कथा दुर्घटनावश बने प्रधानमंत्री और सत्ता के दो केन्द्रों की


संजय बारु की यह स्थापना कि कांग्रेस में सत्ता के दो केन्द्र बने हुए हैं- एक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मुक्त बाज़ार के हिमायतियों का और दूसरा सोनिया गाँधी के नेतृत्व में नवउदारवादी पूंजीवाद के विरोधियों का, उनकी अपनी मौलिक स्थापना नहीं है




मुशर्रफ़ अली

एक साल के अन्दर दो किताबें आयीं हैं जो नेहरू परिवार पर केन्द्रित हैं- एक संजय बारु द्वारा लिखी किताब ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्‍टर’ व दूसरी नटवर सिंह द्वारा लिखित,‘‘वन लाइफ़ इज़ नॉट एनफ़’’। मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार रहे संजय बारु की 2014 के चुनाव के बीच आई किताब ‘द एक्सीडेन्टल प्राईमिनिस्टर’ यानि दुर्घटनावश बने प्रधानमंत्री ने भाजपा द्वारा सन् 2004 में श्रीमति सोनिया गाँधी पर लगाये गए आरोपों को फिर से बहस में ला दिया है। बारु की किताब या उनके इस तरह के बयान उस समय क्यों नहीं आए जब वह मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे या 2008 में मीडिया सलाहकार के पद से हटाये जाने के तुरन्त बाद भी उन्होंने अपने उद्गार क्यों नहीं प्रकट किए और क्यों वह 6 साल तक खामोश रहे इस बात ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े कर दिये हैं। लोग यह भी कह रहे हैं कि आगामी सरकार भाजपा की बनेगी और उसमें उनको अपनी इस वफ़ादारी के एवज़ में कोई काम मिल जाएगा, इसका अनुमान लगाकर ही बारु ने भाजपा के पहले से जारी प्रचार के पक्ष में इस किताब को प्रकाशित कराया है।

अपनी किताब द्वारा उन्होंने सोनिया गाँधी पर निशाना साधते हुए मनमोहन सिंह को बेचारा व बेबस साबित करने की कोशिश की है लेकिन उनकी इस कोशिश का एक पहलू मनमोहन द्वारा जनविरोधी आर्थिक सुधार के मोर्चे पर हासिल की गई उपलब्धियों पर पानी फेरना भी है जिससे मनमोहन सिंह बुरी तरह नाराज़ हो उठे हैं। कोई व्यक्ति देश भर में इतनी बदनामी झेलने के बाद भी मुक्तबाज़ार की आर्थिक नीतियों को लागू करने की भरसक कोशिश करे ऐसे में बजाय उसकी तारीफ़ करने के उसे नाकारा कहने की कोशिश की जाए तो उससे उसका नाराज़ होना स्वाभाविक है।

