कश्मीरी कीड़े-मकोड़े नहीं भारतीय हैं ! फूट डाल रहा है मीडिया-राजदीप



राजदीप सरदेसाई

कश्मीर की वास्तविकता हमेशा से ही पेचीदा रही है: ये कोई अंग्रेजी काऊबॉय फिल्म नहीं कि जिसके पास बन्दूक हो वो अच्छा है और जिसके पास पत्थर वो बुरा। डल झील के पानियों का रंग ख़ूनी और धुंधला हुए बड़ा समय हुआ और हम ये नहीं जानते कि अँधेरे में उम्मीद कहाँ है। ‘पथभ्रष्ट’ युवा जो सेना की जीप के आगे खड़े होने में मिनट नहीं लगायेंगे, ‘अलगाववादी’, जो कितना समर्थन है, जानने के लिए चुनाव में तो हिस्सा नहीं लेंगे लेकिन सीमा-पार के ख़तरनाक पड़ोसी के आदेश सुन लेंगे, सेना जो वहां के निवासियों को नागरिक नहीं ‘वस्तु’ की तरह देखती है, नेता जो घाटी के जलते वक़्त भी अपनी अनर्गल में व्यस्त हों, एक नौकरशाही जो यथास्थितिवादी है, एक मीडिया जो बुरी तरह से फूट डालने वाला है, राष्ट्रवाद के नाम पर नफ़रत का परचम लहराते लोग, वो जो मुठभेड़ में मारे गए लोगों की गिनती तो करते हैं लेकिन जवानों की नहीं, आतंकवादी जो मौत को एक खेल समझते हैं: क्या कश्मीर के अन्दर और बाहर कोई है जो अंतरात्मा की सुन सर ऊँचा रख सके?

मोदी जी क्या ये इतना आसान समीकरण है?

राजनीतिक और नैतिक खोखलेपन को सामने खड़ा देखने के बाद भी हम स्थिति की गंभीरता या बिलकुल-नए समाधानों की फौरन तलाश के बारे में नहीं सोच रहे।

एक टीवी शो में उमर अब्दुल्ला मुझे बताते हैं: राजनीतिक संवाद फिर से शुरू करें। ठीक, फिर मैंने पूछा, लेकिन संवाद किसके साथ? क्या आपके सर पर बन्दूक तनी हो तो बातचीत कर सकते हैं? या उन अलगाववादियों से जो पाकिस्तान का रटाया बोलते हैं?

प्रधानमंत्री कहते हैं, टूरिज्म या टेररिज्म, चुन लीजिये। मोदीजी क्या ये इतना आसान समीकरण है? क्या आतंक का अंत होने पर उस विवाद के राजनीतिक समाधान की पेशकश होगी जिसका सत्तर साल का खूनी इतिहास है?

महबूबा मुफ़्ती मुझे बताती हैं, हम सुशासन देना चाहते हैं। हां मैं मानता हूँ, लेकिन ये आपकी ही तो सरकार है और वो फाहे कहाँ गए महबूबा मुफ़्ती जी जिन्हें ज़ख्मों पर रखने की बात आपके पिता ने की थी?

वो फाहे कहाँ गए महबूबा मुफ़्ती जी जिन्हें ज़ख्मों पर रखने की बात आपके पिता ने की थी?

फ़ारूक़ अब्दुल्लाह चेतावनी देते हैं, हम कश्मीर हार रहे हैं, पत्थरबाज़ समस्या के समाधान के लिए लड़ रहे हैं। हाँ, डॉ अब्दुल्लाह, मैंने पूछा , लेकिन हम कश्मीर क्यों हार रहे हैं: ऐसा ही है न कि जब आप सत्ता में थे तब समस्या के हल के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। अरे, आप-ही हैं न वो, जिसने 1987 के चुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर हेराफेरी की थी, वो जिससे यह सब शुरू हुआ?

कश्मीर ‘असली’ मुद्दा है, पाकिस्तान चिल्लाता है, ठीक है, लेकिन किसी असली मुद्दे को आप कैसे सुलझाते हैं: धर्म के नाम पर बंदूकें और आतंकवादी भेज कर तो कतई नहीं? आप अपने देश की एक सीमा पर आतंकवाद से शिकार और दूसरी पर शिकारी कैसे हो सकते हैं?

