंकवादियों को दिल्ली भेज पाता, इससे पहले ही उसकी करतूतों का भंडाफोड़ हो गया। सोचिये जरा कि वह इन आतंकियों को दिल्ली भेजने में सफल हो जाता तो?

चूंकि मामले को लेकर उठाये जा रहे किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिल रहा, इसलिए उसकी जांच एनआइए को सौंपे जाने को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि वास्तव में दविंदर को चुप कराने के लिए ऐसा किया गया है। सोशल मीडिया पर उन्होंने लिखा है-‘दविंदर को चुप कराने का सबसे अच्छा तरीका ये है कि उन्हें एनआइए को सौंप दिया जाए. एनआइए की अध्यक्षता योगेशचंद्र मोदी कर रहे हैं, जो गुजरात दंगों और हरेन पांड्या हत्या के मामले की जांच कर चुके हैं। उनकी अध्यक्षता में ये मामला अब नहीं बढ़ेगा।’ क्या जो बात उन्होंने कही है, उसको सिर झटककर खारिज किया जा सकता है?

अतीत में झांकें तो संसद पर आतंकी हमले में मौत की सजा पाये अफजल गुरु ने तिहाड़ में कैद रहने के दौरान अपने वकील को लिखे पत्र में दविंदर पर प्रताड़ना और आतंकियों को दिल्ली ले आने और किराये का घर दिलाने के लिए दबाव डालने का आरोप लगाया था। उस वक्त जांच की गई होती तो शायद वह इतना आगे न बढ़ा होता और आज की तारीख में इस पड़ताल की जरूरत ही न पड़ती कि पहले उसे आगे बढ़ाने और अब उस पर नकेल डालने के पीछे किसका हाथ है? अफजल गुरु जैसे सजायाफ्ता आतंकी के आरोप के बावजूद उसकी पदोन्नति क्योंकर हुई और सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के साथ अवार्ड कैसे मिले? किन लोगों के कहने पर? इस सबके तार जम्मू-कश्मीर में ही हैं या दिल्ली से भी इसका कोई संबंध है?

अभी भी इन सवालों के ठीक-ठीक जवाब तलाशे जाने को लेकर संदेह बरकरार हैं। जम्मू-कश्मीर को पिछले अगस्त से सरकारी खोल में समेट दिया गया है, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल वहां सड़क पर खड़े होकर बिरयानी खा सकते हैं और विदेशी राजनयिक वहां दौरे पर जा सकते हैं, लेकिन देशवासी नहीं। ऐसे में वहां और क्या खेल चल रहे हैं, इसके बारे में किसी को कुछ कैसे पता लगेगा? गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल गत अगस्त में संविधान के अनुच्छेद 370 के उन्मूलन के बाद से ही दावा करते आए हैं कि जम्मू-कश्मीर में सब ठीक है। ठीक है तो वहां राष्ट्र की सुरक्षा के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ क्योंकर सम्भव हुआ? क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी अपनी ‘मन की बात’ में इसका रहस्य खोलेंगे?

अगर नहीं खोलेंगे और उनकी आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की प्रतिबद्धता व जीरो टालरेंस के दावे का सच यही है तो उसे लेकर देश कतई आश्वस्त नहीं रह सकता। क्या यह संयोग भर है कि महज छः महीने पहले उनकी पार्टी ने आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर के प्रति दरियादिली प्रदर्शित करते हुए उन्हें माननीय बनाया व दिल्ली भेजा और अब दविन्दर दो खूंखार आतंकियों को दिल्ली भेजने वाला था? देशवासियों के लिए आतंकियों के संरक्षण की उसकी प्रेरणा का उत्स जानना बहुत जरूरी है।