संजय बारु की यह स्थापना कि कांग्रेस में सत्ता के दो केन्द्र बने हुए हैं- एक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मुक्त बाज़ार के हिमायतियों का और दूसरा सोनिया गाँधी के नेतृत्व में नवउदारवादी पूंजीवाद के विरोधियों का, उनकी अपनी मौलिक स्थापना नहीं है। उन्होनें यह बात भाजपा से ज्यों की त्यों ले ली है। उनका यह कहना कि संप्रग-2 में सत्ता के यह दो केन्द्र एक केन्द्र यानि सोनिया गाँधी वाले केन्द्र में बदल चुके हैं, सच्चाई से कोसों दूर है। मनमोहन सिंह की बेचारगी या बेबसी का कारण, रिमोट का सोनिया गाँधी के हाथ में होना हैं यह बात भी नवउदारवादियो का सुनियोजित प्रचार ही है ताकि जनविरोधी आर्थिक सुधार के दुष्‍परिणामों की ज़िम्मेदारी सोनिया गाँधी पर डाली जा सके। रिमोट सोनिया गाँधी के हाथ में है इस विचार को अपनाने में लोगों में मौजूद साम्प्रदायिक रुझान मदद करता है। सोनिया गाँधी चूंकि ईसाई हैं इसलिए उनकी वफ़ादारी ईसाई अमरीका और यूरोप के साथ होगी, साम्प्रदायिक सोच इस अवधारणा को विश्वास में बदल देती है। विवेकवान व्यक्ति के मन मे यह सवाल उठ सकता है कि पूर्व सोवियत संघ, लेटिन अमरीका व यूगोस्लाविया जो ईसाई बहुल देश हैं उन्हें बर्बाद करने की कार्यवाही ईसाई अमरीका और यूरोप क्यों करते है? लेकिन साम्प्रदायिक मनोस्थिति में क्योंकि विवेक काम नहीं करता इसलिए अन्ना हज़ारे से लेकर स्वामी रामदेव तक यह बात कहते नज़र आते हैं कि रिमोट सोनिया गाँधी के हाथ में है जबकि सच्चाई इसके उलट है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेकर विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा तक ईसाई अमरीका की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के न केवल पक्ष में खड़े हैं बल्कि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के छह साल के शासनकाल में वह उन नीतियों को व्यवहार में तत्परता से उतारते नज़र आते हैं। स्वामी रामदेव के तो मंच से नवउदारवादियों का नारा, ‘‘न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन’’ जो अब नरेन्द्र मोदी लगा रहे हैं, कुछ इस तरह से लगाया जाता रहा है कि ‘‘जहाँ की सरकार व्यापारी है वहाँ की जनता भिखारी है।’’ हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का नारा देने वाले संघ का इसाई अमरीका के साथ खड़ा होना इस हक़ीक़त को उजागर करता है कि आर्थिक नीतियां धार्मिक पक्षधरता के स्थान पर वर्गीय पक्षधरता से संचालित होती है।

दूसरी किताब नटवर सिंह की ‘‘वन लाइफ़ इज़ नॉट एनफ़’’ यानि एक ज़िन्दगी काफ़ी नही, आई है जिसमें कहा गया है कि यू.पी.ए. एक के समय सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से राहुल गाँधी ने रोका था। उन्हें इस बात का डर था कि जिस ताकत ने उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी और पिता राजीव गाँधी की निर्मम हत्या कराई है वह ही उनकी माँ सोनिया गाँधी की भी हत्या करा सकती है इसलिए उन्होनें अपनी माँ की जिन्दगी बचाने के लिए उनपर प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए दबाव डाला। इस रहस्योद्घाटन पर जानबूझकर चर्चा को सोनिया गाँधी की छवि को धूमिल करने की ओर मोड़ दिया गया। कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री पद छोड़ना कोई त्याग की बात नही थी बल्कि राहुल गाँधी के दबाव के कारण उन्होंने ऐसा किया था।

रिमोट सोनिया गाँधी के हाथ में है इस प्रचार की शुरुआत सन् 2004 में बनी कांग्रेसनीत संप्रग-1 सरकार के समय से ही हो चुकी थी। वाममोर्चे का समर्थन क्योंकि ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ को लागू किए जाने की शर्तों पर आधारित था इसलिए उस कार्यक्रम को लागू कराने के लिए ही ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ का गठन सोनिया गाँधी की चेयरपर्सनशिप में किया गया। यही वह दूसरा सत्ता का केन्द्र बना जो नवउदारवादी पूंजीवाद यानि मुक्त बाज़ार के समर्थकों की आँखों में चुभने लगा। यह केन्द्र आर्थिक सुधार को लागू करने में बाधा बनेगा इसका अनुमान इसके विरोधियों को लग चुका था इसलिए उन्होनें इस केन्द्र का विरोध इसके जन्म के बाद से ही करना शुरु कर दिया। जो बात संजय बारु ने अपनी किताब में अब लिखी है वह जुलाई 2004 में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और सांसद श्री थावरचन्द गहलोत ने पी.टी.आई. से इन्दौर में कही थी, ‘‘संविधान में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाने का कोई प्रावधान नहीं है और श्रीमती सोनिया गाँधी का उसका चेयरपर्सन होना गैर संविधानिक है।’’ उन्होने आगे कहा कि यह पता चला है कि कांगेस के मंत्री सभी महत्वपूर्ण फ़ाइलों को श्रीमती सोनिया गाँधी को दिखा रहे हैं और वह सुपर प्रधानमंत्री की तरह काम कर रही हैं।’’ फ़ाइलें दिखाने की यही बात संजय बारु ने अपनी किताब में ज्यों की त्यों लिख दी है।