एक रिटायर्ड जनरल मुझे बताते हैं, अपने को काबू में रखना अब बेकार है, अब समय आपने-सामने की लड़ाई का है। सर सच में ? किसके साथ लड़ने का, घाटी में अपने ख़ुद के लोगों से या फिर परमाणु-बम-वाले पड़ोसी से?

एक कश्मीरी बुद्धिजीवी मुझसे कहते हैं, हम पिछले दो दशकों से नज़रबंदी-शिविर में रह रहे हैं। आप सही कह रहे हैं सर: लेकिन कितने कश्मीरी ऐसे हैं जिन्होंने हिंसा की संस्कृति के खिलाफ बोला है वो जिसने एक इंसानी समाज को जेल में बदल दिया है? हम कश्मीरी पंडितों और हमारी दुर्दशा को मत भूलना, एक जानी-पहचानी आवाज मुझे बताती है। नहीं, हमें कभी ऐसा नहीं करना चाहिए, लेकिन क्या हम ये भूल जाते हैं कि मारे जाने निर्दोष लोगों में बड़ी संख्या में कश्मीर के निवासी मुसलमान हैं?

ये ‘धर्म युद्ध’ है, एक जिहादी विडियो से आवाज़ आती है : क्या मैं यह जान सकता हूँ कि अल्लाह के नाम पर निर्दोष इंसानों की हत्या करने वाला यह कौन सा ‘धर्म’ युद्ध है?

हमारा अपना और हम सब का ढोंग !

ऊपर किये गए सवालों में से बहुतों का शायद कोई जवाब नहीं हैं। शायद हम जवाबों को तलाशना ही नहीं चाहते क्योंकि डर है कि हमारा अपना और हमसब का ढोंग पर्दे से बाहर आ जायेगा। शायद हम इसलिए ध्रुवीकृत होते हैं, किसी खास सोच के पक्षधर… क्योंकि हमें तस्वीरों के ब्लैक एंड वाइट होने से आराम है बीच के रंग हम नहीं देखना चाहते, कि हमारा चित्र सच-की-खोज में लगे इंसान का नहीं उदारवादी या राष्ट्रवादी का बने? और फिर, शोर और स्टूडियो-लड़ाकों के इस समय में, जब अनर्गल चिल्लाने भर से TRP बढ़ जाए ट्विटर ट्रेंड चल जाये तो बातचीत कौन करना चाहेगा? इसलिए, नागरिकों का सेना के जवानों को निशाना बनाने का विडियो एक ही सुर में तमाम आवाज़ों को हमारे वीर सैनिकों के लिए खड़ा कर देता है। बहुत मुश्किल है कि इनमें से कोई आवाज़ उस कश्मीरी के पक्ष में उठेगी जिसे सेना मानव-कवच की तरह जीप के आगे बाँध कर घुमाती है।

क्या हम तब भी ये तेज-आवाज़ वाली बहस करेंगे जब कोई कश्मीरी एक जवान को पानी पिलाता है या किसी दुर्घटना के समय सहायता करता है, या फिर तब जब जवान बाढ़ में फँसे कश्मीरियों को निकालते हैं ?

हिंदी की वो पुरानी फ़िल्में याद हैं जिसमें खलनायक गाँव के लोगों को रस्सी से बाँध कर खींचता था? तब, हमें दर्द होता था। अब, हम वाह-वाह करेंगे: अरे भाई कुछ भी हो… हमारी भारतीय सेना है वहाँ, और हम खाकी वर्दी पहनने वाले से सवाल नहीं कर सकते। और क्या हम तब भी ये तेज-आवाज़ वाली बहस करेंगे जब कोई कश्मीरी एक जवान को पानी पिलाता है या किसी दुर्घटना के समय सहायता करता है, या फिर तब जब जवान बाढ़ में फँसे कश्मीरियों को निकालते हैं ?

ये राज्य बनाम नागरिक की बहस इस कदर हावी है कि बाकि सबकुछ दरकिनार हो गया है। लिबरल आवाज़ें कश्मीरी ‘उत्पीड़न’ के कोण से न्याय की गुहार लगाती हैं और ‘राष्ट्रवादी’ भारत-सबसे-पहले के नाम पर ‘सफाई’ किये जाने की। लम्बी अवधि के संकल्प की बात छोड़िये, वह ज़मीन जिसपर एक सुलझी बहस हो सके उसे ही तलाशने की इच्छा दोनों की नहीं है।

हाँ, मैं भी भारत-सबसे-पहले में विश्वास करता हूँ !

