इतने बिकाऊ कैसे हो गए हिंसा के वीडियो?



चंद्रभूषण 

इस देश में हत्या, बलात्कार, बस्तियां जला देने, लोगों को अकारण पीट-पीट कर अधमरा कर देने और जब-तब उन्हें जिंदा जला देने की घटनाएं भी होती रही हैं। भयानक हिंसा और बर्बरता हमारे राष्ट्रीय स्वभाव का अंग है, जिसे बुद्ध, महावीर और संसार के महानतम संत भी रत्ती भर कम नहीं कर पाए। लेकिन ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों द्वारा इनका वीडियो बनाना, उसे ऑनलाइन अपलोड करना, इसमें गौरव का अनुभव करना और स्वयं को किसी सामाजिक परिवर्तन के नायक के रूप में महसूस करना खुद में एक नई बात है।

ठीक उसी तरह, जैसे राजनीतिक पार्टियों के उकसावे पर इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के जनसंहार पहले भी हुए हैं, लेकिन इसमें खुले तौर पर गौरव अनुभव करने, इसके उपलक्ष्य में सरकारी तामझाम के साथ राज्यव्यापी गौरव यात्रा निकालने, इसके बल पर चुनाव लड़ने और जीतने की बात इसी सदी की, खासकर 2002 के शुरुआती महीनों के बाद नजर आने वाली विशेषता है।

अभी हमने लव जिहाद के नाम पर राजस्थान के उदयपुर में एक व्यक्ति को कुल्हाड़ी से घायल करके उसे जिंदा जला देने का वीडियो देखा है, जिसमें इस घृणित कर्म को अंजाम देने वाला व्यक्ति स्वयं को हिंदू गौरव के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित किए जाने का इच्छुक नजर आ रहा है। इससे पहले गुजरात में चमड़े का कारोबार करने वाले दलितों के कपड़े उतार कर बेल्ट से उनकी सामूहिक पिटाई करने का वीडियो भी किसी ने चोरी-छिपे नहीं बनाया था। यह काम पूरी तैयारी के साथ किया गया था, ताकि हर जगह मरे जानवरों का चमड़ा उतारने वालों को डराया जा सके और डराने वाले अपने धार्मिक समुदाय के नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो सकें।

राजनीतिक आकांक्षा रखने वाले ऐसे लोगों के विपरीत लड़कियों पर हमले करने वाले, उनकी जान लेने वाले भी बगल में किसी को खड़ा करके अपने वीडियो बनवा रहे हैं। शायद उन्हें भी इसके बल पर देश के पुरुषसत्तावादी समाज में कुछ इज्जत हासिल हो जाने की उम्मीद हो!

बर्बरता की ऐसी मार्केटिंग की उम्मीद क्या कभी इस देश के किसी चिंतक-विचारक ने की होगी? वह भी एक ऐसे समय में, जब सत्ताधारी हलकों में बैठे लोग बात-बात पर ऋषियों-मुनियों का जिक्र करने से लेकर दयानंद, विवेकानंद, अरविंद महर्षि आदि का नाम लेते न थक रहे हों! सामाजिक विमर्शों का स्वरूप अभी बहुत जल्दी राजनीतिक रंग पकड़ लेता है, लिहाजा कोई कह सकता है कि इन घिनौनी हरकतों से सरकार या सरकारी राजनीतिक धारा का भला क्या लेना-देना हो सकता है?

बात सही है। हर सामाजिक गिरावट को सीधे तौर पर राजनीतिक गतिविधियों और बयानों से नहीं जोड़ा जा सकता। लेकिन विचार करने की जरूरत है कि सत्तारूढ़ दायरे की किसी भी हरकत से कहीं समाज में ऐसा संदेश तो नहीं जा रहा है कि किसी हिंसक गतिविधि को अगर सही शब्दावली में पेश करके उचित मंच पर बेचा जा सके तो उसके बल पर राजनीतिक, आर्थिक और अन्य तरीकों से भी ढेर सारे फायदे कमाए जा सकते हैं। खासकर गौ-गुंडई के मामले में तो स्पष्ट रूप से ऐसा संकेत दिया और ग्रहण किया गया है। इससे धार्मिक अल्पसंख्यकों में ही नहीं, देश के बाकी कमजोर तबकों में भी खौफ पैदा हो रहा है, जिसका नुकसान अंतत: देश को ही होगा।


लेखक नवभारत टाइम्स से सम्बद्ध हैं