सांसद किसी अन्य लाभ के पद पर जहाँ उसे मानदेय या वेतन मिलता हो काम नहीं कर सकता यह मुद्दा समाजवादी पार्टी के कोटे से बनी राज्यसभा सांसद जयाबच्चन के फ़िल्म सेन्सर बोर्ड के सदस्य बनने पर उठा था। इसी को आधार बना कर सोनिया गाँधी पर विपक्ष ने दबाव डाला और उन्होने 2006 में ‘ राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के चेयरपर्सन पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद जब वर्ष 2009 में संप्रग-2 की सरकार बनी तब दोबारा 29 मार्च 2010 को सोनिया गाँधी की चेयरपर्सनशिप में राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन का आदेश निकाला गया, उसके अगले दिन ही भाजपा ने उसपर हमला बोल दिया। 30 मार्च 2010 को एजेन्सियों के हवाले से छपी खबरों के अनुसार भाजपा के प्रवक्ता राजीव प्रताप रुड़ी ने कहा,‘‘ सोनिया गाँधी की बतौर चेयरपर्सन नियुक्ति एक छद्म संविधानिक सत्ता के केन्द्र का उभरना है। हमारे पास पहले से ही एक अस्थिर प्रधानमंत्री है जो महंगाई, आतंक और विफल विदेश नीति की चुनौतियों से चकराया हुआ है उसपर श्रीमती गाँधी की बतौर सुपरवाईज़र की स्थिति ने सरकार के मुखिया होने के प्रधानमंत्री के पद को ही निरर्थक कर दिया है। यह लोकतंत्र के लिये खतरनाक है कि देश के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिसे संविधान ने प्रधानमंत्री का पद सौंपा है उसके आत्मविश्वास को कमतर किया जाए। भाजपा के ही दूसरे प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘‘श्रीमति गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के चेयरपर्सन पद पर नियुक्ति ने रिमूट कन्ट्रोल होने के बहाने को भी समाप्त कर दिया है जो काम पहले रिमोट कन्ट्रोल द्वारा होता था अब सीधे-सीधे होने लगा है।’’

संजय बारु का यह कहना कि संप्रग-2 में सत्ता का केन्द्र एक ही रह गया था हक़ीक़त के एकदम खिलाफ़ है क्योंकि इस दौर में ही मनमोहन सिंह ने अमरीकी अर्थशास्त्रियों के रुके हुये एजेन्डे को लागू किया। संप्रग-1 में तो वामपंथियों ने उस एजेन्डे को ठन्डे बस्ते में डलवा दिया था और दूसरी पीढ़ी के सुधार, जिनके तहत सरकारी बैंक व बीमे का निजीकरण व बचे हुए सरकारी कारखानों को बेचा जाना और रिटेल मल्टी ब्राँड में प्रत्यक्ष विदेषी निवेश की सीमा को बढ़ाना शामिल था, रुक गये थे। उन्होंने विनिवेश मंत्रालय जो खुद को देशभक्त व स्वदेशी कहलानंे वाले संघी नेताओं ने आधुनिक भारत के मन्दिर कहलाने वाले कारखानों को बेचने के मकसद से खोला था उसे ही बंद करवा दिया था। इन तथाकथित सुधारों को न कर पाने की बेबसी को मनमोहन सिंह ने 2009 में वामपंथियो के बिना समर्थन के बनी संप्रग-2 की सरकार के गठन के अवसर पर संसद में दिए भाषण में कुछ इस तरह से प्रकट किया, ‘‘वामपंथियों ने इन बीते चार सालों में मुझे बंधुआ मज़दूर बनाकर रखा।’’