हाँ, मैं भी भारत-सबसे-पहले में विश्वास करता हूँ। किन्तु भारत-सबसे-पहले के मेरे नजरिए में एक देश ज़मीन का वह टुकड़ा जो भौगोलिक सीमाओं से घिरा हो भर नहीं है, या फिर हर समस्या को कानून और व्यवस्था की दृष्टि से देखूँ। मेरे भारत-सबसे-पहले में भारतीय पहले शामिल है, वो चाहे कश्मीरी हो या जवान, या कानून को मानने वाला कोई भी नागरिक। बन्दूक एक राजनीतिक संघर्ष या ‘आज़ादी’ जैसी किसी रूमानी चाह का समाधान नहीं कर सकती। जब आप लोगों के दिल-ओ-दिमाग को जीतते हैं तब एक हल बाहर निकलता है, जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहते हैं ‘इंसानियत’, भविष्य में किसी भी समाधान की यही कसौटी होनी चाहिए। मगर ‘इंसानियत’ जोख़िम उठाने की हिम्मत मांगती है, जैसी वाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा से की, या मनमोहन सिंह ने श्रीनगर-मुज़फ्फराबाद बस सेवा से। प्रधानमंत्री मोदी ने भी पीडीपी से गठबंधन कर जोखिम उठाया था लेकिन उसके बाद से वो पीछे हटे हुए हैं। प्रधानमंत्री क्यों न अपने सहयोगी दलों की सलाह मानते हुए, लोगों में भरोसा कायम करने की बड़ी शुरुआत करें और घाटी के कुछ हिस्सों से AFSPA हटा दें, उसके बाद सुशासन के अपने वादे को पूरा करें? दिल-ओ-दिमाग सैन्य बल से नहीं जीते जाते, ठीक वैसे ही जैसे सीमापार आतंक से पाकिस्तान कश्मीर पर कब्ज़ा नहीं कर सकता।

कश्मीरी भारतीय हैं, कीड़े-मकोड़े नहीं कि कुचल के बाहर कर दिये जाएँ !

बीती रात, जब कश्मीर पर अपने गुस्से को मैंने टीवी और सोशल मीडिया पर ज़ाहिर किया, साइबरस्पेस वाली छद्म-राष्ट्रवादी सेना बुरी तरह मेरे पीछे पड़ गयी। कुछ समय के लिए तो मुझे लगा कि मैं एक ‘एंटी नेशनल’ हूँ जो कि हिटलर के जर्मनी में यहूदियों के अधिकार की बात कह रहा हो। कश्मीरी भारतीय हैं, कीड़ेमकोड़े नहीं कि कुचल के बाहर कर दिये जाएँ। अधिकार जवानों के हों या नागरिकों के दोनों की रक्षा ज़रूर होनी चाहिए लेकिन हम ऐसा विश्वास में हुए घाटे को पहले कम किये बिना नहीं कर सकते। हम आतंक और इसके लक्षणों से ज़रूर लड़ें, हम साथी भारतीयों से लड़ाई नहीं कर सकते हैं। पत्थर के बदले पेलेट गन से नफ़रत और हिंसा का जो कुचक्र चलेगा वह हमसे सारी मानवता छीन लेगा। महात्मा गाँधी पत्थर फेंकने वालों और पेलेट गन चलाने वालों के बीच खड़े हो गए होते: क्या हमारे बीच इतनी नैतिक शक्ति वाला कोई है?

पुनश्च:
शुक्रवार की शाम, वायरल विडियो पर चली लड़ाइयों से दुखी मैंने एक अपना विडियो चला दिया। यूट्यूब पर फिल्म ‘कश्मीर की कली’ के अपने पसंदीदा गाने का: दीवाना हुआ बादल।  शम्मी कपूर को शर्मीला टैगोर का दिल जीतने में मशगूल देखना सुखद रहा: क्या कश्मीर दोबारा कभी ऐसी धुन गुनगुनायेगा?

(राजदीप सरदेसाई मशहूर टीवी ऐंकर और पत्रकार हैं। उनके लेख का अनुवाद भरत तिवारी का है जो शब्दांकन.कॉम पर छपा। साभार प्रकाशित।)