मनमोहन सिंह ने अपने इस दूसरे कार्यकाल में सत्ता के दूसरे केन्द्र यानि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सुझावों को मानने से लगातार इंकार किया और उसके फैसलों को जितना टाला जा सकता था टाला। संप्रग-1 व 2 के कार्यकाल में बुनियादी अन्तर यह था कि पहले को आज्ञापत्र, स्पष्टरूप में न्यूनतम साझा कार्यक्रम से मिला था और उसे लागू किए जाने का दबाव वामपंथियों की ओर से था जबकि दूसरे कार्यकाल में न्यूनतम साझा कार्यक्रम मौजूद ही नहीं था जिसे लागू किए जाने का वामपंथियों का दबाव होता। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद थी भी तो उसे आज्ञापत्र, दिनांक 4 जून 2009 को संसद में राष्ट्रपति द्वारा दिये गये अभिभाषण से मिला था। जो बाते अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति ने कही थी उन्हे लागू करने के लिए सुझाव देने की ज़िम्मेदारी ‘रासप’ पर थी। संप्रग के दूसरे कार्यकाल में सोनिया गाँधी के नेतृत्व में ‘रासप’ के नाम पर बना सत्ता का यह दूसरा केंद्र इतना कमज़ोर हो चुका था कि उसे भोजन का अधिकार मंज़ूर कराने में तीन साल लग गए जबकि पहले कार्यकाल में ‘नरेगा’ को लागू कराने में न तो इतना समय लगा न ही इतनी मशक्कत करनी पड़ी। इस केन्द्र के कमज़ोर होने की दूसरी मिसाल पेट्रोल का डी-कन्ट्रोल किया जाना और रसोई गैस के सिलन्डरों की संख्या को घटाया जाना और रिटेल में मल्टी ब्राण्ड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 51 प्रतिशत किया जाना है। जबकि श्री संजय बारु सत्ता के इस दूसरे केन्द्र को ही सर्वाक्तिमान बता रहे हैं।

मीडिया में चर्चा से यह बात एकदम ग़ायब है कि सत्ता के यह दोनो केन्द्र काम क्या करते रहे हैं। कौन सा आम जनता के हित में और कौन सा विरोध में फैसले लेता रहा है। यह कोई छिपी हुई बात नही है कि सत्ता का पहला केन्द्र जो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम कर रहा है वह सड़ रहे अनाज को ग़रीबो को बाँटने के सुप्रिम कोर्ट के सुझाव को मानने से साफ़ इंकार कर रहा था जबकि दूसरा केन्द्र जो विदेशी मूल की महिला सोनिया गाँधी के नेतृत्व में भोजन के अधिकार को मंज़ूर कराने में ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा था। जहाँ दूसरा केन्द्र मनरेगा मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी लागू कराने की कोशिश में लगा हुआ था वहीं पहला केन्द्र कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा न्यूनतम मज़दूरी लागू किए जाने के पक्ष में दिए गए फैसले के खिलाफ़ सुप्रिम कोर्ट पंहुच गया था। मनमोहन सिंह सरकार के इस फैसले के विरोध में ही अरुणा राय ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया था। यहाँ यह बात ग़ौर करने की है कि गरीब जनता के खिलाफ़ खड़े पहले केन्द्र के पक्ष में स्वंय को देशभक्त बताने वाली भाजपा खड़ी है जबकि दूसरे केन्द्र द्वारा जनता के हित में किए जा रहे फैसलों के पक्ष में केवल और केवल वामपंथी खड़े हैं। यूं तो कहा जाता है कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है लेकिन प्रचार की इस आँधी में साम्प्रदायिकता से संक्रमित लोग उस केन्द्र के पक्ष में खड़े हो जाते हैं जो उनके ही खिलाफ़ है। जब दुनिया दो ध्रुवीय थी तब ज़्यादा सुरक्षित थी लेकिन एक ध्रुवीय होते ही जो नतीजे सामने आए हैं वह सबके सामने हैं। सत्ता के चाहे एक, दो या अनेक केन्द्र हों बात इससे तय नहीं होती है असली बात इससे तय होती है कि सत्ता के यह केन्द्र किसके पक्ष में काम कर रहे हैं। संजय बारु सत्ता के जिन दो केन्द्रों की बात कर रहे हैं, ठोस सबूतों की रोशनी में आइये इनकी पड़ताल करते हैं।

इन दोनो केन्द्रों के कामों की पड़ताल कोई मुश्किल काम नहीं है। यह काम बिना किसी अर्थशास्त्री या विशेषज्ञ के सामान्य लोग भी कर सकते हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कार्यरत सत्ता केन्द्र ने जो अपने कार्यकाल में काम किये हैं उससे आम जनता अच्छी तरह वाकिफ़ है लेकिन सोनिया गाँधी के नेतृत्व में काम कर रहे सत्ता के इस दूसरे केन्द्र यानि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कामों के बारे में लोग बहुत कम जानते है। इस दूसरे केन्द्र के कामों को जानने के लिए आपको इस परिषद की वेबसाइट पर जाना होगा। नीचे लेख के अन्त में हम दोनो केन्द्रों के प्रमुख कामों को आपके सामने रख रहे हैं ताकि आप तय कर सके कि कौनसा केन्द्र तबतक बना रहना चाहिए जबतक उससे बेहतर न बन जाए और कौनसा नहीं बनना चाहिए।

संजय बारु ने अभी हाल ही में एक चैनल को दिये साक्षात्कार में बताया है कि श्रीमति सोनिया गाँधी द्वारा मनमोहन सिंह को खुलकर काम नहीं करने दिया गया जिसका परिणाम कांग्रेस को 2014 के चुनाव में उठाना पड़ रहा है। यह उनका इतना बड़ा झूठ है जिसपर केवल हँसा ही जा सकता है क्योंकि काँग्रेस की इस दुर्गति का एकमात्र कारण केवल मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रहे केन्द्र का आम जनता के खिलाफ़ फैसले लागू करना रहा है। अगर मनमोहन सिंह तीन साल पहले ही भोजन का अधिकार कानून अमल में ले आते, गैस के सिलन्डर कम न करते, पेट्रोल, और चीनी को डी-कन्ट्रोल नहीं करते, डीज़ल की कीमत धीरे-धीरे नहीं बढ़ाते, जिन्सों की सट्टेबाज़ी न कराते, बाज़ार में हस्तक्षेप करके महंगाई को रोकते तो 2014 के चुनाव का रिज़ल्ट दूसरा ही होता। अगर यू.पी.ए.-1 के शासनकाल में ‘मनरेगा’ लागू नही किया जाता तो 2009 के चुनाव में ही कांग्रेस बुरी तरह हार जाती और मनमोहन सिंह को अपना दूसरा कार्यकाल नसीब नहीं होता। 2009 में कांग्रेस के दोबारा सत्ता में लौटने का कारण ही सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कार्यरत् राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का न्यूनतम साझा कार्यक्रम के कुछ हिस्सों का मनमोहन सिंह के केन्द्र के विरोध के बावजूद लागू किया जाना है। संजय बारु जिस निरंकुश सत्ता के एक केन्द्र के पक्ष में किताब लाए हैं वह उनकी संवेदनहीन पूंजीवादी पक्षधरता को बताता है। वह और मीडिया जनता के खिलाफ़ कार्यरत मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कार्यरत् इस केन्द्र के जनविरोधी कारनामो को चर्चा से बाहर रखकर उसे बेचारा साबित करने में लगे हैं जबकि सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कार्यरत् केन्द्र के जनपक्षीय कामों को छिपाकर उसे खलनायक बताया जा रहा है। यह सही है कि सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कार्यरत् ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ नामक केन्द्र कोई समाजवादी नीतियां लागू नही कर रहा है, हाँ इतना ज़रुर है कि वह आम जनता के प्रति मनमोहन सिंह के केन्द्र की तरह संवेदनहीन नही है और लोगों के कुछ आँसू पोंछने की कोशिश ज़रुर करता है।

आम जनता के खिलाफ़ खड़ा कोई भी केन्द्र चाहे वह मनमोहन-मौन्टेक सिंह के नेतृत्व में हो या नरेन्द्र मोदी के अगर साजिश करके कुछ समय के लिए आ भी जाएगा तो यह तय है कि उसका जीवन स्थायी नही होगा। ऐसे केन्द्र को जनता कुछ ही समय बाद कूड़े के ढेर में फेंक देती है ऐसा हमे इतिहास सिखाता है। नीचे दिए दोनों केन्द्र के कामों से आप खुद फैसला कर लेंगे कि संजय बारु किसको मज़बूत देखना चाहते हैं और किसको कमज़ोर। यह रिर्पोट उनकी पूंजीवादी पक्षधरता को भी बेनकाब करती है।